किसानों के लिए संस्थाओं के नव निर्माण की जरूरत

किसानों के लिए संस्था निर्माण के महत्व को समझते हुए हमने रूरल वर्ल्ड का हालिया अंक इस विषय को समर्पित किया है। इस विषय को समझने वाले और इन संस्थाओं को खड़ा करने व उनका नेतृत्व करने वाले एक्सपर्ट्स और अधिकारियों की राय उनके लेखों के जरिये विस्तार से पाठकों के सामने रख रहे हैं।

किसानों के लिए संस्थाओं के नव निर्माण की जरूरत

भारतीय कृषि और किसानों का बेहतर भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि उनके लिए किस तरह के संस्थान और संस्थाएं बन रही हैं, या मौजूदा संस्थानों को कैसे समय के साथ प्रासंगिक बनाया जा रहा है। देश में हरित क्रांति और खाद्यान्न आत्मनिर्भरता हासिल करने में किसानों और संस्थानों- संस्थाओं की भूमिका अहम रही है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर), कृषि विश्वविद्यालयों और कृषि शोध तंत्र ने बड़ी भूमिका निभाई है। कामयाबी केवल फसलों की किस्मों विकसित करने से नहीं मिली, बल्कि इस उपज के लिए जरूरी उर्वरकों के उत्पादन संयंत्र स्थापित किए गए। उपज का न्यूनतम दाम तय करने के लिए एग्रीकल्चर प्राइस कमीशन बना जो बाद में कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) के रूप में जाना गया और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था लागू हुई। किसानों को इस कीमत का भुगतान करने के लिए उपज की खरीद व्यवस्था के तहत भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) अस्तित्व में आया। केंद्रीय भंडारण निगम और राज्य भंडारण निगम बने और लोगों तक सही कीमत पर खाद्यान्न पहुंचाने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) अस्तित्व में आई। कामयाबी की इस कहानी में सरकारी संस्थानों के साथ सहकारिता की भी बड़ी भूमिका रही। 

निजी क्षेत्र ने 1980 के दशक के अंत और 1990 के दशक की शुरुआत में इसमें प्रवेश किया। वे सब्जियों, मक्का और कपास (बीटी समेत) की हाइब्रिड, केला में टिशू कल्चर, अधिक यील्ड वाला ब्रॉयलर चिकन और लेयर पोल्ट्री ब्रीड, तथा ड्रिप सिंचाई और लेजर लेवलिंग जैसी नई टेक्नोलॉजी लेकर आए। 

अब जब हम खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर होने के साथ दुनिया के बड़े कृषि निर्यातक हैं, तो केंद्रीय मुद्दा किसानों की आय बन गया है। साथ ही 1991 के आर्थिक उदारीकरण के साथ कृषि पर निर्भर लोगों को मैन्युफैक्चरिंग और सर्विस सेक्टर में शिफ्ट कर किसानों की स्थिति सुधारने की जो उम्मीद थी, उस पर भी ताजा आंकड़े पानी फेरते नजर आते हैं। ऐसे में नीति का केंद्र कृषि और किसान की आर्थिक आत्मनिर्भरता पर आकर टिक गया है। इसके साथ ही यह भी तय है कि इस दिशा की ओर बढ़ने के लिए किसानों को व्यक्तिगत स्तर पर आर्थिक लाभ देने की नीति बहुत कारगर नहीं है। इसके लिए संस्थागत स्वरूप ही कारगर होगा। ऐसी संस्थाएं चाहिए जिनमें किसानों की मालिकाना भागीदारी हो या फिर निजी क्षेत्र के संस्थानों के साथ उनका कारोबारी हितों में भागीदारी का रिश्ता हो। जो संस्थाएं पहले से मौजूद हैं उनमें आईसीएआर और नेशनल एग्रीकल्चरल रिसर्च सिस्टम (नार्स) के तहत आने वाले तमाम संस्थानों के उद्देश्यों और जिम्मेदारी को पुनर्परिभाषित करने और उनके पुनर्गठन की जरूरत है। वहीं एफसीआई जैसे संस्थानों के कामकाज और जिम्मेदारियों की भी समीक्षा की जरूरत है। यही काम राज्य सरकारों के कृषि और किसानों के लिए बने संस्थानों के लिए भी किया जाना जरूरी है। 

यहां एक अहम रास्ता किसानों की संस्थाओं से होकर जाता है। इसके लिए कई स्वरूप हैं लेकिन सबसे संगठित, प्रभावशाली व पहुंच वाला स्वरूप सहकारिता है। सरकार ने नया सहकारिता मंत्रालय गठित किया है। सहकारिता के पूरे ढांचे को अधिक कार्यकुशल और जवाबदेह व पारदर्शी बनाने के लिए नियम-कानूनों में बदलाव किए गए हैं। लेकिन यहां चुनौतियां भी कम नहीं हैं। सरकारी और राजनीतिक हस्तक्षेप से लेकर पारदर्शिता और लोकतांत्रिक तरीके से प्रबंधन का चैलेंज तथा पेशेवरों द्वारा इनका संचालन जैसे तमाम मुद्दे हैं जिनको हल करने की जरूरत है। 

दूसरा स्वरूप करीब एक दशक पहले आया और उसे कृषि उत्पादक संगठन (एफपीओ) या कृषक उत्पादक कंपनी (एफपीसी) का दर्जा दिया गया। सहकारिता के विकल्प के रूप में सरकार द्वारा प्रोत्साहित इन संस्थाओं की भी अब समीक्षा का समय आ गया है। सरकार ने राष्ट्रीय स्तर पर तीन नई सहकारी संस्थाएं- नेशनल कोआपरेटिव फॉर एक्सपोर्ट लिमिटेड, राष्ट्रीय ऑर्गैनिक कोआपरेटिव लिमिटेड और राष्ट्रीय बीज सहकारी समिति लिमिटेड स्थापित की हैं। उनका उद्देश्य किसानों के उत्पादों के लिए उनको बेहतर कीमत दिलाना और बाजार तैयार करना है। कई निजी संस्थाएं भी बड़े पैमाने पर किसानों के साथ काम कर रही हैं। इसके सबसे कामयाब क्षेत्र डेयरी और चीनी उद्योग इस मॉडल को दूसरे कृषि उत्पादन में भी लागू करने की जरूरत है। 

किसानों के लिए संस्था निर्माण की अहमियत को समझते हुए हमने रूरल वर्ल्ड पत्रिका का यह अंक इस विषय को समर्पित किया है। इसके लिए इस विषय को समझने वाले और इन संस्थाओं को खड़ा करने व उनका नेतृत्व करने वाले एक्सपर्ट्स और अधिकारियों की राय उनके लेखों के जरिये विस्तार से पाठकों के सामने रख रहे हैं। साथ ही, रूरल वॉयस के 23 दिसंबर को पांचवें साल में प्रवेश करने के गौरवशाली मौके पर हमने सालाना आयोजित होने वाले रूरल वॉयस एग्रीकल्चर कॉन्क्लेव एंड अवार्ड्स 2024 का विषय भी यही तय किया है। "बिल्डिंग इंस्टिट्यूशन्स फॉर फार्मर्स" के मुख्य विषय पर कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था व सहकारिता से जुड़े देश के जाने-माने एक्सपर्ट्स और अधिकारी मंथन करेंगे। रूरल वर्ल्ड का यह अंक हमेशा की तरह किसानों की समृद्धि की दिशा में हमारा प्रयास है।

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