मक्का की सेमी-ड्वार्फ किस्म से फसलों के नए युग की शुरुआत, जलवायु परिवर्तन से भी बेअसर
शार्ट अथवा सेमी-ड्वार्फ मक्का की किस्म अमेरिका तथा अन्य देशों में नई मक्का क्रांति लाएगी। इससे उन देशों को फायदा होगा जो जलवायु परिवर्तन की वजह से खाद्य, चारा, ईंधन और फाइबर असुरक्षा का सामना कर रहे हैं। यहां बड़ा सवाल विकासशील देशों की सरकारों के लिए है कि वे इस तरह की नई टेक्नोलॉजी को किस हद तक अपनाती हैं। मक्का की इस किस्म को बायर क्रॉपसाइंस ने विकसित किया है। मक्के का पारंपरिक पौधा 9 से 12 फुट का होता है, लेकिन ट्रांस जीन से तैयार इस किस्म के पौधे की ऊंचाई 7 फुट से कम रहती है। यानी पौधे के बायोमास में किसी तरह के बदलाव के बिना उसकी ऊंचाई 33% कम रहती है
एक अहम रेगुलेटरी कदम के तहत अमेरिका के बायोटेक रेगुलेटर, वहां के कृषि मंत्रालय (यूएसडीए) ने 6 जून 2023 को एक नए तरह के मक्का की किस्म की कॉमर्शियल खेती को मंजूरी दी। इस किस्म में ऐसे ट्रांस जीन का इस्तेमाल किया गया है, जिससे मक्का के पौधे में दो गांठों के बीच की लंबाई कम हो जाती है। इस तरह मक्का के पूरे पौधे की ऊंचाई कम हो जाती है। यह किस्म जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम में हो रहे अत्यधिक उतार-चढ़ाव को झेलने में सक्षम है।
मक्का की इस किस्म को बेयर क्रॉपसाइंस ने विकसित किया है। मक्का का पारंपरिक पौधा 9 से 12 फुट का होता है, लेकिन ट्रांस जीन से तैयार इस किस्म के पौधे की ऊंचाई 7 फुट से कम रहती है। यानी पौधे के बायोमास में किसी तरह के बदलाव के बिना उसकी ऊंचाई 33% कम रहती है। यह शॉर्ट अथवा सेमी-ड्वार्फ मक्का जेनेटिक बदलाव की टेक्नोलॉजी का सफल उदाहरण है। इस टेक्नोलॉजी में GA20ox3 और GA20ox5 जीन को आंशिक या पूरी तरह से खत्म कर दिया जाता है। ये जीन GA20 ऑक्सीडेस तैयार करते हैं। यह एंजाइम पौधों की ऊंचाई तय करने वाले हार्मोन जिबरेलिन तैयार करने के लिए जिम्मेदार होता है।
जीन ट्रांसफर और जीनोम एडिटेड टेक्नोलॉजी का यह तरीका पारंपरिक ब्रीडिंग तकनीक से अलग है, जो प्राकृतिक रूप से होने वाली ड्वार्फ (बौना), सेमी-ड्वार्फ या कम ऊंचाई वाली किस्मों से अच्छी किस्म के जर्मप्लाज्म तैयार करता है। 1960 के दशक के मध्य में हरित क्रांति का आगमन जीए के अनुकूल, प्राकृतिक रूप से बढ़ने वाले म्युटेंट पर आधारित था, जिसने दुनिया को बचाया। भारत को इसने अकाल से बचाने के साथ यहां खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की।
ताइवान के चावल की डी-जियो-वू-जेन किस्म के एसडी-1 जीन और गेहूं की नोरिन-10 किस्म के आरएचटी (Rht) जीन का प्रयोग गेहूं और चावल की सेमी ड्वार्फ तथा अधिक उपज वाली वैरायटी तैयार करने में किया गया। उसके बाद कृषि विज्ञान और अनुसंधान के क्षेत्र में तेजी आई। अगले पांच दशक तक विभिन्न कृषि जलवायु क्षेत्रों में स्थित विकासशील देशों में गेहूं और चावल की आधुनिक किस्में तैयार करने में सेमी-ड्वार्फ जीन आरएचटी और एसडी-1 का व्यापक इस्तेमाल किया गया। किसानों ने भी गेहूं और चावल की सेमी-ड्वार्फ और अधिक पैदावार वाली किस्मों को तेजी से अपनाया। इसके साथ सिंचाई, उर्वरक, मशीनीकरण जैसे कृषि आधारित उद्योग काफी तेजी से आगे बढ़े। गेहूं और चावल की इन किस्मों के नतीजे बीते चार-पांच दशकों में काफी अच्छे देखने को मिले।
इसकी निरंतरता को बनाए रखते हुए नई शॉर्ट अथवा सेमी-ड्वार्फ किस्म कृषि में तकनीकी विकास की नई लहर कही जा सकती है। इससे मक्का तथा अन्य उन फसलों में जीन ट्रांसफर और जीनोम एडिटिंग की संभावनाओं के द्वार खुलेंगे जो हरित क्रांति के दौरान अछूते रह गए थे। टेबल-1 में इसके बारे में बताया गया है।
टेबल 1- शॉर्ट, सेमी-ड्वार्फ और अधिक पैदावार वाली फसलों का विकास
(स्रोतः साउथ एशिया बायोटेक्नोलॉजी सेंटर का विश्लेषण, 2023)
मक्का की शार्ट अथवा सेमी-ड्वार्फ किस्म का विकास खासतौर से अमेरिका में जलवायु परिवर्तन की समस्या झेल रहे किसानों की चुनौतियों के समाधान के तौर पर किया गया है। वहां डेरेको (derecho) नाम का तूफान बार-बार आता है और उससे बारिश भी होती है। अमेरिका तथा दुनिया के अन्य प्रमुख मक्का उत्पादक इलाकों में इस तूफान का आना सामान्य बात हो गई है। अमेरिका में डेरेको से मक्का की फसलों को काफी नुकसान होता है। अचानक चलने वाली तेज हवा और बारिश के चलते इसके पौधे टूट कर बिखर जाते हैं। इससे मक्का की पैदावार को काफी नुकसान होता है। एक अनुमान के अनुसार अमेरिका के मक्का किसानों को इसकी वजह से 2% से लेकर 75% तक पैदावार का नुकसान उठाना पड़ता है।
मक्का की नई शॉर्ट और अथवा सेमी-ड्वार्फ किस्म इस नुकसान को कम करते हुए पर्यावरण को फायदा पहुंचा सकती है। इस किस्म का घनत्व अधिक हो सकता है। यानी कम जगह में ज्यादा पौधे उगाए जा सकते हैं, फसल को ज्यादा समय तक खेतों में रखा जा सकता है, मशीनों का अधिक प्रयोग किया जा सकता है और इन सबके साथ प्रिसीजन फार्मिंग की जा सकती है जो पर्यावरण की सस्टेनेबिलिटी को सुधार सकता है।
ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो अमेरिका कृषि क्षेत्र में तकनीकी विकास लाने में अग्रणी भूमिका निभाता रहा है। यहां 1930 के दशक में हाइब्रिडाइजेशन शुरू हुआ, 1970 के दशक में सिंगल क्रॉस हाइब्रिड तथा 1996 में बायोटेक से तैयार किस्मों को अपनाया गया। मक्का उपजाने वाले अन्य देशों की तुलना में यहां काफी पहले यह काम किए गए। इसी का नतीजा है कि अमेरिका में मक्का की पैदावार काफी बढ़ गई। (चित्र 2) यहां 1970 के दशक की शुरुआत में मक्का की पैदावार प्रति हेक्टेयर 3.7 टन (60 बुशल प्रति एकड़ थी) जो 1993 में 6.3 टन प्रति हेक्टेयर (100.7 बुशल प्रति एकड़) तथा 2022 में 11 टन प्रति हेक्टेयर (176.7 बुशल प्रति एकड़) तक पहुंच गई।
यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि 2002 से 2021 के दौरान पैदावार में हर साल औसतन लगभग 50 किलो प्रति एकड़ (1.9 बुशल) की वृद्धि हुई। यह वृद्धि 1975 में सबसे अधिक 71 किलो प्रति एकड़ (2.8 बुशल) पर पहुंच गई थी। 2008 में यह वृद्धि 66 किलो प्रति एकड़ (2.6 बुशल) थी।
यह 1970 के दशक के मध्य में सिंगल क्रॉस हाइब्रिड टेक्नोलॉजी को अपनाने तथा 2000 के दशक की शुरुआत में बायोटेक को अपनाने का परिणाम है। यूनिवर्सिटी आफ इलिनॉय ने एक रिपोर्ट में बताया है कि अमेरिका में मक्का की पैदावार में बढ़ोतरी लंबे समय तक चलने वाले ब्रीडिंग प्रयासों का परिणाम है। बायो टेक्नोलॉजी के आगमन से इस प्रक्रिया में और तेजी आई। इसी का नतीजा है कि बायोटेक किस्में तेजी से आईं तथा उन्हें बड़े पैमाने पर अपनाया भी गया।
अमेरिका में 1886 से 2022 तक मक्का में टेक्नोलॉजी को अपनाने तथा पैदावार का ट्रेंड
(स्रोतः नेशनल यूएस कॉर्न यील्ड्स फॉर प्रोडक्टिविटी एंड डाउन साइड यील्ड रिस्क, यूनिवर्सिटी ऑफ इलिनॉय, अरबाना चैंपेन, 12 जुलाई 2022)
टेक्नोलॉजी को व्यापक रूप से अपनाने का ही परिणाम है कि अमेरिका के किसानों ने 2023 में 38.77 करोड़ टन मक्का उपजाया। यह दुनिया के कुल 122.2 करोड़ टन उत्पादन का लगभग एक तिहाई है। इसके बाद चीन (23%), ब्राज़ील (11%), यूरोपियन यूनियन (5%) और अर्जेंटीना (4%) हैं। भारत ने 3.43 करोड़ टन की पैदावार के साथ सिर्फ 3% का योगदान किया। मक्का निर्यात में अमेरिका के अलावा ब्राज़ील और अर्जेंटीना का बड़ा दखल है। इन्होंने चीन, यूरोपीय यूनियन, मेक्सिको, जापान, दक्षिण कोरिया, वियतनाम, ईरान और मिस्र को लगभग 19.7 करोड़ टन मक्का का निर्यात किया। इसके अलावा अमेरिका में कुल मक्का उत्पादन का लगभग 30% का प्रोसेस 56.85 अरब लीटर एथेनॉल ईंधन बनाने में किया जाता है।
अमेरिका मक्का से एथेनॉल बनाने वाले सबसे प्रमुख देशों में एक है। वहां बायोफ्यूल मिश्रण के लिए पूरे साल में 79.3 अरब लीटर एथेनॉल की जरूरत है। इस जरूरत का 72% स्थानीय स्तर पर पूरा होता है। अमेरिका में बिकने वाली गैसोलीन के अधिकांश में 10% एथेनॉल मिला होता है, जिसकी प्रोसेसिंग अमेरिका का मक्का का कटोरा कहे जाने वाले मिडवेस्ट इलाके में की जाती है।
आने वाले समय में शार्ट अथवा सेमी-ड्वार्फ मक्का की किस्म की अन्य डिरेगुलेटेड बायोटेक किस्मों के साथ पारंपरिक ब्रीडिंग की जा सकती है। इससे जमीन के ऊपर तथा जमीन के भीतर पाए जाने वाले कीटों से पौधों को सुरक्षा मिल सकती है। इनमें यूरोपीय कॉर्न बोरर, साउथवेस्टर्न कॉर्न बोरर, फॉल आर्मीवर्म, ब्लैक कटवर्म, वेस्टर्न बीन कटवर्म, कॉर्न ईयरवर्म और कॉर्न रूटवर्म शामिल हैं। इसी तरीके से खरपतवार तथा सूखे जैसी स्थिति को झेलने वाली किस्में भी तैयार की जा सकती हैं। 2020 में दुनिया में कीट तथा खरपतवार रोधी मक्का की बायोटेक किस्मों की खेती 609 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में की गई थी। यह उस वर्ष मक्का के कुल वैश्विक रकबे का 31% था।
सिंगल तथा स्टैक्ड ट्रेट की जिन किस्मों को खेती के लिए मंजूरी दी गई उनमें कीट-रोधी, खरपतवार-रोधी, सूखा-रोधी, मॉडिफाइड प्रोडक्ट क्वालिटी और पॉलिनेशन कंट्रोल सिस्टम वाली किस्में शामिल हैं। हालांकि अमेरिका, ब्राज़ील, अर्जेंटीना, कनाडा, पराग्वे, दक्षिण अफ्रीका, यूरुग्वे, फिलिपींस, स्पेन, कोलंबिया, वियतनाम, होंडुरास, चिली और पुर्तगाल, इन 14 देशों में आईआर/एचटी किस्म के स्टैक्ड ट्रेट की खेती अधिक की जाती है। 2022 तक 35 देशों में फूड, फीड तथा प्रोसेसिंग (एफएफपी) के लिए बायोटेक मक्का की सबसे अधिक 152 किस्मों को मंजूरी दी गई है।
दूसरे शब्दों में कहा जाए तो शार्ट अथवा सेमी-ड्वार्फ मक्का की अन्य बायोटेक ट्रेट के साथ स्टैकिंग करके बड़े इलाके में खेती की जा सकती है। इसमें स्टैक्ड ट्रेट, कीट तथा खरपतवार रोधी किस्में शामिल हैं। इससे मक्का उत्पादन में बड़ा बदलाव आ सकता है। छोटे किसान कम इलाके में अधिक पौधे लगा सकेंगे और प्रति यूनिट जमीन में उन्हें अधिक पैदावार भी मिलेगी। जलवायु परिवर्तन के कारण बार-बार तूफान तथा बारिश से पौधों को होने वाला नुकसान भी कम होगा। सिंगल क्रॉस हाइब्रिड तथा बायोटेक ट्रेट की तरह उम्मीद है कि शार्ट अथवा सेमी-ड्वार्फ मक्का की किस्म अमेरिका तथा अन्य देशों में नई मक्का क्रांति लाएगी। इससे उन देशों को फायदा होगा जो जलवायु परिवर्तन की वजह से खाद्य, चारा, ईंधन और फाइबर असुरक्षा का सामना कर रहे हैं।
यहां बड़ा सवाल विकासशील देशों की सरकारों के लिए है कि वे इस तरह की नई टेक्नोलॉजी को किस हद तक अपनाती हैं। डेवलपर्स के लिए भी जरूरी होगा कि वे मक्के की उपज तथा खपत वाले प्रमुख देशों में शार्ट अथवा सेमी-ड्वार्फ किस्मों की रेगुलेटरी मंजूरी लें और उस टेक्नोलॉजी को छोटे किसानों तक उपलब्ध कराएं।
(लेखक जोधपुर स्थित साउथ एशिया बायोटेक्नोलॉजी सेंटर के संस्थापक और डायरेक्टर हैं)