बढ़ती मंहगाई के बीच लगातार घाटा सहता किसान
कृषि उपज की कीमतों में बढ़ोतरी नहीं हो रही है। बल्कि इसके विपरीत, कुछ उपवादों को छोड़कर, ज्यादातर कृषि उपज के मूल्य घट रहे हैं। वहीं इस कहानी का दूसरा पहलू यह है कि, भले ही थोक मंडियों में कृषि उपज के मूल्यो में लगातार गिरावट वाली प्रवृत्ति दिख रही हो, लेकिन आपके दरवाजे पर पहुंचाई जाने वाली सब्जियों की टोकरी के लिए आपको बहुत अधिक कीमत देनी पड रही है
अगर आप एक ऐसे व्यवसाय से जुडे हैं, जिसमे लागत खर्च लगातार बढ़ता रहता है, लेकिन आपके उत्पाद की कीमतों मे या तो बहुत ही मामूली उछाल देखने को मिलता है या फिर अधिकतर वह कीमतें घट जाती हैं तो क्या आप उस व्यवसाय में रहना चाहेंगे? ज्यादातर लोगों का जवाब होगा 'नहीं' । लेकिन अगर कहा जाए कि आपके पास कोई विकल्प नहीं है और भले ही आपको यह व्यवसाय पसंद हो या न हो, मजूबरन आपको इसमें साथ रहना ही है। तो ! ऐसा ही एक व्यवसाय है खेती जिसको करने वाला किसान कहलाता है।
आज के वक्त में ऐसे ऐप संचालित आनलाइन स्टोर जिनका व्यवसाय अरबों में चल रहा है, आपको किराने के बिल आपके मेल पर भेज देते हैं। इन बिल पर समानों की कीमतें हर दूसरे दिन बढ़ते ही रहती हैं । बढ़ते हुए मूल्यों के प्रति आपकी नाराजगी के बावजूद यह मूल्य लगातार बढ़ते ही रहते हैं। टेलीविजन पर कॉरपोरेट विश्लेषकों और शेयर बाजार के जानकारों द्वारा बताया जाता है कि इन बढ़ती कीमतों का कारण है, ''आपूर्ति मे आ रही अड़चन''।
मगर इसके पीछे असली कहनी क्या है ? अगर हम आधिकारिक आंकड़ों या किसी अन्य स्रोत से हटकर अप्रैल, 2021 के थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) पर एक नज़र डालें तो तस्वीर कुछ और ही दिखाई देती है । इस साल लॉकडाउन के दौरान उपभोक्ता सब्जियों, अनाज, चावल या गेहूं के आटे जैसे उत्पादों के लिए ऑनलाइन स्टोर पर अधिक भुगतान कर रहे हैं, लेकिन डब्ल्यूपीआई के आंकड़े कुछ और ही दर्शाते हैं। कुछ उत्पादों को छोड़कर, बाकि कृषि उत्पादों के थोक मूल्य अप्रैल माह के दौरान या तो स्थिर रहे हैं या अप्रैल, 2020 की तुलना में गिर गए हैं। इसके विपरीत किसान कच्चे माल और खुद के उपयोग के लिए खरीदने वाले सामानों के लिए अधिक कीमत चुका रहे हैं।
आप इसको इन दिये गये ऑकड़ों के जरिए बड़ी आसानी से समझ सकते हैं कि किसानों के उत्पादो के मूल्यों में कितनी गिरावट आई है। अप्रैल में अनाज की महंगाई दर (-) 3.32 फीसदी, धान की (-) 0.92 फीसदी , गेहूं के लिए (-)3.29 फीसदी, सब्जियों की (-) 9.03 फीसदी, आलू के लिए वर्ष-दर-वर्ष मूल्य, थोक मूल्य सूचकांक के मुताबिक बड़ी गिरावट दिखा रहा है और यह पर मापा जाता है। (- ) 30.44 फीसदी पर था। जबकि प्याज के लिए (-) 19.72 फीसदी । फल और दालें इस प्रवृत्ति के अपवाद थे जिनमें पूर्व में 27.43 फीसदी गिरावट के बाद इनकी कीमतों में 10.74 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है ।
तो इसी प्रकार प्राथमिक खाद्य पदार्थों की कीमतों में तेजी से गिरावट आई है लेकिन थोक मंडियों में 10.49 फीसदी की भारी वृद्धि आई है जो इस बात से बिल्कुल मेल नही खाती है और अगर यह वृद्धि है भी तो इसका लाभ किसानों को बमुश्किल मिलता है। जबकि इसके विपरीत किसान के खेती में लगने वाली लागत के रूप में उपयोग होने वाले डीजल की कीमतो में साल-दर-साल 33.82 फीसदी, वहीं रसायन और रासायनिक उत्पादों में 10.24 फीसदी की बढ़ोतरी हुई।
यह आकड़े इस बात को दर्शाते हैं कि मूल्य निर्धारण की पावर औद्योगिक मालिकों के पास है क्योंकि जब वस्तुएं खुदरा विक्रेता के दवारा उपभोक्ताओं तक पहुंचती हैं तो इस स्तर तक पहुंचने में मूल्य में भारी वृद्धि हो जाती है। 'प्राथमिक श्रेणी' के खाद्य पदार्थों और 'निर्मित 'खाद्य वस्तुओं' उत्पादों' के बीच लगभग आठ फीसदी की वृद्धि का अंतर स्पष्ट होता है। जबकि यह लाभ किसानों को नही मिल पाता है ।
प्राथमिक स्तर पर खाद्य वस्तुओं के लिए थोक मूल्य सूचकांक मुद्रास्फीति अप्रैल में 4.92 फीसदी बढ़ी है। मगर साल दर साल विनिर्मित उत्पादों में खाद्य में 12.62 फीसदी का उछाल देखा गया है। मिलने वाला लाभ का दायरा कहां जा रहा है, इसका अंदाजा लगाना ज्यादा मुश्किल नहीं है!
इस कहानी के दो पहलू हैं । पहला यह कि कृषि उपज की कीमतों में बढ़ोतरी नहीं हो रही है। बल्कि इसके विपरीत, कुछ उपवादों को छोड़कर, ज्यादातर कृषि उपज के मूल्य घट रहे हैं। इससे जुड़ा एक औऱ पहलू है कि कृषि में लगने वाली लागत और वस्तुओं के मूल्य आसमान छू रहे हैं। वही इस कहानी का दूसरा पहलू यह है कि, भले ही थोक मंडियों में कृषि उपज के मूल्यो में लगातार गिरावट वाली प्रवृत्ति दिख रही हो, लेकिन आपके दरवाजे पर पहुंचाई जाने वाली सब्जियों की टोकरी के लिए आपको बहुत अधिक कीमत देनी पड रही है।
इस साल अप्रैल के महीने में थोक मंडियों में कृषि उपज की कीमतों का कुछ ऐसा ही हाल रहा है जिसको हर किसान भूलना चाहेगा । कोरोना महामारी ने तो ग्रामीण आबादी को गहरी चोट पहुँचाई ही है परंतु ग्रामीण लोगों के दुखों के प्रति सिस्टम की उदासीनता भी काफी दुखद है क्योंकि लोगों को समझना चाहिए यह वर्ग सालों तक भारतीय अर्थव्यवस्था का रीढ़ रहा है । दुर्भाग्य है कि इस ग्रामीण दुख का संज्ञान नहीं लिया जा रहा है । इस खरीफ मौसम में होने वाली बेमौसम बारिश के कारण खेतों की जुताई करने की ज़रूरत होगी । वहीं धान की रोपाई के लिए महिला श्रमिकों की ज़रूरत होगी । लेकिन गांव में फैलती कोराना माहामारी के बीच खेतों में काम करने वाले किसान और महिलाएं खरीफ में किए जाने वाले कृषि कार्य कर पाएंगें जिससे कि हम लोगों को भोजन मिल सके ?
(प्रकाश चावला आर्थिक मामलों पर काम करने वाले वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं )