इंडिया के लिए भारत में सुधार
सुधार अगर सरलीकरण के बजाय सरकारी नियंत्रण बढ़ाने का ही दूसरा नाम है, तो कृषि क्षेत्र का भला इन सुधारों से कैसे होगा
सरकार कई मोर्चों पर कुछ सुधार लागू करने के लिए मशक्कत कर रही है। जाहिर है, आर्थिक मंदी की चिंता में दुबली होती जा रही सरकार के सुधारों की शुरुआत किसानों के मोर्चे से हो सकती है। वैसे भी सरकार ने किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए हाइपावर्ड ‘कमेटी ऑफ चीफ मिनिस्टर्स फॉर ट्रांसफॉर्मेशन फॉर इंडियन एग्रीकल्चर’ बना रखी है। इस नौ सदस्यीय समिति के संयोजक महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस हैं, जो कृषि क्षेत्र की सेहत सुधारने और किसानों की आमदनी में इजाफा करने के लिए जरूरी सुधारों की सिफारिश करेगी। समिति को दो महीने के भीतर अपनी सिफारिशें देनी हैं। दो महीने कुछ दिनों में पूरे होने वाले हैं और समिति की दो बैठकें ही हो पाई हैं। हालांकि सरकार के एक अतिरिक्त सचिव ओहदे के व्यक्ति की समिति को किसानों की आमदनी दो गुना करने के लिए सिफारिश देने में बरसों लग गए थे। राजधानी दिल्ली समेत कई स्थानों पर बड़ी बैठकें और कॉन्फ्रेंस की गईं। कृषि मंत्रालय के विभागों से लेकर शोध संस्थानों तक सभी इस कवायद में शामिल रहे थे और उसके बाद कई वॉल्यूम की रिपोर्ट तैयार हुई थी। लेकिन किसानों की आमदनी बढ़ाने का कोई फार्मूला फिट नहीं बैठा, ऊपर से वह घट गई है।
जहां तक सुधारों की बात, तो इस मोर्चे पर मामला काफी गंभीर है। इसलिए एक समय सबसे विवादास्पद और सख्त माने जाने वाले आवश्यक वस्तु अधिनियम को रुखसत किया जा सकता है। कृषि मंत्रालय के अधिकारियों का मानना है कि यह कानून कृषि उत्पादों के विपणन के सरलीकरण में बाधक है। देश में अब खाने-पीने की वस्तुओं की कोई ऐसी किल्लत भी नहीं है कि इस तरह के कानून की जरूरत पड़े। अब तो कृषि उपजों की मार्केटिंग की समस्या बड़ी है, क्योंकि किसानों को उनकी फसलों के वाजिब दाम मिलना काफी मुश्किल है। वैसे, आवश्यक वस्तु अधिनियम में सुधार का सिलसिला करीब 22 साल पहले एच.डी. देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल के प्रधानमंत्रित्व काल की संयुक्त मोर्चा सरकार में शुरू हुआ था और बड़े पैमाने पर कई वस्तुओं को इस कानून से बाहर किया गया था। लेकिन बढ़ती महंगाई के चलते कृषि उत्पादों के मामले में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के शासन काल में एनडीए की पहली सरकार ने इसे सख्त बनाने के साथ ही इसके प्रावधानों को हटाने और लागू करने के अधिकार राज्यों से केंद्र सरकार के पास ले लिए थे। इसके लिए कानून में संशोधन किया गया था। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार इसे हटाएगी तो जाहिर है कि इससे ‘ईज ऑफ डुइंग बिजनेस’ तो होगा ही, शायद किसानों को भी कुछ फायदा हो।
एक सुधार फार्मर्स प्राेड्यूसर्स ऑर्गनाजेशन (एफपीओ) के मामले में भी हो सकता है। यहां नीति आयोग भी सक्रिय है। वह देश में काम कर रहे एफपीओ पर एक स्टडी करा रहा है। कृषि मंत्रालय के एक अधिकारी के मुताबिक यह स्टडी अमेरिकी कंपनी माइक्रोसाॅफ्ट के मालिक बिल गेट्स की संस्था बिल ऐंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन कर रही है। अब मंत्रालय में एक मंथन यह भी चल रहा है कि किसानों को सामूहिक रूप से कृषि उपज और विपणन करने के लिए सहकारी या एफपीओ में से क्या मॉडल रखना है, यह किसानों पर छोड़ देना चाहिए और दोनों को समान रूप से प्रोत्साहित करना चाहिए। लेकिन चमत्कृत करने वाला मॉडल तो एफपीओ ही दिख रहा है, इसीलिए बजट में भी दस हजार एफपीओ बनाने की बात की गई है। अब देखते हैं, कि इसके मौजूदा प्रावधानों में भी कुछ सुधार होता है या नहीं।
नीति आयोग खेती-किसानी से जुड़े सुधारों में काफी दिलचस्पी ले रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहली सरकार के आखिरी महीनों में नीति आयोग में को-ऑपरेटिव सेक्टर के सुधारों के लिए एक अहम बैठक भी हुई थी, लेकिन इसमें इस क्षेत्र में काम कर रही संस्थाओं के प्रतिनिधियों के मुकाबले अधिकारी ज्यादा थे। बैठक में बड़े सुधारों की सिफारिशें आईं, जिनमें से अधिकांश इस सेक्टर पर अधिकारियों की ताकत बढ़ाने वाली थीं। अब सुधार अगर सरलीकरण के बजाय सरकारी नियंत्रण बढ़ाने का ही दूसरा नाम है, तो इस क्षेत्र का भला इन सुधारों से कैसे होगा? हालांकि, यह मामला अभी पेंडिंग है लेकिन सहकारिता क्षेत्र में इसने कुछ हलचल जरूर मचा दी। अब कृषि मंत्रालय इन सुधारों पर कितना आगे बढ़ता है, यह तो आने वाले दिनों में ही पता लगेगा। तब तक मुख्यमंत्रियों की समिति की सिफारिशों का इंतजार किया जा सकता है।