धान की सीधी बुवाई के लिए पूसा बासमती 1979 और 1985 किस्मों की बिक्री शुरू
पूसा संस्थान में बासमती धान की रोबीनोवीड किस्मों - पूसा बासमती 1979 और पूसा बासमती 1985 की बिक्री आरंभ हो गई है।
धान की खेती में पानी और श्रम की बचत के लिहाज से सीधी बुवाई विधि (डीएसआर) बेहतर मानी जाती है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली (पूसा संस्थान) ने सीधी बुवाई के लिए बासमती धान की दो उन्नत किस्में पूसा बासमती 1979 और पूसा बासमती 1985 विकसित की थी जो हर्बिसाइड टॉलरेंट हैं। पूसा संस्थान में अब इन रोबिनोवीड किस्मों की बिक्री प्रारंभ हो गई है।
आईएआरआई के निदेशक डॉ. अशोक कुमार सिंह का कहना है कि उत्तर पश्चिमी भारत में धान की खेती में तीन प्रमुख समस्याएं हैं - गिरता जलस्तर, धान रोपाई के लिए श्रमिकों की कमी और रोपाई विधि में होने वाला ग्रीनहाउस गैस मीथेन का उत्सर्जन। इन तीनों समस्याओं के समाधान के लिए धान की सीधी बुवाई विधि कारगर है। इससे लगभग 33 फीसदी पानी की बचत होती है। लेकिन सीधी बुवाई विधि में खरपतवारों की समस्या रहती है। इसलिए खरपतवार हटाने में काफी मेहनत और लागत लगती है। यही कारण है कि किसान सीधी बुवाई विधि को अपनाने से बचते हैं।
डॉ. अशोक कुमार सिंह ने बताया कि आईएआरआई ने गहन अनुसंधान कर बासमती धान की दो किस्में – पूसा बासमती 1979 और पूसा बासमती 1985 विकसित की हैं। ये किस्में नॉन जीएम खरपतवारनाशी सहिष्णु हैं जो इमेजथापायर 10% एसएल के प्रति सहिष्णु हैं और भारत में खेती के लिए जारी की गई हैं।
पूसा बासमती 1979 को बासमती धान की पीबी 1121 किस्म से विकसित किया गया है जो 130-133 दिनों में तैयार होती है और औसतन 45.77 क्विंटन प्रति हेक्टेअर की पैदावार देती है।
पूसा बासमती 1985 को बासमती धान की किस्म पीबी 1509 से डेवलप किया गया है जो 115-120 दिनों में तैयार होती है और औसतन 52 क्विंटल प्रति हेक्टेअर की पैदावार देती है।
डॉ. अशोक कुमार सिंह ने बताया कि इन दोनों किस्मों को सीधी बुवाई विधि और खरपतवार नियंत्रण के लिए विकसित किया गया है। इमेजथापायर 10% एसएल एक व्यापक क्षमता वाला खरपतवारनाशी है। इसके प्रति टॉलेरेंस होने के कारण ये किस्में सीधी बुवाई के लिए कारगर हैं क्योंकि खरपतवारनाशी का प्रयोग कर धान को नुकसान नहीं होगा जबकि खरपतवार नष्ट हो जाएंगे। इससे खरपतवार निकालने के लिए निराई-गुडाई की मेहनत और लागत बचेगी।
पूसा बासमती 1979 और पूसा बासमती 1985 सीधी बुवाई में कारगर होने के कारण पानी की बचत के साथ-साथ पर्यावरणीय प्रभावों को भी कम करती हैं। कृषि मंत्रालय में कृषि आयुक्त डॉ. पीके सिंह ने धान की इन किस्मों को विकसित करने में पूसा संस्थान के योगदान की सराहना की है। आईसीएआर के सहायक महानिदेशक (बीज) डॉ. डीके यादव ने कहा कि बासमती धान की यह दोनों किस्में बासमती भौगोलिक क्षेत्रों के किसानों के लिए वरदान साबित होंगी।
भारत से हर साल होने वाले करीब 50 हजार करोड़ रुपये के बासमती धान निर्यात में पूसा संस्थान द्वारा विकसित बासमती किस्मों की करीब 95 फीसदी हिस्सेदारी है।