रूरल वॉयस कॉन्क्लेवः सहकारिता को आगे बढ़ाने के लिए उसे कॉमर्शियल बनाने की जरूरत
नीति बनाने से पहले यह सोचना है कि क्या उस पर अमल संभव है। सहकारिता को आगे चलना है तो उसका कॉमर्शियल होना जरूरी है। एग्रीगेशन का फायदा आज ईकॉमर्स कंपनियां ले रही हैं। अगर लोग खुद ऐसा करें तो उन्हें इसका लाभ मिलेगा। रूरल वॉयस एग्रीकल्चर कॉन्क्लेव के चौथे सत्र 'किसानों के लिए संस्थाओं के विकास में सहायक नीतिगत वातावरण' विषय चर्चा में वक्ताओं ने ये बातें कही।
नीति बनाने से पहले यह सोचना है कि क्या उस पर अमल संभव है। सहकारिता को आगे चलना है तो उसका कॉमर्शियल होना जरूरी है। एग्रीगेशन का फायदा आज ईकॉमर्स कंपनियां ले रही हैं। अगर लोग खुद ऐसा करें तो उन्हें इसका लाभ मिलेगा। रूरल वॉयस एग्रीकल्चर कॉन्क्लेव के चौथे सत्र 'किसानों के लिए संस्थाओं के विकास में सहायक नीतिगत वातावरण' विषय चर्चा में वक्ताओं ने ये बातें कही। उन्होंने कहा कि संस्था को ठीक से चलाना और आवाज उठाना भी किसानों की जिम्मेदारी है। वक्ताओं ने किसानों की समृद्धि के चार सूत्र दिए - मुनाफे की खेती, पर्यावरण का ख्याल, खेती में महिलाओं को शामिल करना और शिक्षा तथा खेती का समन्वय।
सहकार भारती के चीफ पैट्रन डॉ. डीएन ठाकुर ने कहा कि कृषि से जुड़ी नीतियों को लेकर कहा कि क्या किसानों के लिए इतनी नीतियों की जरूरत है? उन्होंने यह भी कहा कि जिस तरह से तीन किसान कानून लाए गए, उसकी क्या जरूरत थी? उन्होंने कहा, न्यूनतम समर्थन मूल्य में न्यूनतम शब्द ही अपने आप में गारंटी है। इसलिए हमने एमएसपी की गारंटी का सुझाव दिया लेकिन नहीं हुआ। नीति बनाने से पहले यह सोचना है कि क्या उस पर अमल संभव है।
इंडियन डेयरी एसोसिएशन के प्रेसिडेंट डॉ. आरएस सोढ़ी ने कोऑपरेटिव को सामाजिक के साथ कॉमर्शियल संस्थान बनाने की जरूरत बताई। उन्होंने कहा, सहकारिता को आगे चलना है तो उसका कॉमर्शियल होना जरूरी है। इंडिया विकसित हो रहा है, लेकिन जहां 68 प्रतिशत भारतीय रहते हैं उस भारत को विकसित होने की जरूरत है। सबका विकास सहकारिता से ही संभव है।
उन्होंने कहा कि एग्रीगेशन का फायदा आज ईकॉमर्स कंपनियां ले रही हैं। अगर लोग खुद ऐसा करें तो उन्हें इसका लाभ मिलेगा। खपत पर शहर में औसत खर्च 6500 रुपये और गांव में 3900 रुपये है। शहर में करीब 40 प्रतिशत खर्च खाने पर होता है। किसान को देखना है कि वह वही उपजाए जिसकी खपत वास्तव में हो रही है। शहर में 85 रुपये की थाली में सबसे ज्यादा 19 प्रतिशत खर्च फल-सब्जियों पर होता है, उसके बाद दूध, पोल्ट्री और मीट, उसके बाद अनाज का स्थान आता है।
उन्होंने कहा कि भारत में सबसे ज्यादा दूध सब्सिडी कर्नाटक में, करीब 2000 करोड़ रुपये की दी जाती है। डॉ. वर्गीज कुरियन का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि इस तरह की सब्सिडी बैसाखी हैं, ये कोऑपरेटिव को अपने पैरों पर खड़ा नहीं होने देंगी। लेकिन इसके साथ यह भी जरूरी है कि जो लाभ इंडस्ट्री को मिलता है, वह कोऑपरेटिव को भी मिले।
पूर्व कृषि एवं खाद्य सचिव टी. नंद कुमार ने कहा कि वैल्यू चेन में सबसे ज्यादा लाभ उसे होता है जो उपभोक्ता के करीब होता है। यह अमूल की सफलता का भी कारण है। ऐसा क्यों हुआ कि कोऑपरेटिव शुरू में सफल, बाद में विफल होने लगे। किसानों को शेयरधारक की तरह मालिकाना समझना होगा। संस्था को ठीक से चलाना, आवाज उठाना भी किसानों की जिम्मेदारी है। कुछ जिम्मेदारी किसानों को भी लेनी पड़ेगी। पूर्व सचिव ने स्वीकार किया कि हर नीति में सरकार का झुकाव उपभोक्ता की तरफ होता है। उन्होंने यह भी बताया कि ज्यादातर एफपीओ की स्थिति ठीक नहीं, वे जल्दी ही बंद हो सकते हैं।
दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. मुनेश ने किसानों की समृद्धि के चार सूत्र दिए - मुनाफे की खेती, पर्यावरण का ख्याल, खेती में महिलाओं को शामिल करना और शिक्षा तथा खेती का समन्वय। इन चारों को नीति में लाने पर काफी बदलाव आ जाएंगे।
उन्होंने कहा कि महंगाई के अनुसार टीए-डीए बढ़ता है, लेकिन एमएसपी नहीं बढ़ता। इसके तरीके तलाशने होंगे। पर्यावरण का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि 1964 में मिट्टी में नौ में से सिर्फ एक पोषक तत्व की कमी थी, आज इसका उल्टा है। पोषण के लिए मिट्टी की गुणवत्ता जरूरी है। आखिरी जनगणना में महिलाएं 49 प्रतिशत थीं, यानी आधी आबादी। लेकिन खेती में महिलाएं आधी नहीं हैं। महिलाओं की भागीदारी बढ़ाना जरूरी है। अभी महिलाएं श्रमिक के रूप में हैं, फैसले लेने की हैसियत में नहीं। उन्होंने कहा कि पढ़े लिखे लोग खेती की ओर नहीं जाते क्योंकि वहां मुनाफा नहीं होता। उन्होंने हर जिले में कृषि विश्वविद्यालय खोलने का सुझाव दिया।
इस सत्र को मॉडरेट करने वाले नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया के एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर बिराज पटनायक ने कहा कि आज एक तरह का किसान विरोधी माहौल पैदा किया जा रहा है। पराली के लिए लोग किसानों को दोषी ठहराते हैं। इससे कैसे निपटा जाए। इसके जवाब में डीएन ठाकुर ने कहा कि किसान के द्वारा संस्था का निर्माण जरूरी है। उनकी मौलिक संस्था कोऑपरेटिव है। सोढ़ी ने कहा कि कृषि उपज के दाम बढ़ने को खाद्य महंगाई कहा जाता है। हमें सोच से बाहर निकलना होगा। नंद कुमार ने कहा, यह देखना जरूरी है कि नैरेटिव को कौन नियंत्रित करता है। हमें उन बातों पर ध्यान देना होगा जो बड़ी आबादी को प्रभावित करती है। हमें काउंटर तर्क देने की जरूरत है। डॉ. मुनेश की राय में काउंटर व्यू किसानों से और ग्राहकों दोनों से आएगा।