जीएम बीज की नई पीढ़ी से उत्पादकता बढ़ने के साथ भारतीय कपास विश्व बाजार में प्रतिस्पर्धी होगी
भारत में कपास की उत्पादकता 1950 से 1970 के दौरान धीरे-धीरे बढ़ी। यह प्रति हेक्टेयर 130 किलो के आसपास थी और कुल औसत उत्पादन करीब 60 लाख गांठ था। उत्पादन 2002-03 में बढ़कर 136 लाख गांठ पहुंच गया और प्रति हेक्टेयर उत्पादकता 302 किलो हो गई। उत्पादकता में इस बढ़ोतरी का श्रेय उर्वरकों और कीटनाशकों की उपलब्धता बढ़ने और सिंचाई की तकनीक के साथ पानी की उपलब्धता में सुधार को जाता है।
कपास भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए सबसे महत्वपूर्ण नकदी फसलों में एक है। यह फाइबर और तेल के साथ पशु चारा भी उपलब्ध कराता है। लेकिन किसानों के लिए कपास की फसल उपजाना चुनौतीपूर्ण बनता जा रहा है, क्योंकि इस पर बॉलवर्म, थ्रिप्स, व्हाइटफ्लाई और जैसिड जैसे कीटों के हमले अधिक होने लगे हैं। दुनिया में खेती की जमीन के सिर्फ 2.5 प्रतिशत हिस्से पर कपास की फसल उपजाई जाती है, लेकिन 16% कीटनाशकों की खपत इसी में होती है।
भारत में कपास की उत्पादकता 1950 से 1970 के दौरान धीरे-धीरे बढ़ी। यह प्रति हेक्टेयर 130 किलो के आसपास थी और कुल औसत उत्पादन करीब 60 लाख गांठ था। उत्पादन 2002-03 में बढ़कर 136 लाख गांठ पहुंच गया और प्रति हेक्टेयर उत्पादकता 302 किलो हो गई। उत्पादकता में इस बढ़ोतरी का श्रेय उर्वरकों और कीटनाशकों की उपलब्धता बढ़ने और सिंचाई की तकनीक के साथ पानी की उपलब्धता में सुधार को जाता है।
वर्ष 2002 में भारत में पहले जेनेटिकली मॉडिफाइड (जीएम) बीज बीटी कॉटन को मंजूरी दी गई, जो मोनसेंटो की पहली पीढ़ी की जीएम टेक्नोलॉजी थी। जल्दी ही भारत में 90% कपास की खेती इसी किस्म की होने लगी। बीटी कॉटन से पारंपरिक किस्म की तुलना में न सिर्फ उत्पादकता 25% से 60% तक बढ़ी, बल्कि इससे कीटनाशकों पर होने वाला खर्च भी कम हो गया। गैर-बीटी वैरायटी की तुलना में बीटी वैरायटी में तेल की मात्रा भी अधिक थी। इससे जिनिंग और तेल मिलों को फायदा हुआ।
अगले कुछ वर्षों के दौरान और अधिक संख्या में किसानों ने बीटी बीज को अपनाया, जिससे इसका रकबा 2002-03 के 76.3 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 2014-15 में 128.5 लाख हेक्टेयर हो गया। इस दौरान उत्पादकता भी प्रति हेक्टेयर 302 किलो से बढ़कर 511 किलोग्राम हो गई। 2013-14 में सबसे अधिक 566 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की उत्पादकता थी। उत्पादन भी इस दौरान 179 लाख गांठ से 386 लाख गांठ पहुंच गया। उत्पादन 2013-14 में 398 लाख गांठ के अधिकतम स्तर पर पहुंच गया था। इसका नतीजा यह हुआ कि चीन को पीछे छोड़ते हुए भारत दुनिया का सबसे बड़ा कपास उत्पादक बन गया। बीटी बीज के आने से भारत में कपास का उत्पादन सिर्फ 11 वर्षों में तीन गुना हो गया।
वर्ष 2015-16 तक बॉलगार्ड-2 टेक्नोलॉजी पिंक बॉलवर्म कीटों के हमले को झेलने में सक्षम थी, लेकिन 2014 के बाद पिंक बॉलवर्म में इस किस्म के बीज के विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता विकसित होने लगी थी। मार्केटिंग वर्ष 2015-16 में पिंक बॉलवर्म कीटों ने गुजरात में काफी नुकसान पहुंचाया। वर्ष 2017-18 में तो इन कीटों ने मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में महामारी के स्तर पर नुकसान पहुंचाया। इसका प्रभाव 8% से लेकर 92% तक रहा, जिससे उत्पादकता 10% से 30% तक कम हो गई। किसानों की समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें। बॉलवर्म को रोकने के लिए उन्होंने फसल पर पर्याप्त कीटनाशकों का छिड़काव भी नहीं किया था। उसके बाद से बॉलवर्म का असर कम करने के लिए कई कदम उठाए गए, लेकिन नतीजे उत्साहजनक नहीं रहे। प्रति हेक्टेयर उत्पादकता भी 2013-14 के 566 किलोग्राम से घटकर 2023-24 में 422 किलोग्राम रह गई है।
नई किस्म के बीज की जरूरतः 2006 में जीएम वैरायटी की दूसरी पीढ़ी के आने के बाद से बीज टेक्नोलॉजी में कोई सुधार नहीं हुआ है। अभी जो बीटी बीज उपलब्ध हैं वह पुरानी पीढ़ी की ही वैरायटी हैं, जिनके खिलाफ बॉलवर्म प्रतिरोध क्षमता विकसित कर चुके हैं। यह किस्में अपने आसपास उगने वाली खरपतवार से लड़ने में भी सक्षम नहीं हैं। इन खरपतवारों से कपास की उत्पादकता 30% से अधिक घट सकती है।
दुनिया में बेहतर बीज टेक्नोलॉजी उपलब्ध है। पुरानी किस्म की तुलना में इनमें बाल काउंट भी ज्यादा है। इनमें प्रोटीन की तीन स्ट्रेन होती है जो कपास के पौधे को बॉलवर्म तथा अन्य कीटों से लड़ने में मदद करती है। बीज की यह पीढ़ी खरपतवार प्रबंधन में भी बेहतर है। बीज की नई किस्म कीटनाशक और खरपतवार नाशक छिड़काव में किसानों की लागत कम कर सकती है।
कपास उत्पादन में सुधारः नई बीज टेक्नोलॉजी को अपनाने से उत्पादकता बेहतर होगी और उत्पादन भी बढ़ेगा। अगर हम मान लें कि नई बीज टेक्नोलॉजी से हम प्रति हेक्टेयर उत्पादन को 2013-14 के 566 किलोग्राम के स्तर पर ले जाने में सफल रहते हैं, तो कुल उत्पादन 402 लाख गांठ का होगा। यह मौजूदा वर्ष के उत्पादन की तुलना में 62 लाख गांठ अधिक होगा। इस तरह 3.72 अरब डॉलर का संभावित फायदा होगा जिसे भारत अभी हर साल खो रहा है। इसके अलावा किसानों की आय भी 31% बढ़ेगी क्योंकि उनकी उत्पादकता 15% बढ़ जाएगी और खेती की लागत में 7% की बचत होगी।
कपास की बढ़ती घरेलू खपतः 11 वर्षों में उत्पादन लगभग तीन गुना बढ़ने के बाद कपास की घरेलू खपत में भी काफी वृद्धि हुई है। वर्ष 2002-03 में खपत 154 लाख गांठ की थी जो 2023-24 में 315 लाख गांठ हो गई। भारत का घरेलू टेक्सटाइल और अपैरल बाजार 2010-11 के 50 अरब डॉलर से बढ़कर 2021-22 में 99 अरब डॉलर का हो गया, और उद्योग विशेषज्ञों के अनुसार 2025-26 में इसके 190 अरब डॉलर का हो जाने का अनुमान है।
इस मांग के साथ स्पिनिंग क्षमता और फैब्रिक तथा गारमेंट उत्पादन में भी वृद्धि हुई। कॉटन यार्न का निर्यात 2007 के 1.76 अरब डॉलर से बढ़कर 2020-21 में 4.92 अरब डॉलर हो गया। अर्थात इसमें 176% की वृद्धि हुई। इस तरह हम देख सकते हैं कि उत्पादन के आंकड़े बढ़ने के साथ यार्न निर्यात और फैब्रिक तथा गारमेंट के उत्पादन में भी वृद्धि हुई है।
भारतीय अर्थव्यवस्था में कॉटन तथा कॉटन टेक्सटाइल उत्पादों का योगदानः वर्ष 2020-21 में भारत का घरेलू टेक्सटाइल और अपैरल बाजार लगभग 99 अरब डॉलर का था। भारत से लगभग 31 अरब डॉलर के टेक्सटाइल और अपैरल का निर्यात भी हुआ। इस तरह इस सेक्टर का इकोनॉमी में योगदान 130 अरब डॉलर का रहा जो उस साल की जीडीपी का लगभग 5% है।
कॉटन और कॉटन टेक्सटाइल उत्पादों का हिस्सा सबसे बड़ा है। वर्ष 2020-21 में भारत से 2.4 अरब डॉलर के कॉटन फाइबर का निर्यात किया गया जबकि कॉटन यार्न का निर्यात 4.9 अरब डॉलर और कॉटन फैब्रिक का 3.3 अरब डॉलर का रहाय़ दूसरी तरफ अपैरल और अन्य तैयार उत्पादों का निर्यात 15.7 अरब डॉलर तक पहुंच गया। इस तरह देखें तो कॉटन और कॉटन टेक्सटाइल उत्पादों का कुल टेक्सटाइल निर्यात में 60% हिस्सा था। अगर हम उत्पादकता में सुधार के साथ उत्पादन 402 लाख गांठ तक पहुंचाने में सफल रहते हैं तो इससे इकोनॉमी में हर साल 9.8 अरब डॉलर का अतिरिक्त योगदान होगा।
2005 से 2024 तक के लाभः बीटी कॉटन की वजह से भारत के कपास उत्पादन और पूरी वैल्यू चेन में वृद्धि का आकलन किया जाए तो 2005-2024 के दौरान भारत की अर्थव्यवस्था में टेक्सटाइल सेक्टर का योगदान 240 अरब डॉलर का हो जाता है। अगर कॉटन की उत्पादकता 566 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के सर्वोच्च स्तर से 422 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के मौजूदा स्तर पर नहीं गिरती तो यह वैल्यू 133 अरब डॉलर अधिक होती।
इस सेक्टर के संभावित लाभः अगली पीढ़ी की जीएम वैरायटी की नई किस्म अपनाने की प्रक्रिया को मंजूरी मिल चुकी है। एक बार इसकी नीति आ जाए तो यह भारतीय टेक्सटाइल इकोनॉमी में अगले 15 वर्षों के दौरान 800 अरब से लेकर 1.6 लाख करोड़ डॉलर (सबसे अच्छी परिस्थितियों में) योगदान कर सकती है। भारत में कपास की खेती और टेक्सटाइल सेक्टर पर जीएम टेक्नोलॉजी के प्रभाव को देखते हुए कहा जा सकता है कि इस तरह की नीतिगत पहल को ट्रेट फीस और आईपीआर की बहस में नहीं उलझाया जाना चाहिए।
बीज का मसला तत्काल हल न करने के जोखिमः अगर कपास की उत्पादकता लगातार कम रहती है तो न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) बढ़ाने की जरूरत पड़ती रहेगी और वैश्विक कपास बाजार में भारत की कपास प्रतिस्पर्धा करने लायक नहीं रहेगी। इसके कई नकारात्मक प्रभाव होंगे। जैसे, भारत से कपास का निर्यात कम होगा, एमएसपी एजेंसियों पर अधिक मात्रा में फसल खरीदने का दबाव होगा जिसका असर वित्तीय संसाधनों पर पड़ेगा। विश्व टेक्सटाइल बाजार में भारतीय कॉटन टेक्सटाइल की प्रतिस्पर्धी क्षमता और स्वीकार्यता प्रभावित होगी। टेक्सटाइल निर्यात बढ़ाने का हमारा लक्ष्य तो अधूरा रहेगा ही, भारतीय टेक्सटाइल सेक्टर में गैर निष्पादित परिसंपत्तियां (एनपीए) बढ़ने लगेंगी। मौजूदा एमएसपी देखें तो भारतीय कपास समान किस्म की ब्राजील की कपास से 15 से 20% महंगी है। पिछले 6-7 वर्षों में ब्राजील की कपास दुनिया में सबसे अधिक प्रतिस्पर्धी बनकर उभरी है।
रोजगार सृजनः टेक्सटाइल सेक्टर स्किल्ड और अनस्किल्ड दोनों तरह के श्रमिकों को बड़े पैमाने पर रोजगार उपलब्ध कराता है। इंडिया ब्रांड इक्विटी फाउंडेशन के मुताबिक टेक्सटाइल सेक्टर कृषि के बाद दूसरा सबसे बड़ा रोजगार उपलब्ध कराने वाला सेक्टर है। इसमें 4.5 करोड़ लोग प्रत्यक्ष रूप से और 6 करोड़ परोक्ष रूप से जुड़े हुए हैं। अगर कपास का उत्पादन 10 अरब डॉलर मूल्य के बराबर सालाना बढ़ता है तो इस सेक्टर में 35 लाख नए रोजगार पैदा होने की संभावना है।
जैसी कि पहले चर्चा की गई है, पुरानी किस्म की तुलना में जीएम कॉटन की नई पीढ़ी के अनेक फायदे हैं। इससे कपास उत्पादन बढ़ाने में मदद मिलेगी और हम अपना निर्यात और अपनी विदेशी मुद्रा आय बढ़ा सकेंगे, विश्व बाजार में अपनी हिस्सेदारी में भी इजाफा कर सकेंगे, नए रोजगार का सृजन होगा और जीवों और वनस्पतियों पर दीर्घकालिक असर डालने वाले कीटनाशकों तथा खरपतवार नाशकों का इस्तेमाल कम होगा। इस तरह हम पर्यावरण को होने वाले नुकसान को भी बचा सकेंगे।
(लेखक राष्ट्रीय सहकारी निर्यात लिमिटेड (एनसीईएल )के मैनेजिंग डायरेक्टर और गुरूग्राम स्थित ओलम एग्री इंडिया प्रा. लि. के पूर्व सीनियर वाइस प्रेसिडेंट (कपास एवं खाद्य तेल) हैं। यह लेख उन्होंने एनसीईएल में एमडी का पदभार ग्रहण करने के पहले लिखा था )