पंजाब की कृषि व्यवस्था में गहराई तक समाई बदहाली: नीतियों और नेतृत्व की नाकामी की कहानी
पंजाब के किसान को कौन मदद देता है? जमीनी स्तर पर प्रत्येक प्रशासनिक ब्लॉक में 10 से अधिक विभाग हैं जो किसानों को अलग-अलग सेवाएं देने का दावा करते हैं। लेकिन जब हमने अधिकारियों से मुलाकात की, तो यह स्पष्ट हो गया कि उन्होंने कभी भी नीति बनाने या प्रयासों का समन्वय करने के लिए एक साथ बैठना उचित नहीं समझा।

पंजाब में कृषि की बदहाली को बताने की कोशिश में यह लेख लिखना और अपनी यादें साझा करना मुझे कोई खुशी नहीं देता। वैसे तो पंजाब स्टेट फार्मर्स एंड फार्म वर्कर्स कमीशन के चेयरमैन के रूप में मेरा अनुभव, वर्षों की निराशा के बावजूद बेहद समृद्ध रहा, लेकिन सच यह है कि ज्यादातर मौकों पर संबंधित विभागों को आयोग के पत्रों का संज्ञान लेने तक के लिए मनाना एक कठिन काम था। उनके साथ नीतिगत मामलों पर चर्चा करना तो दूर की बात थी।
आखिरी उपाय के रूप में हमने मुख्यमंत्री कार्यालय से आग्रह किया कि संबंधित विभागों को निर्देश दिया जाए कि वे आयोग से संपर्क के लिए किसी अधिकारी को नामित करें। हमने यह भी अनुरोध किया कि जो विभाग किसान की आजीविका पर असर डालते हैं, वे नीतिगत मामलों पर हमारी राय लें।
अब पीछे मुड़कर देखने पर मैं अपनी कोशिशों पर हंस सकता हूं, लेकिन उस समय हमने अपनी शिकायतें फिर से उठाईं। मुख्य सचिव ने कहा कि पंजाब में विभागों को केवल पत्र लिखे जा सकते हैं, अधिकारियों को आदेश का पालन कराने की कोई शक्ति नहीं है। पंजाब का यही असली हाल है - आप चाहे इसे पसंद करें या नापसंद। निर्देश को अधिकारियों ने अपने क्षेत्र में हस्तक्षेप के रूप में देखा, जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं था।
धान की पराली जलाने की समस्या से निपटने के लिए हमने 'आउट ऑफ द बॉक्स' समाधान खोजने का प्रयास किया और पीटर डायमांडिस द्वारा स्थापित एक्स प्राइज से प्रेरित होकर, आयोग ने पैडी स्ट्रॉ चैलेंज फंड की स्थापना का प्रस्ताव दिया। सरकार ने भी बड़ी अनिच्छा के साथ इसे अनुमति दी।
इस पुरस्कार के तहत 15 दिनों में खेत में जैविक तरीके से पराली को गलाने का समाधान विकसित करने वाले को 10 लाख डॉलर दिए जाने थे। विचार यह था कि जब तक समाधान नहीं मिल जाता, हर साल इनाम की राशि दोगुनी की जाएगी। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (PAU) को इस समाधान की सत्यता की जांच के लिए अधिकृत किया गया और आयोग से पीएयू को इसे वैश्विक स्तर पर प्रचारित करने के निर्देश दिए गए। कई महीने बाद जब आयोग ने पूछा कि पीएयू ने पुरस्कार के प्रचार के लिए क्या किया, तो यह जानकर हम दंग रह गए कि केवल 15 ईमेल भेजे गए थे। यहां तक कि पीएयू के पास ईमेल प्राप्तकर्ताओं की सूची तक नहीं थी।
पीएयू क्या है? पीएयू की स्थिति को एक तेल रिसाव से सने पक्षी के रूप में देखिए, जो धन, मदद और दिशा के लिए संघर्ष कर रहा हो। PAU को रिवाइव करने के लिए आयोग ने दुनिया भर में वरिष्ठ पदों पर कार्यरत विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रों के साथ कई बार विचार-विमर्श किया। लेकिन यह विचार भी तब खत्म हो गया जब सदस्य सचिव बलविंदर सिद्धू और मैंने आयोग छोड़ दिया। मुझे उन लोगों के प्रति दुख महसूस होता है जिन्होंने इसमें योगदान देने की पेशकश की थी।
पंजाब के किसान को कौन मदद देता है? जमीनी स्तर पर प्रत्येक प्रशासनिक ब्लॉक में 10 से अधिक विभाग हैं जो किसानों को अलग-अलग सेवाएं देने का दावा करते हैं। लेकिन जब हमने अधिकारियों से मुलाकात की, तो यह स्पष्ट हो गया कि उन्होंने कभी भी नीति बनाने या प्रयासों का समन्वय करने के लिए एक साथ बैठना उचित नहीं समझा।
आयोग ने सुझाव दिया कि राज्य प्रत्येक जिले में ब्लॉक-स्तरीय अधिकारियों की त्रैमासिक समन्वय बैठक बुलाए ताकि पारदर्शिता और बेहतर सेवा वितरण सुनिश्चित किया जा सके। लेकिन इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। पंजाब में नेतृत्व की कमी के कारण यह समस्या गहरी जड़ें जमा चुकी है।
आयोग ने पाया कि नई भर्ती वाले कृषि विकास अधिकारियों को बिना किसी प्रशिक्षण या उनके कार्यों की समझ के ही तैनात कर दिया गया था। इस समस्या को समझने के लिए आयोग ने एक दिवसीय संवाद कार्यशाला आयोजित की। लंबे समय से कार्यरत अधिकारियों ने बताया कि 25 वर्षों में किसी ने भी उनकी राय नहीं मांगी और न ही विभागीय मुद्दों को समझने के लिए उन्हें कभी कार्यशाला में बुलाया गया।
मैंने महसूस किया कि ली थायलर के शब्द, जो एक अलग संदर्भ में कहे गए थे, पंजाब की कृषि पर लागू होते हैं: "अधिकांश लोग उस समस्या को पसंद करते हैं जिसे वे हल नहीं कर सकते, बजाय उस समाधान के जिसे वे पसंद नहीं करते।" यह किसान यूनियन नेताओं पर विशेष रूप से लागू होता है।
जब आयोग ने तीन अलग-अलग विश्वविद्यालयों से किसान आत्महत्याओं पर रिपोर्ट मांगी, तो हमें यह कह कर रिपोर्ट देने से इनकार कर दिया गया कि निष्कर्ष 'भड़काऊ' हो सकते हैं। स्पष्ट था कि रिपोर्ट में विसंगतियां थीं और उन्होंने गलत पद्धतियों का इस्तेमाल किया था।
2015 की नीति के तहत, जिला कलेक्टरों को आत्महत्या करने वाले किसान के परिवार के पुनर्वास के लिए जिला-स्तरीय समितियों का गठन करना था। लेकिन आयोग ने पाया कि कलेक्टरों ने कोई पहल नहीं की और जिम्मेदारियों से पूरी तरह मुंह मोड़ लिया। पंजाब के ज्यादातर सरकारी दफ्तरों की तरह जिला कार्यालय भी उपकरणों की कमी, स्टाफ की कमी और काम की अधिकता से जूझ रहे हैं।
आयोग ने रसायनों का उपयोग कम करने, कृषि विस्तार में क्रांति लाने, फसल की गुणवत्ता में सुधार करने और किसानों की आय बढ़ाने के प्रयास किये। एक ऐप विकसित किया गया, जिसे आठवीं कक्षा का छात्र भी सहजता से संचालित कर सकता था। इसमें किसानों को बेचे गए सभी कृषि इनपुट की जानकारी रियल टाइम में सरकारी सर्वर पर अपलोड करनी थी। दुकानदारों से बार-बार सलाह ली गई और उनके सुझावों को शामिल किया गया। लेकिन विभाग इस ऐप को चालू करने के लिए राज्य में बेचे गए लाइसेंसी कीटनाशकों के डेटा तक उपलब्ध नहीं करा सका। ये घटनाएं उदासीनता नहीं, बल्कि व्यवस्थागत ठहराव का प्रतीक हैं।
जोन डिडियन की किताब 'द व्हाइट शैडो' की शुरुआती पंक्ति है: "हम जीने के लिए कहानियां सुनाते हैं।" दुख की बात है कि पंजाब की कहानी अब बिखरती नजर आ रही है।
(अजय वीर जाखड़, भारत कृषक समाज के चैयरमैन हैं और पंजाब स्टेट फार्मर्स एंड फार्म वर्कर्स कमीशन के पूर्व चेयरमैन हैं।)