अमेरिका के साथ ट्रेड समझौते में लचीला रुख ठीक नहीं, कृषि को वार्ता से बाहर रखने की जरूरत

अमेरिकी राष्ट्रपति और वहां के कामर्स सेक्रेटरी ने काफी हद तक अग्रेसिव रुख दिखाया और कई बार अपने बयानों में ट्रंप कह चुके हैं कि भारत सबसे अधिक सीमा शुल्क लगाने वाले देशों में शामिल है। दूसरी तरफ भारत का रुख लगातार नरम बना हुआ है और यह हम विदेश मंत्री एस. जयशंकर और वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल के बयानों में देख रहे हैं।

अमेरिका के साथ ट्रेड समझौते में लचीला रुख ठीक नहीं, कृषि को वार्ता से बाहर रखने की जरूरत

भारत और अमेरिका के बीच ट्रेड एग्रीमेंट को लेकर बातचीत के ताजा दौर का आज आखिरी दिन है। सरकार ने इस बात के संकेत दिये हैं कि अगले कुछ माह में यह समझौता हो सकता है। जिस तरह से अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप लगातार रेसिप्रोकल टैरिफ की बात कर दबाव बना रहे हैं उससे लगता है कि भारत के नेगोशिएटर काफी हद तक दबाव में हैं और उसका संकेत बोरबॉन व्हिस्की पर सीमा शुल्क को 150 फीसदी से घटाकर 100 फीसदी करने का फैसला कर जो संकेत दिया गया उसमें मिलता है। यही नहीं अमेरिकी टेक कंपनियों गूगल और मेटा के लिए विज्ञापनों पर शुल्क दर को भी कम कर दिया गया है। लेकिन यहां बड़ा सवाल कृषि बाजार पर फंसा हुआ है। हालांकि पिछले अधिकांश फ्री ट्रेड एग्रीमेंट्स में भारत ने कृषि को बाहर रखा और उस पर कोई बात नहीं की। क्या इस बार अमेरिका के साथ ट्रेड एग्रीमेंट में यह संभव नहीं है?

अमेरिकी राष्ट्रपति और वहां के कामर्स सेक्रेटरी ने काफी हद तक अग्रेसिव रुख दिखाया और कई बार अपने बयानों में ट्रंप कह चुके हैं कि भारत सबसे अधिक सीमा शुल्क लगाने वाले देशों में शामिल है। दूसरी तरफ भारत का रुख लगातार नरम बना हुआ है और यह हम विदेश मंत्री एस. जयशंकर और वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल के बयानों में देख रहे हैं। जयशंकर अमेरिकी एलएनजी और क्रूड ऑयल के आयात को भारत के लिए एक विश्वसनीय आपूर्तिकर्ता के रूप में देख रहे हैं और वाणिज्य मंत्री उद्योग को सलाह दे रहे हैं कि वह चीन के अलावा दूसरे आपूर्तिकर्ता देशों के बारे में भी विचार करें। यानी अमेरिकी उत्पादों का आयात करें। साथ ही भारत का ऑटो उद्योग और इलेक्ट्रानिक्स उद्योग सकते में है क्योंकि अमेरिका के टैरिफ बढ़ाने की स्थिति में उसे मुश्किल होगी और अमेरिकी उत्पादों पर शुल्क कम होने पर भी भारतीय बाजार में घरेलू उद्योग को मुश्किल होगी।

असल में इंटरनेशनल ट्रेड एक्सपर्ट्स का मानना है कि भारत का लचीला रुख ठीक नहीं है। जिस तरह से अमेरिकी राष्ट्रपति ने सत्ता संभालते ही मेक्सिको और कनाडा के खिलाफ टैरिफ लगाने की घोषणा की तो दोनों देशों से उसी तरह का जवाब मिलने पर उन्होंने जहां बढ़े हुए टैरिफ को लागू करने का समय आगे बढ़ा दिया वहीं बीच का रास्ता अपनाने का भी रुख अपनाया। इसी तरह चीन ने भी साफ कर दिया है कि अगर अमेरिका उसके उत्पादों पर टैरिफ बढ़ाता है तो वह भी उसी तरह का कदम उठायेगा और उसने कई कृषि उत्पादों के आयात पर 10 फीसदी व 15 फीसदी का शुल्क भी कर दिया है।

अब सवाल उठता है कि भारत क्यों नहीं चीन जैसा रुख अपना सकता है। चीन विदेशी निवेश और घरेलू बाजार दोनों मामलों में अपनी शर्तों पर समझौता करता है। लेकिन जहां हम विदेशी निवेश के लिए रेड कार्पेट बिछाने के लिए लालायित रहते हैं वहीं भारत के विशाल बाजार को अपने पक्ष में मजबूती से नहीं रख पाते हैं।

जहां मैन्यूफैक्चरिंग में चुनौती है वहीं भारत का कृषि बाजार अमेरिका चाहता है। वहां के कॉमर्स सेक्रेटरी कह चुके हैं कि भारत को अपना एग्रीकल्चर मार्केट खोलना चाहिए। यहां वह सोयाबीन, मक्का, कपास और यहां तक कि गेहूं खपाने के लिए भी मार्केट ढूंढ रहा है। इसके साथ ही अमेरिका क्रूड आयल को मार्केट कीमत पर भारत को निर्यात करने की शर्त मानने के लिए कह रहा है, वहीं वह एथेनॉल के लिए भी भारत को एक बड़े मार्केट के रूप में देख रहा है। भारत में पेट्रोल में एथेनॉल ब्लैंडिंग प्रोग्राम (ईबीपी) चल रहा है। सरकार ने 2025 में इसे 20 फीसदी (ई20) पर ले जाने का लक्ष्य रखा है। 

परिवहन मंत्री नितिन गड़करी चाहते हैं कि भारत में ई100 वाहन भी चलें यानी पूरी तरह से एथेनॉल से चलने वाले वाहन भी देश में लांच किये जाएं। लेकिन जिस उद्देश्य से ईबीपी शुरू किया गया था उसे कुछ धक्का लगा है क्योंकि इसके मूल में देश में खपत से अधिक चीनी उत्पादन की स्थिति में उसका उपयोग एथेनॉल उत्पादन के लिए करना ही मुख्य मकसद था। अधिक उत्पादन की स्थिति में चीनी के दाम गिरने से चीनी उद्योग और किसान दोनों को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ता रहा है। लेकिन दो साल से चीनी उत्पादन में कमी आई है और चालू साल में चीनी उत्पादन पिछले साल के मुकाबले करीब 60 लाख टन कम रहेगा। ऐसे में सीजन के मध्य में ही अधिकांश चीनी मिलों ने गन्ने के रस से सीधे एथेनॉल बनाने और बी हैवी मोलेसेज का उपयोग एथेनाल बनाने में बंद कर दिया था। यही वजह है कि ऑयल मार्केटिंग कंपनियों के नये टेंडर में गन्ने के सीरप और बी-हैवी मोलेसेज से बनने वाले एथेनॉल को शामिल ही नहीं किया गया है। इस टेंडर में ग्रेन आधारित एथेनॉल और सी-हैवी मोलेसेज से बनने वाले एथेनॉल को ही शामिल किया गया है। इस तरह की परिस्थिति में उद्योग के लोग अमेरिका से एथेनॉल आयात के लिए भी रास्ता बनता देख रहे हैं।

मुख्य फसल उत्पादों के अलावा अमेरिका डेयरी, पोल्ट्री और ड्राई फ्रूट्स, वाशिंगटन एप्पल और चेरी व पीयर्स के लिए भी भारत को एक बेहतर निर्यात बाजार के रूप में देख रहा है। अगर सरकार भारतीय कृषि बाजार को अमेरिका के साथ ट्रेड एग्रीमेंट में शामिल करती है, तो उसका भारतीय किसानों को खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। हालांकि अभी ट्रेड एग्रीमेंट में हो रही वार्ता का खुलासा नहीं हुआ है लेकिन यह भी जरूरी है कि इस समझौते में कृषि उत्पादों पर टैरिफ से जुड़ा कोई भी कदम उठाने के पहले सरकार सभी स्टेकहोल्डर्स से बात करे क्योंकि भारतीय कृषि को सस्ते आयात से संरक्षण जरूरी है।

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