फसलों की जलवायु रोधी क्षमता और सस्टेनेबिलिटी के लिए जीएम टेक्नोलॉजी अहम
खाद्य और कृषि के लिए विभिन्न फसलों की नई किस्में विकसित करने में लगे वैज्ञानिक पारंपरिक ब्रीडिंग, मॉलेक्यूलर ब्रीडिंग और जेनेटिक इंजीनियरिंग सहित विभिन्न तरीकों का उपयोग करते हैं। नई फसल किस्मों को अधिक उपज, बीमारियों और कीटों के प्रतिरोध और सूखा, अधिक तापमान, लवणता, बाढ़ जैसे पर्यावरणीय प्रभावों के प्रति सहनशीलता जैसे गुणों के साथ विकसित किया जाता है। वैज्ञानिकों के ठोस प्रयासों के परिणामस्वरूप हम फसल उत्पादकता 1970 में 0.7 टन प्रति हेक्टेयर से 2022 में 2.4 टन प्रति हेक्टेयर तक सुधारने में सक्षम हुए हैं।
आईसीएआर के संस्थानों और कृषि विश्वविद्यालयों समेत राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान प्रणाली के कृषि वैज्ञानिकों का एक प्रमुख लक्ष्य राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा को बचाना है। पर्याप्त खाद्य उत्पादन सुनिश्चित करने के मकसद से उपयुक्त टेक्नोलॉजी, खेती के तरीकों और फसलों की उन्नत किस्में विकसित करने के लिए विज्ञान आधारित हर संभव दृष्टिकोण का उपयोग किया जाता है। इसका उद्देश्य बढ़ती आबादी की खाद्य जरूरतों को पूरा करना है। खाद्य और कृषि के लिए विभिन्न फसलों की नई किस्में विकसित करने में लगे वैज्ञानिक पारंपरिक ब्रीडिंग, मॉलेक्यूलर ब्रीडिंग और जेनेटिक इंजीनियरिंग सहित विभिन्न तरीकों का उपयोग करते हैं। नई फसल किस्मों को अधिक उपज, बीमारियों और कीटों के प्रतिरोध और सूखा, अधिक तापमान, लवणता, बाढ़ जैसे पर्यावरणीय प्रभावों के प्रति सहनशीलता जैसे गुणों के साथ विकसित किया जाता है। वैज्ञानिकों के ठोस प्रयासों के परिणामस्वरूप हम फसल उत्पादकता 1970 में 0.7 टन प्रति हेक्टेयर से 2022 में 2.4 टन प्रति हेक्टेयर तक सुधारने में सक्षम हुए हैं। इससे देश में खाद्य उत्पादन में वृद्धि हुई है। यह 1970 के केवल 10 करोड़ टन से 2022-23 में लगभग 33 करोड़ टन हो गया है, वह भी खेती का शुद्ध क्षेत्रफल बिना बढ़ाए। इस अवधि के दौरान वांछित विशेषताओं के साथ अनाज, दलहन और तिलहन फसलों की 5000 से अधिक किस्में विकसित की गईं।
हालांकि इसके बावजूद भारत में गेहूं, चावल, मक्का, चना, मूंगफली और सरसों जैसी प्रमुख फसलों की उत्पादकता दुनिया के उच्चतम स्तरों की तुलना में बहुत कम है। इसके अलावा, आज कृषि कई चुनौतियों का सामना कर रही है, जिनमें मुख्य रूप से तेजी से बदलती जलवायु, कृषि योग्य भूमि और पानी जैसे घटते प्राकृतिक संसाधन, मिट्टी का क्षरण और उभरते कीट और रोगाणु शामिल हैं।
बढ़ती आबादी की खाद्य जरूरतों को पूरा करने के लिए फसलों की बेहतर किस्में विकसित करने में पारंपरिक फसल ब्रीडिंग महत्वपूर्ण है। इसे जैव प्रौद्योगिकी (बायो टेक्नोलॉजी) और जेनेटिक (आनुवंशिक) इंजीनियरिंग में होने वाली प्रगति के साथ जोड़कर हम ब्रीडिंग की गति तेज कर सकते हैं। इस तरह चुनौतीपूर्ण जलवायु परिस्थितियों के अनुकूल अधिक उपज वाली किस्में विकसित कर सकते हैं। इसलिए यह जरूरी है कि हम जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न चुनौतियों के बावजूद खाद्य उत्पादन में वृद्धि के लिए नई और संकर किस्में विकसित करने में आनुवंशिक इंजीनियरिंग और जीनोम एडिटिंग जैसी आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी के साथ पारंपरिक ब्रीडिंग तरीकों का पूरक के तौर पर इस्तेमाल करें।
1990 के दशक की शुरुआत में प्लांट जेनेटिक इंजीनियरिंग के आगमन के साथ भारत ने कई विशेषताओं के साथ जीएम फसलों को विकसित करना शुरू किया। वे मुख्य रूप से कीटों और बीमारियों के प्रतिरोध, पोषण गुणवत्ता और सूखे, लवणता आदि के प्रति सहनशीलता पर केंद्रित थे। 2002 में बीटी जीन वाले और अमेरिकन बॉलवर्म के खिलाफ प्रतिरोधी क्षमता वाले जीएम कपास को जेनेटिक इंजीनियरिंग अनुमोदन समिति की मंजूरी मिली और उसे वाणिज्यिक खेती के लिए जारी किया गया। बीटी कपास संकर किस्म को किसानों ने तेजी से अपनाया, जिससे कपास उत्पादन 2002-03 के लगभग 130 लाख गांठ से बढ़कर 2014-15 में 350 लाख गांठ के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया। इस तरह भारत आयातक से वैश्विक स्तर पर कपास का प्रमुख निर्यातक बन गया।
अक्टूबर 2022 में दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर जेनेटिक मैनिपुलेशन इन क्रॉप प्लांट्स द्वारा विकसित जीएम सरसों हाइब्रिड डीएमएच 11 को पर्यावरणीय रिलीज के लिए जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति (जीसीएसी) से सशर्त मंजूरी मिली। इस किस्म की उत्पादकता लगभग 25% अधिक है। साथ ही इसके जीएम पेरेंटल लाइन को भी मंजूरी मिली। इसका उद्देश्य देश में खाद्य तेल उत्पादन को बढ़ावा देने और समय के साथ आयात पर निर्भरता कम करने के लिए अधिक उपज वाली संकर किस्में विकसित करना था। (भारत ने वर्ष 2020-21 के दौरान 1.17 लाख करोड़ रुपये, 2021-22 में 1.57 लाख करोड़ रुपये और 2022-23 में 1.38 लाख करोड़ रुपये का खाद्य तेल आयात किया)।
हालांकि, नवंबर 2022 में अदालत में एक रिट याचिका दायर की गई और जीईएसी की तरफ से जरूरी आगे के प्रयोग नहीं किए जा सके। जीएम सरसों पेरेंटल लाइन के साथ-साथ जीएम संकर डीएमएच 11 का वांछित फील्ड परीक्षण भी पूरा नहीं किया जा सका।
इस बीच, 23 जुलाई 2024 को माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में एक खंडित निर्णय दिया है। इसमें एक ओर जीएम सरसों संकर किस्म डीएमएच 11 के फील्ड परीक्षण को पर्याप्त सुरक्षा उपायों और सावधानियों के साथ जारी रखने की अनुमति दी गई है, वहीं दूसरी ओर जीईएसी द्वारा ट्रांसजेनिक सरसों हाइब्रिड डीएमएच-11 के पर्यावरणीय रिलीज को मंजूरी देने के निर्णय को रद्द कर दिया गया है। न्यायालय ने भारत सरकार को अगले चार महीने के भीतर राज्य सरकारों सहित सभी हितधारकों के साथ राष्ट्रीय स्तर पर परामर्श करने के बाद जीएम फसलों पर एक राष्ट्रीय नीति तैयार करने का निर्देश दिया है।
यह राष्ट्रीय हित में है कि हम सभी आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी का उपयोग करें ताकि खेती की भूमि का विस्तार किए बिना बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए अधिक कुशलता से खाद्य उत्पादन किया जा सके। जीएम फसलें इसका आवश्यक और अभिन्न अंग हैं। जीएम प्रौद्योगिकी का उपयोग न केवल फसल उत्पादकता बढ़ाने में, बल्कि भारतीय कृषि को जलवायु परिवर्तन से निपटने में सक्षम बनाने और पर्यावरणीय स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए भी महत्वपूर्ण है।
वैश्विक स्तर पर देखें तो जीएम फसलों में किसानों को कई तरह के फायदे पहुंचाने की क्षमता है। इसमें कीटों, बीमारियों और खरपतवारों के साथ सूखे, लवणता और उच्च तापमान जैसी चरम मौसमी परिस्थितियों से बेहतर सुरक्षा शामिल हैं। इसके परिणामस्वरूप पैदावार में वृद्धि, कीटनाशकों के उपयोग में कमी और किसानों की आय में वृद्धि होती है। यहां यह बताना महत्वपूर्ण है कि शोधकर्ताओं ने ऐसा जीएम चावल विकसित किया है जो ग्रीनहाउस गैस का कम उत्सर्जन करता है। वैसे भी इस समय 29 देशों में 20 करोड़ हेक्टेयर से अधिक जमीन में जीएम फसलों की खेती हो रही है। इसके अतिरिक्त, 43 देशों ने जीएम फसलों का उपभोग करना स्वीकार किया है।
जहां तक जीएम फसलों से सुरक्षा की बात है, तो इन 72 देशों में विशेषज्ञों ने पिछले 25 वर्षों में लगभग 4400 तरह के जोखिम का आकलन किया है। सभी ने निष्कर्ष निकाला है कि जीएम फसलों और उनकी गैर-जीएम किस्मों के जोखिम में कोई अंतर नहीं है। महत्वपूर्ण बात यह है कि दुनिया के कई प्रमुख वैज्ञानिक संस्थान जैसे अमेरिका के खाद्य एवं औषधि प्रशासन (एफडीए), राष्ट्रीय विज्ञान, इंजीनियरिंग और चिकित्सा अकादमी, अमेरिकन एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ साइंस, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और भारत की राष्ट्रीय कृषि विज्ञान अकादमी (एनएएएस) ने जीएम खाद्य सुरक्षा के मुद्दे का गंभीरता से विश्लेषण किया है। उन्होंने पाया है कि जीएम फसलें जैव सुरक्षा के दृष्टिकोण से सुरक्षित हैं।
जीएम फसलों को अपनाने में देरी के कई परिणाम हो सकते हैं। जैसे कृषि उत्पादकता में कमी, कम उन्नत किस्म की फसलों और पारंपरिक कृषि पद्धतियों पर निर्भरता में वृद्धि। पारंपरिक ब्रीडिंग विधियों से विकसित किस्में जनसंख्या में निरंतर वृद्धि और तेजी से बदलती जलवायु परिस्थितियों के कारण भोजन की बढ़ती मांगों को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं होंगी। साथ ही, किसान रासायनिक कीटनाशकों और उर्वरकों पर अधिक निर्भर रह सकते हैं। इससे न केवल इनपुट लागत बढ़ेगी, बल्कि कीटनाशकों के उपयोग से पर्यावरण और किसानों के स्वास्थ्य को भी नुकसान होगा। जीएम फसलें एक विकल्प प्रदान करती हैं। ये अधिक उपज देने वाली, कीट और रोग प्रतिरोधी, पोषण से भरपूर किस्में और हाइब्रिड विकसित करने के लिए चल रहे ब्रीडिंग प्रयासों में पूरक बन सकती हैं। ये कृषि उत्पादन में लचीलापन लाने के साथ स्थिरता भी बढ़ा सकती हैं।
इसके अलावा, जीएम फसलों (और जीनोम एडिटिंग भी) सहित कृषि जैव प्रौद्योगिकी को अपनाने वाले देश अधिक उत्पादन करके वैश्विक बाजारों में अपनी प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता बढ़ा सकते हैं। हाल ही चीन ने अपनी कृषि क्षमता में सुधार के लिए अधिक उपज वाले जीएम सोयाबीन, मक्का, कपास और पपीते को मंजूरी दी है। जीएम प्रौद्योगिकी को अपनाने में देरी से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की प्रतिस्पर्धा करने की क्षमता कम हो सकती है। ऐसी जीएम फसलें जो रेगुलेटरी पाइपलाइन में एडवांस चरण में हैं, उन्हें समय पर जारी करने से भारतीय किसानों को तत्काल लाभ मिलेगा। अंत में, हमें किसानों और उपभोक्ताओं के फायदे के लिए और कृषि से पर्यावरण को होने वाले नुकसान को कम करने के लिए अधिक उत्पादन करने में सक्षम, आनुवंशिक रूप से बेहतर जीएम फसलों की खेती की अनुमति देनी चाहिए।
(लेखक नेशनल ब्यूरो ऑफ प्लांट जेनेटिक रिसोर्सेज (आईसीएआर) के पूर्व निदेशक और नेशनल अकादमी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज, नई दिल्ली के पूर्व सचिव हैं। वर्तमान में वे मर्डोक विश्वविद्यालय, पर्थ, ऑस्ट्रेलिया में सहायक प्रोफेसर हैं। ईमेल: kcbansal27@gmail.com, kc.bansal@murdoch.edu.au)