कृषि अनुसंधान के स्लो मैजिक की गति बढ़ाने की जरूरत
प्रधान मंत्री ने वर्ष 2024-25 तक भारत को पांच ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने की कल्पना की है। कृषि क्षेत्र को इसमें कम से कम एक ट्रिलियन अमरीकी डॉलर का योगदान करने का लक्ष्य रखना चाहिए। कृषि अनुसंधान में निवेश में बढ़ोतरी से पैदा होने वाली प्रौद्योगिकियों में इसके लिए जरूरी गति प्रदान करने की क्षमता है। इसलिए कृषि अनुसंधान के "स्लो मैजिक" कैरेक्टर की गति तेज करना समय की जरूरत है
इस साल रबी फसलों के रिकॉर्ड उत्पादन अनुमान से भारतीय कृषि क्षेत्र ने महामारी के कारण आए आर्थिक संकट के बीच देश को एक नए भरोसे का संचार किया है। यह बात तो तय है कि सरकार द्वारा कृषि मंत्रालय और किसान कल्याण के लिए बजट में आवंटित किये गये वित्तीय संसाधानों से कहीं अधिक राशि के प्रावधान की जरूरत है। आजकल के दिनों में जहां देश के नागरिकों को बेहतर प्रतिरोधी शारीरिक क्षमता के लिए ज्यादा पौष्टिक और संतुलित आहार का महत्व बहुत बढ़ गया है ऐसे में कृषि क्षेत्र के लिए संसाधनों में वृद्धि ज्यादा अहम हो गई है। पिछले साल के 1,42,763 करोड रुपये के बजटीय आवंटन के मुकाबले मुकाबले चालू वित्त वर्ष (2021-22) का आवंटन 1,31,531 करोड़ रुपये किया गया है। जो पिछले साल से कम है। वहीं पिछले साल के संशोधित बजट अनुमान में यह राशि 1,24,820 करोड़ रुपये रही। दरअसल, कृषि अनुसंधान और शिक्षा, आधुनिक कृषि विकास का आधार है। अनुसंधान के लिए मात्र 8,514 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं, जो पिछले वित्त वर्ष (2020-21) के आवंटन 8,363 करोड़ रुपये की तुलना में एक मामूली वृद्धि है। इसका लगभग 85 फीसदी तो स्टेबलिशमेंट पर ही खर्च किया जाता है जिसके चलते अनुसंधान के लिए बहुत कम राशि बचती है।
असल में "स्लो मैजिक" के रूप में कृषि शोध और अनुसंधान को परिभाषित किया जाता है। इस पर किया गया सार्वजनिक निवेश 10 से 15 गुना ज्यादा रिटर्न देता है। जो इनपुट सब्सिडी, बुनियादी ढांचे,सड़कों और शिक्षा जैसे विकास कार्यों किये गये खर्च के मुकाबले बहुत अधिक है। विज्ञान आधारित हरित क्रांति की मदद से 1960 के दशक के मध्य से न केवल भारत खाद्य उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर बन सका बल्कि इससे भारत का आत्मविश्वास और हौसला भी बढ़ा । इतना ही नहीं इससे राष्ट्र का गौरव भी बढ़ा । कृषि में वैज्ञानिक नवाचारों ने पशुपालन, मत्स्य पालन और बागवानी के क्षेत्रों में व्हाइट, ब्ल्यू और रेनबो क्रांतियां आयी । इन सराहनीय उपलब्धियों के बावजूद भारत में कृषि अनुसंधान पर सार्वजनिक निवेश पिछले दो दशकों से अधिक समय से जरूरत के अनुरूप नहीं रहा है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) की समीक्षओं में लगातार अनुसंधान पर खर्च बढ़ाने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया है। कृषि शोध और अनुसंधान के लिए अधिक संसाधनों को लेकर गजेंद्रगड़कर समिति (1972), जी.वी.के. राव समिति (1988), आर.ए. माशेलकर समिति (2001), एमएस स्वामीनाथन समिति (2006) और टी. रामासामी समिति (2017) की रिपोर्ट में कृषि अनुसंधान और विकास पर कृषि जीडीपी का कम से कम एक फीसदी आवंटन करने की सिफारिश की है। लेकिन इन समितियों की सिफारिशों के उलट भारत में कृषि जीडीपी का केवल 0.39 फीसदी का आवंटन स्तर बहुत कम है। जो अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान जैसे देशों द्वारा इस मद के लिए दी जाने वाली की तुलना में मात्र दसवां हिस्सा है और चीन की तुलना में लगभग आधा है। वहीं ब्राजील, मैक्सिको और मलयेशिया जैसी भारत के समकक्ष माने जाने वाले देश क्रमश लगभग 1.80 फीसदी, 1.05 फीसदी और 0.99% फीसदी राशि इस मद पर खर्च करते हैं।जब हमारी राष्ट्रीय सीमाओं को सुरक्षित रखने के महत्व को अच्छी तरह से समझा जा रहा है, तब भूख और गरीबी के खिलाफ देश की इस लड़ाई में सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) की जो नींव है, उसमें किसानों के योगदान के महत्व को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान का नारा हमें याद दिलाता रहता है कि अगर देश को वैश्विक प्रतिस्पर्धा मे निरंतर बने रहना है और आत्मनिर्भर भारत के लक्ष्य को हासिल करना है तो कृषि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के लिए संसाधन बढ़ाने की ज़रूरत है। किसान कल्याण को सही मायनों में आकार देने के लिए 'फार्मर फर्स्ट' के दृष्टिकोण वाली उपयुक्त नीतियों, प्रोत्साहनों, संस्थानों और अप-स्केलिंग नवाचारों द्वारा समर्थित रणनीति को तैयार किया जाना चाहिए। सरकार को सौंपी गई परोदा समिति की रिपोर्ट (2019) में इस बात पर जोर दिया गया है। यह रिपोर्ट किसानों की आय दोगुनी करने की बहुआयामिता वाली सोच कृषि को बीसवीं सदी की उत्पादन केंद्रित खेती से 21वीं सदी की समग्र कृषि-खाद्य प्रणाली में बदलने की जरूरत को पर जोर देती है। अनुसंधान को लेकर बदलती सोच की मांग है कि ज्ञान और प्रौद्योगिकी के बीच संतुलन स्थापित करने के लिए नवाचार पर अधिक जोर देना बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि तभी 'प्लो टू प्लेट ' पर आधारित मूल्यवर्धित मजबूत श्रृंखला के लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है।आज भारतीय कृषि के सामने उभरती चुनौतियों से निपटना काफी मुश्किल है। इसलिए हमें एक समावेशी एवरग्रीन रिवोल्यूशन (सदाबहार क्रांति) की आवश्यकता है। हरित क्रांति की सफलता वाले देश के उत्तर-पश्चिमी इलाकों में इसके फैलने के कुछ समय बाद ही पता चल गया था कि हरित क्रांति की प्रौद्योगिकियां प्रभाव में चयनात्मक रही हैं। वर्षा सिंचित क्षेत्र, संसाधनों के आभाव में गरीब किसानों और भूमिहीन मजदूरों को इसमें अनदेखा कर दिया गया था। अनुसंधान प्राथमिकताओं में नई दिशा की जरूरत और उसमें जिसमें वर्षा आधारित क्षेत्रों को पर ध्यान केंद्रित करना जरूरी है इसके लिए ग्रीनिंग द ग्रे एरियाज यानी वर्षा आधारित कृषि क्षेत्रों को अधिक उत्पादन के लिए तैयार करने की जरूरत है। आज संसाधनों के आभाव वाले गरीब किसानों की आय दोगुना करने के लिए ऐसी प्रौद्योगिकी की आवश्यकता है जो लागत में किफायती हों और खेती में को लचीला बनाये यानी उसको नुकसान न होने दे। वाटरशेड मैनेजमेंट, कृषि वानिकी, सिल्वी-चारागाह प्रणाली, माध्यमिक और विशेषता आधारित कृषि का महत्व बढ़ गया है। बागवानी, दलहन, तिलहन, मसाले, औषधीय पौधे, चारा फसलें, डेयरी, पशुपालन, अंतर्देशीय जलीय कृषि और अन्य गतिविधियां जैसे मधुमक्खी पालन, मशरूम की खेती, वर्मी- कंपोस्ट, मुर्गी पालन, सुअर पालन को शोधकर्ताओं के बीच प्राथमिकता मिल रही है।
हरित क्रांति के कारण दूसरी पीढ़ी (सेकेंड जेनरेशन) की समस्याएं पैदा हुई हैं। इनमें मृदा क्षरण, मिट्टी की घटती उर्वरता, घटते भूजल स्तर, इनपुट के मुकाबले उत्पादकता में गिरावट और जैव विविधता को नुकसान के चलते पर्यावरण पर प्रतिकूल असर हुआ है। इनके कारण होने वाले पर्यावरणीय दुष्प्रभावों का मुकाबला करने के लिए संरक्षित कृषि, जैविक खेती, सूक्ष्म सिंचाई और पोषक तत्वों की उपयोग दक्षता के माध्यम से सतत खेती की ओर जाने के लिए मूलभूत बदलाव की आवश्यकता है। 'प्रति बूंद अधिक फसल' किसानों के लिए अब नया मंत्र बन गया है। संसाधनों के संरक्षण और क्लाइमेट स्मार्ट प्रौद्योगिकी जैसे जीरो टिलेज, ड्रिप सिंचाई,सूखे, बाढ़, गर्मी, ठंड और कीट-कीटों के लिए प्रतिरोधी फसल किस्में जैसी प्रौद्योगिकियां वैज्ञानिकों का ध्यान अधिक आकर्षित कर रही हैं। एकीकृत कीट और पोषक तत्व प्रबंधन, जैविक पदार्थों का पुनर्चक्रण, जैव उर्वरकों और जैव कीटनाशकों के उपयोग पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है। हाइब्रिड टेक्नोलॉजी, बोयो टेक्नोलॉजी (जीएम फसलें और जीनोम एडिटिंग का उपयोग),संरक्षित खेती, पर्सीजन फार्मिंग, बॉयो इनर्जी, क्रॉप बायोफोर्टिफिकेशन,रिमोट सेंसिंग, सूचना और संचार प्रौद्योगिकी पर केंद्रित इनोवेशन को बढ़ावा देने की जरूरत है। ड्रोन,सेंसर, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और इंटरनेट ऑफ थिंग्स में कृषि और खाद्य उत्पादन,पोस्ट-प्रोडक्शन प्रबंधन में दक्षता और कृषि प्रसंस्करण को बेहतर करने की क्षमता है।
कृषि अनुसंधान पर सार्वजनिक व्यय का पहिया पिछले कई दशकों से रुक सा गया है और बरसों से कृषि जीडीपी के 0.3 फीसदी से 0.4 फीसदी के बीच झूल रहा है। इस घिसे-पिटे पारंपरिक दृष्टिकोण से उत्पादन में लंबी छलांग और हमारी उत्पादन प्रणालियों की दक्षता बेहतर होने की संभावना नहीं है। व्यावहारिक नीतियों और माहौल की कमी के चलते कृषि में निजी का निवेश भी अपेक्षा से काफी कम रहा है। नीतियों को कारगर बनाने की कमी, नवाचारों का विस्तार, सार्वजनिक-निजी भागीदारी और आईपीआर सुरक्षा जैसे मुद्दे इसकी वजह रहे हैं। वैसे भी कृषि शोध और अनुसंधान में निजी निवेश एक अचछा पूरक तो हो सकता है लेकिन सार्वजनिक निवेश का विकल्प नहीं हो सकता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि नये कृषि कानून किसानों को बाजारों से बेहतर ढंग से जोड़ने और निजी निवेश बढ़ाने का अवसर देते हैं। लेकिन इनकी व्यापक स्वीकार्यता के लिए हितधारकों के साथ संवाद और समझ बढ़ाने वाले कदमों की बहुत जरूरत है ।
प्रधान मंत्री ने वर्ष 2024-25 तक भारत को पांच ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने की कल्पना की है। कृषि क्षेत्र को इसमें कम से कम एक ट्रिलियन अमरीकी डॉलर का योगदान करने का लक्ष्य रखना चाहिए। कृषि अनुसंधान में निवेश में बढ़ोतरी से पैदा होने वाली प्रौद्योगिकियों में इसके लिए जरूरी गति प्रदान करने की क्षमता है। इसलिए कृषि अनुसंधान के "स्लो मैजिक" कैरेक्टर की गति तेज करना समय की जरूरत है।
( डॉ. आर.एस. परोदा, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के पूर्व डायरेक्टर जनरल और डिपार्टमेंट ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च एंड एजुकेशन (डेअर) के पूर्व सचिव हैं।
रीता शर्मा ,भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय की पूर्व सचिव हैं और उत्तर प्रदेश सरकार के कृषि विभाग की पूर्व प्रमुख सचिव हैं )