किसान आंदोलन का आर्थिक और राजनीतिक असर
इस आंदोलन ने जाटों और मुसलमानों को एक मंच पर ला दिया है जो 2013 के दंगों के बाद पहली बार हो रहा है। हालांकि, 2017 में कैराना लोक सभा सीट के उपचुनाव में यह गठजोड़ बना था, लेकिन वह अस्थायी ही रहा। लेकिन अब स्थिति बदल रही है।
- भैंसवाल, शामली से
पांच फरवरी को जब शामली जिले के भैंसवाल गांव में मैने एक किसान पंचायत में जुट रही अप्रत्याशित भीड़ देखी तो उसने उत्तर भारत के ग्रामीण हिस्सों में चल रही आर्थिक और राजनीतिक गतिविधियों से बन रही तस्वीर काफी साफ कर दी है। अविभाजित मुजफ्फरनगर जिले के सबसे संपन्न और खेती में अग्रणी इस गांव को लेकर हमेशा एक शांत और अपने आप में व्यस्त गांव के रूप में ही मैने देखा। लेकिन जिस तरह से यहां करीब बीस हजार लोगों की भीड़ किसान पंचायत में जुटी उसने साफ कर दिया कि यहां आर्थिक प्राथमिकताओं और उसके राजनीतिक असर का ऐसा माहौल तैयार हो रहा है जिसका असर आने वाले दिनों में देखने को मिलेगा। इसके करीब एक माह पहले मैंने यहां इस तरह की हलचल किसान आंदोलन और तीन केंद्रीय कृषि कानूनों को लेकर नहीं देखी थी। जनवरी के तीसरे सप्ताह में जब मैं जब भारतीय किसान यूनियन के मुख्यालय सिसौली गया, तब भी मुझे इस मुद्दे पर इतना मुखर विरोध और आक्रोश नहीं दिखा। बात केवल इस एक गांव की नहीं है यह स्थिति पूरे पश्चिती उत्तर प्रदेश. रुहेलखंड और तराई क्षेत्र में बन रही है और इसका असर अगले साल होने वाले उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों में देखने को मिल सकता है। जिसमें भारतीय जनता पार्टी को नुकसान उठाना पड़ सकता है। यह बात मैं केवल एक गांव के लोगों के रुख को देखकर नहीं कह रहा हूं बल्कि तीसरे महीने में प्रवेश कर चुके किसान आंदोलन के दौरान किसानों की प्रतिक्रिया के आकलन के आधार पर कह रहा हूं।
असल में जून, 2020 में केंद्र सरकार द्वारा कृषि मार्केटिंग सुधारों के लिए लाये गये तीन कानूनों को लेकर किसानों के आंदोलन की शुरूआत हो गई थी। सात माह से ज्यादा का वक्त बीत चुका है और यह आंदोलन कमजोर होने की बजाय मजबूत होता जा रहा है। शुरुआत में सबसे मुखर विरोध पंजाब में था। उसके बाद सितंबर में इस विरोध में हरियाणा शामिल हो गया और नवंबर में पंजाब और हरियाणा में कानूनो के विरोध का स्तर लगभग बराबरी पर आ गया। उसी के साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इसका असर तेज होने लगा तो पहले वह केवल सितंबर के सांकेतिक भारत बंद तक ही सीमित था। नवंबर और दिसंबर में उत्तर प्रदेश के किसानों का इतना समर्थन आंदोलन को दिल्ली में नहीं मिल रहा था जितना हरियाणा और पंजाब में मिल रहा था। लेकिन जनवरी होते होते उत्तर प्रदेश के किसानों का विरोध भी मुखर होने लगा। इसकी एक बड़ी वजह राज्य में नवंबर, 2020 में चालू हो चुकी चीनी मिलों द्वारा नये पेराई सीजन 2020-21 के लिए गन्ने के राज्य परामर्श मूल्य (एसएपी) का राज्य सरकार द्वारा निर्धारण नहीं होना और पिछले साल के गन्ना मूल्य के बकाया भुगतान में देरी रही है। सात फरवरी तक भी राज्य सरकार ने एसएपी की घोषणा नहीं की है और किसानों को पिछले साल के 325 रुपये प्रति क्विटंल के आधार पर गन्ने का भुगतान चीनी मिलों ने शुरू कर दिया है। लेकिन कई चीनी मिलें ऐसी हैं जिन पर पिछले सीजन का अभी तक बकाया है और यह चीनी मिलें राज्य के गन्ना विकास मंत्री सुरेश राणा की विधान सभा सीट थानाभवन में भी हैं। इस समय चालू साल का बकाया मिलाकर गन्ना किसानों का बकाया करीब 14 हजार करोड़ रुपये पर पहुंच गया है।
असल में यह मुद्दा इसलिए अहम है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद कई चुनावी रैलियों में कहा था कि वह किसानों को गन्ना मूल्य भुगतान 14 दिन में कराने की व्यवस्था करेंगे। लेकिन हकीकत इससे काफी अलग है। कानूनी रूप से किसानों को गन्ना आपूर्ति के 14 दिन के भीतर गन्ना मूल्य का भुगतान मिलना चाहिए और उसके बाद बकाया पर ब्याज का प्रावधान है। लेकिन कानून के इन प्रावधानों पर अमल नहीं हो रहा है। केंद्र सरकार में कद्दावर नेता संजीव बालियान भी मुजफ्फनगर से सांसद हैं। हालांकि उनका पद राज्य मंत्री का है लेकिन उनकी गिनती पश्चिमी उत्तर प्रदेश के भाजपा के सबसे प्रभावी नेताओं में होती है।
दिलचस्प बात यह कि राज्य सरकार की इस बेरुखी के चलते जनवरी के मध्य तक गेहूं की बुवाई होने के बाद पश्चिमी उत्रर प्रदेश किसानों की दिल्ली के धरनों में संख्या में तेजी से इजाफा हुआ। उसके बाद 26 जनवरी की घटनाओं के बाद कमजोर पड़े आंदोलन में 28 जनवरी को भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत की भावनात्मक अपील ने आंदोलन का रुख ही बदल दिया और अब दिल्ली उत्तर प्रदेश की सीमा पर गाजीपुर में चल रहा आंदोलन अपने सबसे मजबूत दौर में है। इसकी वजह पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आंदोलन का लगातार मजबूत होना रहा है।
वहीं इस आंदोलन का राजनीतिक स्वरूप भी अब साफ होने लगा है। भले ही हरियाणा और पंजाब में राजनीतिक दल खुलकर किसान आंदोलन में भागीदारी नहीं कर रहे हैं लेकिन उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोक दल ने इस आंदोलन को अपने राजनीतिक अभियान का हिस्सा बना लिया है। भारतीय किसान यूनियन की मुजफ्फरनगर की 29 जनवरी की खाप और किसान पंचायत के बाद राष्ट्रीय लोक दल ने किसान पंचायत बुलाने का सिलसिला शुरू कर दिया है। मथुरा के बाद शामली जिले के भैंसवाल की किसान पंचायत राष्ट्रीय लोक दल की दूसरी किसान पंचायत थी। इसे किसान पंचायत के नाम से बुलाया गया और इसमें राजनीतिक दलों के साथ भारतीय किसान यूनियन और खाप नेताओं ने शिकरत की। साथ ही खाप के जरिये इसमें सर्वसमाज के साथ मुसलमानों को भी जोड़ने की कोशिश की गई और वह उनकी इस पंचायत में उपस्थिति से साफ भी हो गया है। राष्ट्रीय लोक दल की किसान पंचायतों का यह सिलसिला उसके प्रभाव वाले पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जारी है।
यही वह परिस्थिति है तो भाजपा को परेशान कर रही है। इस आंदोलन ने जाटों और मुसलमानों को एक मंच पर ला दिया है जो 2013 के दंगों के बाद पहली बार हो रहा है। हालांकि 2017 में कैराना लोक सभा सीट के उपचुनाव में यह गठजोड़ बना था लेकिन वह अस्थायी ही रहा। लेकिन अब स्थिति बदल रही है। मुजफ्फरनगर और बड़ौत की पंचायतों के बाद भैंसवाल की इस पंचायत में भारतीय किसान यूनियन में चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के साथी रहे गुलाम मोहम्मद जौला की उपस्थिति इस तथ्य को पुख्ता करती है। उन्होंने इस पंचायत में बाकायदा मुसलमानों के हाथ उठवा कर उनकी उपस्थिति की तसदीक की। यानी भाजपा के खिलाफ बन रहे माहौल में यह समीकरण मजबूत हो रहा है। इस बात को भाजपा के नेता भी मानते हैं। इस लेखक के साथ बातचीत केंद्र सरकार के मंत्रियों और अन्य पदाधिकारियों ने स्वीकार किया कि अगर किसान आंदोलन इसी तरह जारी रहता है तो इसका हमारे जनाधार पर सीधा असर पड़ेगा और आगामी विधान सभा चुनाव पर इसका प्रतिकूल प्रभाव होगा।
गौरतलब है कि पिछले करीब डेढ़ दशक में पश्चिमी उत्तर प्रदेश और खासकर जाटों में भाजपा का असर तेजी से बढ़ा है और उसके चलते 2014 से उसके पक्ष में आ रहे निर्णायक चुनावी नतीजों में इसका फायदा मिला है। लेकिन अब किसान आंदोलन के चलते राष्ट्रीय लोक दल और समाजवादी पार्टी को फायदा नजर आ रहा है और यह दल इस फायदे के लिए तेजी से काम भी कर रहे हैं। रुरल वॉयस से बातचीत में राष्ट्रीय लोक दल के उपाध्यक्ष जयंत चौधरी कहते हैं कि हम राजनीतिक दल हैं और आंदोलन को मजबूत करने लिए हम पंचायत कर रहे हैं। हम किसानों की पार्टी हैं और यह हमारा जिम्मा बनता है कि हम राजनीतिक प्रक्रिया के जरिये आंदोलन को मजबूत करें।
असल में सहारनपुर से लेकर शाहजहांपुर तक की करीब 100 विधान सभी सीटें इस आंदोलन के प्रभाव क्षेत्र में आ रही हैं। जहां अधिकांश जिलों में जाट इस आंदोलन से पूरी तरह जुड़ चुका है वहीं तराई के जिलों में सिख किसान इस आंदोलन का मजबूत हिस्सा है। इसलिए इसका राजनीतिक असर बड़ा होता जा रहा है। आंदोलन को जमीनी स्तर पर मजबूत करने का जो काम उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोक दल कर रहा है वह काम हरियाणा में खाप पंचायतें कर रही हैं। वहां पर लगातार भारतीय किसान यूनियन और दूसरे किसान संगठनों के नेताओं को बुलाकर बड़ी पंचायतें की जा रही हैं जिसके चलते आंदोलन का केंद्र भले ही दिल्ली के बार्डर के धरने हों लेकिन यहां से दूर पूरे हरियाणा में आंदोलन लोगों के बीच बहुत तेजी से फैल रहा है। साथ जिस तरह से 6 फरवरी का चक्का जाम हुआ उससे यह साबित हो रहा है कि राजस्थान में भी यह आंदोलन जड़ें जमा रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस आंदोलन ने राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश और हरियाणा व उत्तराखंड के जाटों को एक साथ जोड़ दिया है। हालांकि इस आंदोलन में अन्य किसान जातियां भी जुड़ रही हैं लेकिन यह भी सच ही कि इस आंदोलन का ज्यादा असर जाट किसानों में है और ज्यादातर नेतृत्व भी उनके हाथ में ही है।
आरएसएस के किसान संगठन भारतीय किसान संघ के एक पदाधिकारी ने रुरल वॉयस से बातचीत में कहा कि हम इस नुकसान को समझ रहे हैं और अपनी बात अपने केंद्रीय पदाधिकारियों तक पहुंचा रहे हैं। इसी तरह भाजपा के जाट सांसद इस मुद्दे पर काफी चिंतित हैं और वह इस मसले पर कई बैठकें कर चुके हैं ताकि केंद्रीय नेतृत्व को आंदोलन के चलते बन रहे राजनीतिक हालात के बारे में जमीनी हकीकत से अवगत करा सकें।
अगर किसान आंदोलन लंबा चलता है तो इसके राजनीतिक और आर्थिक निहितार्थ काफी बड़े हो सकते हैं। जहां तक किसानों का कानूनों को लेकर विरोध है तो अब वह उससे साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के कार्यान्वयन के चलते हो रहे नुकसान का आकलन भी करने लगे हैं। इससे वह सरकार के किसानों के हित में उठाये गये कदमों के फायदे गिनाने की कोशिशों पर भी सवाल खड़े करने लगे हैं। इसके चलते कृषि क्षेत्र और किसानों का मुद्दा सरकार के लिए आने वाले दिनों में कई तरह की चुनौती लेकर आ रहा है जो नये कानूनों के खिलाफ चल रहे आंदोलन के बाद भी सरकार को परेशान करता रह सकता है।