संस्‍थाओं के कायाकल्प से किसान कल्याण

‘संस्थान’ शब्द का अर्थ केवल सरकारी संस्थानों तक सीमित नहीं है। इसमें सभी प्रकार के संस्थान शामिल हैं, जैसे सहकारी समितियां, किसान संगठन, गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ), निजी संस्थान आदि।

संस्‍थाओं के कायाकल्प से किसान कल्याण

हरित क्रांति की सफलता का श्रेय नीतियों, इन्फ्रास्ट्रक्चर, संसाधनों और संस्थानों को दिया जाता है। इनमें से वर्तमान में नीतियों और संसाधनों (इनपुट) की सस्टेनेबिलिटी के दृष्टिकोण से समीक्षा की जा रही है। इन्फ्रास्ट्रक्चर निवेश के लिए प्राथमिकता बना हुआ है। मुख्यतः पिछली सफलताओं के कारण संस्थान गहन जांच से बच गए हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर), सहकारी ऋण संस्थान, सिंचाई विभाग, उर्वरक कंपनियां (सार्वजनिक, सहकारी और निजी) तथा भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) ने किसानों के लिए अधिक उत्पादकता हासिल करने में मदद की। इन संस्थानों ने खाद्यान्न की कमी की गंभीर समस्या को हल करने के लिए एकजुट होकर काम किया। उनका उद्देश्य स्पष्ट था- अधिक खाद्य उत्पादन करना ताकि भारत को खाद्यान्न के लिए आयात पर निर्भर न रहना पड़े। उन्होंने यह लक्ष्य हासिल किया और आज भारत खाद्यान्न का निर्यात करता है।

समय बदल गया है और साथ ही जलवायु, पारिस्थितिकी और बाजार भी। खेती को पारिस्थितिकी के लिहाज से स्थायी और आर्थिक रूप से व्यवहार्य गतिविधि के रूप में बनाए रखने की चिंता ने तात्कालिक और दीर्घकालिक समाधान की आवश्यकता को उजागर किया है। नीतिगत विकल्पों पर तो राष्ट्रीय और वैश्विक मंचों पर चर्चा की जा रही है, लेकिन ऐसा लगता है कि संस्थानों के पुनर्निर्माण को पीछे छोड़ दिया गया है। इस लेख में कुछ प्रमुख मुद्दों को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है। संस्थानों के पुनर्निर्माण के मुद्दे को व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है। यह लेख केवल सोच को प्रेरित करने के लिए लिखा गया है, सभी सवालों के जवाब देने के लिए नहीं।

यहां यह बात महत्वपूर्ण है कि ‘संस्थान’ शब्द का अर्थ केवल सरकारी संस्थानों तक सीमित नहीं है। इसमें सभी प्रकार के संस्थान शामिल हैं, जैसे सहकारी समितियां, किसान संगठन, गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ), निजी संस्थान आदि। इस स्पष्टीकरण के साथ मैं कुछ मुद्दे रखता हूं।

पहला, सबसे महत्वपूर्ण भारतीय कृषि अनुसंधान परिषदः यह संस्थान खाद्य आत्मनिर्भरता हासिल करने में अपनी बड़ी भूमिका के लिए जाना जाता है। इसने बागवानी, पशुपालन और मत्स्य पालन के विकास में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। हालांकि, इसके प्रयास मुख्य रूप से उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने पर केंद्रित रहे हैं, न कि किसानों की आय या दीर्घकालिक सस्टेनेबिलिटी पर। यह तर्क कई बार सुनने को मिलता है कि उत्पादकता में वृद्धि अपने आप किसानों की आय बढ़ाएगी। यह सही है कि उत्पादकता में वृद्धि आय बढ़ाने में सहायक है, लेकिन यह मान लेना ठीक नहीं कि यही एकमात्र रास्ता है। इसके अलावा, अनुसंधान और विकास मुख्य रूप से चावल और गेहूं की उत्पादकता बढ़ाने तक सीमित रहा है। 

जहां आईसीएआर का ध्यान अनुसंधान और विकास पर केंद्रित था (जो ठीक भी था), वहीं निजी क्षेत्र में नई टेक्नोलॉजी विकसित हुईं जो कंपनियों और किसानों को कीमत पर उपलब्ध थीं। बागवानी और तिलहन में उत्पादन में वृद्धि या कीट रोधी बीज ज्यादातर निजी क्षेत्र से ही आए। किसानों ने इन प्रौद्योगिकी के लाभ देखकर इन्हें तेजी से अपनाया। आईसीएआर ने अपने पारंपरिक क्षेत्र में काम जारी रखा, जबकि निजी क्षेत्र ने बड़े पैमाने पर प्रवेश किया। इसमें कोई बुराई नहीं है। लेकिन आईसीएआर, जो भारत में कृषि के लिए सबसे बड़ी सार्वजनिक वित्त पोषित अनुसंधान संस्था है, को नई चुनौतियों को स्वीकार करना चाहिए और निम्नलिखित बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए: 

1. केवल उत्पादकता बढ़ाकर नहीं, बल्कि लागत घटाने और अधिक मूल्य दिलाने के तरीके खोज कर किसानों की आय बढ़ाना। 
2. प्राकृतिक खेती के तरीकों पर शोध और शिक्षा प्रदान करना और इन्हें वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित करना ताकि किसान उन्हें अपना सकें। 
3. सस्टेनेबल कृषि और जलवायु प्रतिरोधक क्षमता पर शोध करना। 
4. कृषि विज्ञान केंद्रों को स्थानीय स्तर पर समस्याओं के समाधानकर्ता के रूप में पुनर्गठित करना। 
इस सूची को और विस्तार दिया जा सकता है, लेकिन यह न्यूनतम आवश्यकताएं हैं।

दूसरा, कृषि विस्तार प्रणाली: कृषि विस्तार (एक्सटेंशन) प्रणाली अब भी हरित क्रांति के तरीकों पर आधारित चावल और गेहूं पर केंद्रित है। हालांकि जलवायु परिवर्तन और फलों-सब्जियों, अंडे-पोल्ट्री तथा डेयरी उत्पादों की बढ़ती मांग ने एक विविध और अधिक ज्ञानपूर्ण विस्तार प्रणाली की आवश्यकता को जन्म दिया है। इन नई मांगों को पूरा करने के लिए न तो विस्तार प्रणाली की पहुंच बढ़ाई गई, न ही तकनीकी दक्षता में सुधार हुआ है। इस खाली स्थान को निजी कंपनियां और उनके एजेंटों भर रहे हैं। हाल ही स्टार्टअप ने भी इस बाजार में प्रवेश किया है। किसानों ने दिखाया है कि वे उच्च गुणवत्ता वाली सेवाओं के बदले भुगतान करने के लिए तैयार हैं, बशर्ते ये सेवाएं उनकी आय बढ़ाने में सहायक हों। स्टार्टअप ने इस आवश्यकता को पहचाना और उन्होंने माइक्रो स्तर पर मौसम का पूर्वानुमान, पौधों के पोषक तत्वों का मूल्यांकन, बाजार और वित्तीय जानकारी जैसे क्षेत्रों में काम करना शुरू किया है, ताकि किसानों को इन चुनौतियों से बेहतर तरीके से निपटने में मदद मिल सके।

तीसरा, ऋण संस्थान: स्थापित सहकारी ऋण प्रणाली मुख्यतः कुप्रबंधन और डिफॉल्ट के कारण ध्वस्त हो गई। कृषि ऋण प्रदान करने का भार वाणिज्यिक बैंकों पर आ गया, जिन्होंने तब तक ग्रामीण शाखाओं का एक बड़ा नेटवर्क स्थापित कर लिया था। इसके परिणामस्वरूप सहकारी ऋण प्रणाली की बची-खुची व्यवस्था भी पूरी तरह समाप्त हो गई। इसे पुनर्जीवित करने के लिए अब देर से प्रयास किए जा रहे हैं। सहकारी ऋण कम होने के बावजूद कुल अल्पकालिक ऋण की उपलब्धता में वृद्धि हुई है। हालांकि इसके मानदंड और वित्तीय इंस्ट्रूमेंट अब भी चावल-गेहूं प्रारूप तक ही सीमित हैं, जिससे बागवानी, पोल्ट्री जैसे तेजी से बढ़ते क्षेत्रों की मांगों की अनदेखी हो रही है। कुछ इनोवेटिव निजी वित्तीय संस्थानों ने बेहतर वित्तीय इंस्ट्रूमेंट तैयार किए हैं, जिनमें वितरण का लचीला शेड्यूल और वैज्ञानिक तरीके से मॉनिटरिंग शामिल हैं। मुख्य रूप से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर आधारित ऋण प्रणाली में बड़े पैमाने पर इनोवेशन की आवश्यकता है।

चौथा, किसान संगठन: ग्रामीण अर्थव्यवस्था में पारंपरिक सहकारी ढांचे की विफलता के मुख्य कारण अभिजात वर्ग और राजनीतिक हस्तक्षेप, कुप्रबंधन, किसानों की भागीदारी की कमी और सरकारी दखल हैं। इससे किसान संगठनों को नए सिरे से डिजाइन करने की आवश्यकता महसूस हुई। इसी विचार के तहत किसान उत्पादक कंपनी (एफपीसी) की अवधारणा को कंपनी अधिनियम के तहत पंजीकृत इकाई के रूप में लागू किया गया। इस ढांचे ने सदस्यों को राज्य सरकारों के प्रभाव से बाहर निकलने और निजी कंपनियां स्थापित करने की अनुमति दी। ऐसी 10,000 एफपीसी खोलने की बड़ी योजना शुरू की गई, और रिपोर्टों के अनुसार अब 40,000 से अधिक ऐसी कंपनियां मौजूद हैं। हालांकि यह देखना बाकी है कि इनमें से कितनी सब्सिडी अवधि समाप्त होने के बाद टिकी रहेंगी।  

एफपीसी को बढ़ावा देने के साथ 97वें संविधान संशोधन के तहत सहकारी समितियों को अधिक परिचालन स्वतंत्रता प्रदान की गई। हाल ही सरकार ने जैविक कृषि, निर्यात और बीज के लिए राष्ट्रीय स्तर की तीन सहकारी समितियां बनाई हैं। इनकी परफॉर्मेंस का आकलन अभी बाकी है। चूंकि तीनों संस्थानों का ढांचा अमूल की तरह ‘नीचे से ऊपर’ का नहीं है, किसानों के लिए वास्तविक वैल्यू लाने की इनकी क्षमता को अभी देखा जाना है। 

सबक अमूल मॉडल और स्वयं सहायता समूह मॉडल से लिया जाना चाहिए था, जो निचले स्तर से ऊपर की ओर जाते हैं। उन्हें फेडरेशन या ग्रामीण आजीविका मिशनों की मदद मिलती है। किसानों की आय बढ़ाने के प्रयास में प्रभावी किसान संगठनों को एक व्यावसायिक संगठन के रूप में विकसित करना महत्वपूर्ण है। किसानों के संस्थान बनाने का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि उन्हें निजी चैनलों या अपनी फेडरेशन के माध्यम से बाजार से जुड़ने दिया जाए और किसी निर्धारित प्रारूप तक सीमित न रखा जाए। यह बाजार सुधारों की दिशा में कदम होगा जो दीर्घकाल में किसानों के लिए फायदेमंद होंगे।

पांचवां, कृषि स्टार्टअप के लिए इकोसिस्टम: कृषि टेक्नोलॉजी, फाइनेंशियल टेक्नोलॉजी और फूड टेक्नोलॉजी में कुछ स्टार्टअप ने अच्छे परिणाम दिखाए हैं। हालांकि रेगुलेटरी और नीतिगत वातावरण में कुछ बाधाएं हैं जिन्हें दूर करने की आवश्यकता है। सरकार को किसानों को बेहतर सेवाएं प्रदान करने में स्टार्टअप को अपने साझेदार के रूप में देखना चाहिए।

छठा, बाजार और संस्थान: पहला संस्थान जो दिमाग में आता है, वह है कृषि उपज मंडी समिति (एपीएमसी)। मेरा मानना है कि नियमित बाजार महत्वपूर्ण हैं, लेकिन मंडी समितियां अपने मूल उद्देश्य और डिजाइन से काफी हद तक भटक चुकी हैं। इन्हें बाजार संस्थाओं को जकड़ने वाली इकाइयों के बजाय किसानों को सशक्त बनाने वाली संस्थाओं के रूप में सुधारने की आवश्यकता है। इन्हें व्यापारियों और बिचौलियों के प्रभाव से मुक्त कर किसानों के स्वामित्व और नियंत्रण वाले संगठनों में बदलना चाहिए।  

भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) एक अन्य बड़ा संस्थान है, जो खाद्यान्न की खरीद के लिए जिम्मेदार है। देश भर में इसकी खरीद, वितरण कार्यों की जटिलता और आकार को देखते हुए कहा जा सकता है कि इसने अच्छा काम किया है, लेकिन इसके साथ कुछ लॉजिस्टिक्स की समस्याएं भी हैं। भारत जैसे देश के लिए स्थानीय रूप से जड़ें जमाए हुए छोटे और चुस्त संस्थान अधिक उपयुक्त हैं। हालांकि एफसीआई का 'क्षेत्रीयकरण' और विकेंद्रीकरण कोई साधारण कार्य नहीं है। इस तरह के बदलाव के लिए विस्तृत योजना बनानी होगी जो सभी उद्देश्यों के साथ जुड़ी हो।  

कई राज्यों की अपनी मार्केटिंग फेडरेशन हैं जो अधिकांश अप्रभावी हैं। उन्हें हटाकर नए, बाजार-केंद्रित संस्थानों की स्थापना की आवश्यकता है। इस संदर्भ में नेशनल एग्रीकल्चरल कोऑपरेटिव मार्केटिंग फेडरेशन (नाफेड) को भी खुद को बदलना होगा और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद तक सीमित रहने के बजाय अधिक बाजार-केंद्रित बनना होगा।

सातवां, निजी संस्थान: कृषि और किसानों को प्रभावित करने वाले कई निजी संस्थान हैं। पारंपरिक बीज और उर्वरक एसोसिएशन जैसे संस्थान अपने सदस्यों के व्यावसायिक हितों की रक्षा के लिए सुसंगठित हैं। हालांकि यदि वे इस बात को समझें कि किसान उनके मुख्य ग्राहक हैं और उनका बने रहना किसानों के निर्णयों पर निर्भर करता है, तो इससे उन्हीं का भला होगा। इनका किसानों के साथ संबंध ‘विश्वास’ पर आधारित होना चाहिए। शायद गलती किसान संगठनों की भी है, क्योंकि उन्होंने इन संस्थानों के साथ निरंतर और सार्थक संवाद नहीं किया। इसके अलावा कई चैरिटेबल संस्थान, गैर-सरकारी संगठन और शिक्षण संस्थान हैं जो किसानों के मुद्दों पर काम करते हैं। हालांकि ये संस्थान अपने हितों और फंडिंग के आधार पर छोटे दायरे में काम करते हैं। इन संस्थानों के कार्यों को संकलित करके किसानों के लिए सुलभ बनाना जरूरी है। 

यह सूची और लंबी हो सकती है। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि नई चुनौतियों के समाधान के लिए एक नए इकोसिस्टम की आवश्यकता है। सरकार को ऐसा इकोसिस्टम बनाना चाहिए जिसमें सभी संबंधित पक्ष आपस में विश्वास के साथ मिलकर काम कर सकें और किसानों को बेहतर सेवाएं प्रदान कर सकें। हमें संस्थागत संरचना को दुरुस्त करना होगा!

(लेखक भारत सरकार के पूर्व कृषि एवं खाद्य सचिव हैं)

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