किसान नेता एग्रीकल्चर जोनल प्लानिंग के पक्ष में, इससे कम होगी उर्वरकों पर निर्भरता
रूस और यूक्रेन युद्ध के चलते पैदा आपूर्ति के संकट और अंतरराष्ट्रीय बाजार में लगातार बढ़ती कीमतों के मद्देनजर देश में फसलों के आधार पर एग्रीकल्चर जोनल प्लानिंग की जरूरत है। इसके जरिये उर्वरकों की खपत कम करने के साथ ही फसल विविधिकरण को बढ़ावा दिया जा सकेगा। वहीं आयातित रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता कम करने के लिए देश में खेती के कुछ रकबे को धीरे-धीरे ऑर्गेनिक की तरफ ले जाना पड़ेगा। सरकार अभी जो उर्वरक सब्सिडी देती है वह कंपनियों को ना देकर सीधे किसानों को देना चाहिए। इससे किसानों को यह तय करने की आजादी मिलेगी कि उन्हें खेतों में किस उर्वरक का इस्तेमाल करना है
रूस और यूक्रेन युद्ध के चलते पैदा आपूर्ति के संकट और अंतरराष्ट्रीय बाजार में लगातार बढ़ती कीमतों के मद्देनजर देश में फसलों के आधार पर एग्रीकल्चर जोनल प्लानिंग की जरूरत है। इसके जरिये उर्वरकों की खपत कम करने के साथ ही फसल विविधिकरण को बढ़ावा दिया जा सकेगा। वहीं आयातित रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता कम करने के लिए देश में खेती के कुछ रकबे को धीरे-धीरे ऑर्गेनिक की तरफ ले जाना पड़ेगा। सरकार अभी जो उर्वरक सब्सिडी देती है वह कंपनियों को ना देकर सीधे किसानों को देना चाहिए। इससे किसानों को यह तय करने की आजादी मिलेगी कि उन्हें खेतों में किस उर्वरक का इस्तेमाल करना है। रूरल वॉयस और सॉक्रेटस फाउंडेशन द्वारा रूस और यूक्रेन युद्ध के बाद पैदा उर्वरकों के मौजूदा संकट पर मंगलवार को नई दिल्ली में आयोजित एक राउंड टेबल कांफ्रेंस में देश भर के सबसे किसान संगठनों के पदाधिकारियों ने यह सुझाव दिए। किसान संगठनों खेती के लिए अलग योजना आयोग बनाने और जिला स्तर पर एग्री जोन बनाने जैसे सुझाव भी दिए। यह पहला मौका है जब विभिन्न मत वाले संगठनों के नेता किसानों से जुड़े एक महत्वपूर्ण मुद्दे पर एक मंच पर मौजूद रहे।
कांफ्रेंस में सॉकरेटस द्वारा एक दी गये एक प्रजेंटेशन के जरिये पिछले एक साल से अभी तक उर्वरकों से संबंधित घटनाक्रम और कीमतों व उपलब्धता समेत अंतरराष्ट्रीय बाजार की स्थिति और घरेलू आयात की स्थिति की जानकारी और आंकड़े पेश किये गये। बीते एक साल में अंतरराष्ट्रीय बाजार में उर्वरकों के नाम 70 फ़ीसदी तक बढ़े हैं। भारत बने बनाए उर्वरकों के साथ उनके कच्चे माल का भी आयात करता है। उनके दाम में भी बढ़ोतरी हुई है। रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण उर्वरक उपलब्धता का भी संकट हुआ है। देश में अभी उर्वरकों का स्टॉक कम है और इंडस्ट्री आयात भी नहीं कर रही है। आसन्न खरीफ सीजन में किसानों को इस समस्या का सामना करना पड़ सकता है। युद्ध खत्म होने की फिलहाल कोई संभावना ना देखते हुए आने वाले दिनों में उर्वरकों तथा उनके कच्चे माल के दाम में गिरावट के आसार कम ही हैं। इससे सरकार को सब्सिडी भी बढ़ानी पड़ी है। बजट में सरकार ने 1.05 लाख करोड़ रुपए उर्वरक सब्सिडी का प्रावधान किया था, जबकि वास्तविक सब्सिडी इसके दो से ढाई गुना होने की उम्मीद की जा रही है।
इस मौके पर भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय महामंत्री युद्धवीर सिंह ने कहा कि सस्टेनेबिलिटी के लिए रासायनिक खेती पर निर्भरता कम करनी होगी, देश में उपलब्ध संसाधनों का इस्तेमाल बढ़ाने के उपाय तलाशने होंगे। उन्होंने कहा कि देश में 37 फ़ीसदी जमीन सिंचित है और सिंचित जमीन पर खेती करने वाले 90 फ़ीसदी किसान रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल करते हैं। इस तरह 63 फ़ीसदी किसानों के लिए सरकार कुछ नहीं सोचती है। उन्होंने कहा कि उर्वरक क्षेत्र में आत्मनिर्भरता जरूरी है तभी समस्या का समाधान निकलेगा। उन्होंने कहा, यह गलत धारणा है कि हाइब्रिड बीजों और उर्वरकों की वजह से हरित क्रांति आई। सच तो यह है कि पारंपरिक वैरायटी से ही हरित क्रांति आई। उन्होंने खेती के लिए रिजर्व जोन बनाने का सुझाव दिया और कहा कि उस जमीन का कोई दूसरा इस्तेमाल ना हो।
भारतीय किसान संघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य और भारतीय एग्रो इकोनॉमिक रिसर्च सेंटर (बीएआरसी) के ऑल इंडिया जनरल सेक्रेटरी प्रमोद चौधरी ने कहा कि अभी जो उर्वरक सब्सिडी दी जाती है वह होती तो किसानों के नाम पर है लेकिन वह सब्सिडी इंडस्ट्री को मिलती है। उन्होंने सुझाव दिया कि हर किसान को प्रति एकड़ 6000 रुपए के हिसाब से सब्सिडी की रकम दे दी जाए फिर किसान खुद तय करे कि उसे कौन सा उर्वरक इस्तेमाल करना है। उन्होंने बताया कि मध्य प्रदेश में सीधे किसानों को पैसे देने का ब्यूरोक्रेट्स ने यह कहकर विरोध किया कि अनेक किसान लीज पर जमीन लेकर खेती करते हैं ऐसे में सब्सिडी की रकम उन्हें कैसे मिलेगी। इसके अलावा अफसरों ने यह तर्क भी दिया कि एकमुश्त पैसे मिलने पर किसान उसे कहीं और खर्च कर देंगे।
स्वाभिमानी शेतकरी संगठन के अध्यक्ष राजू शेट्टी ने कहा, ऑर्गेनिक खेती के नाम पर बहुत सी कंपनियां फर्जीवाड़ा कर रही हैं और किसान उसमें फंस रहे हैं। ऑर्गेनिक खेती से खाद्य संकट आ सकता है। अपना उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि उन्होंने 5 साल तक ऑर्गेनिक तरीके से गन्ने की खेती की लेकिन इससे उत्पादकता 30 से 35 टन प्रति एकड़ से अधिक नहीं हो सकी जो रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल से 70 टन थी। ऑर्गेनिक गन्ने से निकलने वाली चीनी के लिए पहले 70 रुपए प्रति किलो का दाम आश्वस्त किया गया था, लेकिन बाद में पता चला कि उसे खरीदने वाला ही कोई नहीं है। किसानों को डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर के जरिए सब्सिडी देने का उन्होंने यह कहकर विरोध किया कि इस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। सरकार ने पहले रसोई गैस की सब्सिडी खाते में देने की बात कही थी लेकिन अब वह बंद हो गई है। उन्होंने बताया कि डीजल और उर्वरकों के दाम बढ़ने से गन्ने की प्रति टन लागत 214 रुपए बढ़ गई, जबकि गन्ने का उचित एवं पारिश्रमिक मूल्य (एफआरपी) सिर्फ 20 रुपए बढ़ा।
राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन के राष्ट्रीय संयोजक वीएम सिंह ने कृषि के लिए योजना आयोग जैसी अलग संस्था बनाने की जरूरत बताई और कहा कि अभी जो लोग नीतियां बनाते हैं उन्हें खेती के बारे में कुछ नहीं मालूम। सरकार की नीतियों में ऑर्गेनिक को प्राथमिकता नहीं मिलती है। हम कब तक आयातित उर्वरकों के मोहताज रहेंगे। अब भी दो तिहाई जमीन में जहां सिंचाई की सुविधा नहीं है, वहां गोबर खाद ही इस्तेमाल होता है। उन्होंने किसानों से प्रयोग करने का आह्वान किया और कहा हमें सिंचित इलाकों में धीरे-धीरे उर्वरकों का इस्तेमाल कम करने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) किसानों की जीवन रेखा है। उन्होंने यह भी कहा कि सरकार उर्वरकों के दाम बढ़ाए लेकिन उसे किसान की लागत में जोड़कर एमएसपी तय करें। उनका एक सुझाव था कि अगर यूरिया सीधे खेतों में डालने के बजाय उसका घोल बनाकर स्प्रे किया जाए तो सिर्फ 20 फ़ीसदी यूरिया की खपत होगी और उत्पादकता उतनी ही रहेगी।
जय किसान आंदोलन के नेता योगेंद्र यादव ने कई अल्पकालिक और दीर्घकालिक सुझाव दिए। उन्होंने कहा, आने वाले खरीफ सीजन के लिए तो ज्यादा कुछ करने का समय नहीं है। सरकार को फौरी उपाय ही करने पड़ेंगे। अंतरराष्ट्रीय बाजार में विभिन्न स्रोतों से उपलब्ध उर्वरक खरीदना पड़ेगा। मध्यम अवधि उपाय के तौर पर उन्होंने कहा कि सरकार उद्योगों को सब्सिडी न दे, किसानों को प्रति एकड़ के हिसाब से सब्सिडी दे। एमएसपी तय करने की व्यवस्था पर सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा कि इसमें तीन साल पहले के दाम को आधार बनाया जाता है। उन्होंने हर साल नई कीमतों के आधार पर एमएसपी तय करने की बात कही। कृषि में विविधीकरण के मुद्दे पर उन्होंने कहा कि इसके लिए किसानों को इंसेंटिव देना पड़ेगा। दीर्घकालिक सुझाव के तौर पर उन्होंने कहा कि एमएसपी को जिला स्तरीय कृषि आर्थिकी से जोड़ना चाहिए। खास जिले या क्षेत्र में खास फसलों के लिए ही एमएसपी दी जानी चाहिए, सबके लिए नहीं।
भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत ने सुझाव दिया कि पर्वतीय राज्य सबसे पहले ऑर्गेनिक खेती की तरफ जा सकते हैं। उन्होंने बताया कि उनके संगठन ने मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश सरकार से बुंदेलखंड ऑर्गेनिक बोर्ड बनाने का सुझाव दिया था, लेकिन इस दिशा में कोई काम नहीं हो रहा है। उन्होंने कहा कि कृषि कचरा प्रबंधन से बहुत खाद मिल सकती है जिन्हें अभी हम जला देते हैं। हमें ऐसी खेती की तरफ जाना पड़ेगा जिसमें उर्वरकों और पानी का इस्तेमाल कम हो।
अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव और वरिष्ठ सीपीआई नेता अतुल अंजान ने कहा, रासायनिक उर्वरक भले ही शरीर के लिए नुकसानदायक हो लेकिन फिलहाल इनका विकल्प नहीं है। ऑर्गेनिक खेती को सरकार को ही बढ़ावा देना पड़ेगा। अभी पूरे देश के लिए इसमें सिर्फ 750 करोड़ रुपए आवंटित किए गए हैं। कोई भी सरकार उर्वरकों पर गंभीर चर्चा नहीं करना चाहती क्योंकि इसमें उद्योगों का हित है। युवा पीढ़ी को आकर्षित करने के लिए कृषि को बदलना जरूरी है। उन्होंने भी कृषि आयोग जैसी संस्था गठित करने का समर्थन किया और कहा कि इसकी राज्यवार बैठक होनी चाहिए।
एलायंस ऑफ इंडियन फार्मर्स एसोसिएशन के राष्ट्रीय संयोजक डॉ. राजाराम त्रिपाठी ने कहा कि भारतीय किसान अपने तरीके से ऑर्गेनिक खेती कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि यहां कुछ इलाकों में 25 साल से ऑर्गेनिक खेती की जा रही है, उन पर रूस यूक्रेन युद्ध का कोई असर नहीं पड़ा है। उन्होंने कहा कि सरकार जीरो बजट खेती की बात करती है जबकि हमें खेती में इंफ्रास्ट्रक्चर और अन्य चीजों पर खर्च करने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि अभी जो आंकड़े बताए जाते हैं उनमें ज्यादातर गलत होते हैं, सरकार झूठे आंकड़ों के पिरामिड पर बैठी है।
एलायंस फॉरसस्टेनेबल एंड हॉलिस्टिक एग्रीकल्चर (आशा) के नचिकेत ने बताया कि भारत तैयार उर्वरकों के साथ कच्चे माल का भी आयात करता है। इस तरह देखा जाए तो यूरिया के मामले में 70 फ़ीसदी, फास्फेट में 95 फ़ीसदी और एमओपी में 100 फ़ीसदी निर्भरता आयात पर है। उन्होंने कहा कि जब प्राकृतिक गैस (जिससे यूरिया बनती है) और फास्फेट (जिससे डीएपी बनता है) एक दिन खत्म हो जाएंगे, इसलिए हमें विकल्प देखना पड़ेगा।
जम्मू-कश्मीर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के पूर्व विधायक यावर मीर भी इस कांफ्रेंस में मौजूद थे। उन्होंने बताया, कश्मीर में बागवानी की खेती ही अधिक होती है। वहां सरकारी स्कीम और जमीनी समस्याओं में बहुत फर्क है। अधिकारी अपने हिसाब से फैसले करते हैं। कई बार तो उन फैसलों की वजह से समस्या आ जाती है। उन्होंने कहा कि सरकार की नीतियां किसानों के लिए नहीं बल्कि व्यापारियों के लिए हैं। स्थिति यह है कि आज किसानों के पास किसान क्रेडिट कार्ड से लिए गए कर्ज लौटाने तक के पैसे नहीं हैं।
किसान महापंचायत के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामपाल जाट ने कहा कि सरकार की नीतियों के कारण सबसे अधिक दलहन किसानों को नुकसान होता है। उदाहरण के तौर पर सरकार ने दालें खरीदने की घोषणा तो की लेकिन साथ में तय कर दिया कि 25 फ़ीसदी से ज्यादा उपज नहीं खरीदी जाएगी। उन्होंने कहा कि फसल विविधीकरण और फसल चक्र भारतीय किसानों के स्वभाव में था। सरकारी नीतियों के कारण 1960 के दशक के बाद वह बिगड़ा है। उन्होंने कहा कि सरकार अगर हस्तक्षेप बंद कर दे तो किसानों की अनेक समस्याएं स्वतः दूर हो जाएंगी। उन्होंने भी कृषि जोन बनाकर उसके मुताबिक नीतियां बनाए जाने की बात कही।