प्रभावी एमएसपी हो किसानों और सरकार की सहमति का केंद्र बिंदु
एक बेहतर कृषि नीति और उपज की लाभकारी कीमत की किसानों की मांग अभी पूरी होनी बाकी है। किसानों ने न सिर्फ निजी पूंजी के ज्यादा निवेश के साथ-साथ सरकारी समर्थन और उसकी सुरक्षा वापस लेने के सरकार के प्रयासों को नाकाम किया, बल्कि उन्होंने न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी को आगे की बातचीत के एजेंडा में शुमार करने में भी सफलता हासिल की
एक साल तक धरना-प्रदर्शन करने के बाद किसान 11 दिसंबर को घर लौट गए। किसानों की यह वापसी उन तीन कृषि कानूनों के खिलाफ साहसिक संघर्ष का अंत हो सकता है जिन्हें संसद ने पारित किया था और पिछले महीने रद्द भी किया। लेकिन एक बेहतर कृषि नीति और उपज की लाभकारी कीमत की किसानों की मांग अभी पूरी होनी बाकी है। किसानों ने न सिर्फ निजी पूंजी के ज्यादा निवेश के साथ-साथ सरकारी समर्थन और उसकी सुरक्षा वापस लेने के सरकार के प्रयासों को नाकाम किया, बल्कि उन्होंने न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी को आगे की बातचीत के एजेंडा में शुमार करने में भी सफलता हासिल की।
अभी यह स्पष्ट नहीं है कि एमएसपी की गारंटी का क्या मतलब है और पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान तथा उत्तराखंड जैसे उत्तर-पश्चिमी राज्यों के ज्यादातर किसानों पर इसका क्या असर होगा। किसान आंदोलन का ज्यादा असर इन्हीं राज्यों में देखा गया। पूर्वी, मध्य और दक्षिण के राज्यों में तो एमएसपी की व्यवस्था बड़ी मुश्किल से चलती है। इसलिए वहां भी इसका असर देखने वाली बात होगी। किसान आंदोलन की चुनौती सिर्फ यह नहीं कि यह उत्तर-पश्चिमी राज्यों तक केंद्रित रहा, बल्कि आंदोलन को व्यापक बनाना भी है ताकि कृषि मजदूर समेत हर श्रेणी के किसानों को इसमें शामिल किया जा सके। यह कोई कठिन काम नहीं है। समर्थन मूल्य के जरिए हस्तक्षेप के सिद्धांत पर आधारित एक व्यापक एमएसपी व्यवस्था, जिसमें गारंटी भी हो, ज्यादा समावेशी होगी।
इस बात को कमोबेश हर कोई स्वीकार करता है कि एमएसपी की मौजूदा व्यवस्था क्षेत्रीय आधार पर असंतुलित है। चुनिंदा राज्यों के किसानों को ही एमएसपी पर खरीद का फायदा मिलता है और वह भी चुनिंदा फसलों, गेहूं और चावल के लिए। सबसे बड़ी समस्या यह है कि मौजूदा व्यवस्था, एमएसपी की व्यवस्था है ही नहीं, यह वास्तव में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून की जरूरतों को पूरा करने के लिए एक सार्वजनिक खरीद योजना है। हालांकि इस कानून में मोटे अनाज, दालें, खाद्य तेल जैसे पोषक खाद्य की बात कही गई है, इसके बावजूद मौजूदा सार्वजनिक वितरण प्रणाली पूरी तरह गेहूं और चावल पर केंद्रित है। इसलिए गेहूं और चावल की तरफ अत्यधिक झुकाव किसानों के लिए एक प्रभावी एमएसपी की जरूरत का जवाब नहीं है। बल्कि यह प्राकृतिक संसाधनों पर होने वाले हानिकारक प्रभावों की चिंता दूर करने में भी अक्षम है।
एक प्रभावी न्यूनतम समर्थन मूल्य क्या होगा? जब उपज की कीमत एक तयशुदा कीमत से कम हो जाती है तो किसानों को लाभकारी मूल्य दिलाना ही एमएसपी व्यवस्था है। कीमत में यह गिरावट अधिक उत्पादन और ज्यादा सप्लाई अथवा दूसरे आंतरिक कारणों से हो सकती है। परिस्थिति चाहे जो भी हो, परिभाषा के हिसाब से एमएसपी व्यवस्था में जब फसल की कीमत समर्थन मूल्य से कम हो जाती है तो सरकार को उसे खरीद कर हस्तक्षेप करना होता है। सरकार के इस कदम से बाजार में अतिरिक्त आपूर्ति कम होती है और घरेलू बाजार में दाम ऊपर जाते हैं। इस तरह कीमत एमएसपी के बराबर या उससे अधिक हो जाएगी। सरकार को पूरी उपज खरीदने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि उससे एक कृत्रिम कमी पैदा होगी और दाम और अधिक बढ़ जाएंगे। सरकार को निजी कारोबार को किसी खास मूल्य पर बाध्य करने की भी जरूरत नहीं है। लेकिन इसका यह मतलब जरूर है कि अगर बाजार में कीमत एमएसपी के बराबर या उससे अधिक रहे तो सरकार उपज को नहीं खरीदेगी। एमएसपी का यही बुनियादी सिद्धांत है जिसे दरकिनार कर दिया गया है। इसलिए पूरी एमएसपी व्यवस्था राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून को समर्थन देने का जरिया बनकर रह गई है।
सरकार 23 फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा करती है, लेकिन प्रभावी खरीद सिर्फ गेहूं और चावल की होती है। बाकी फसलों की खरीद थोड़ी बहुत ही हो पाती है। कभी-कभार सरकार दालें और कपास खरीदती है। गेहूं और चावल के लिए भी सरकारी खरीद कीमतों को स्थिर करने के लिए नहीं बल्कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून की जरूरतों को पूरा करने के लिए किया जाता है। हालांकि हाल में ऐसा देखा गया कि सरकार ने गेहूं और चावल की अधिक मात्रा में खरीद की, जिससे बाजार में कृत्रिम कमी पैदा हुई। 1 दिसंबर 2021 को गेहूं और चावल का 8.3 करोड़ टन का भंडार था। यह 1 जनवरी को 2.1 करोड़ टन के बफर स्टॉक और रणनीतिक जरूरत का 4 गुना है। अतिरिक्त भंडारण राष्ट्रीय संसाधनों की बर्बादी तो है ही, यह कीमतों में भी विकृति लाता है, जबकि एमएसपी का लक्ष्य इसके उलट कीमतों में स्थिरता लाना है।
यहां यह बात कहना जरूरी है कि दो लाख करोड़ रुपए से अधिक का तथाकथित खाद्य सुरक्षा बिल किसानों के लिए सब्सिडी नहीं, बल्कि उपभोक्ताओं के लिए सब्सिडी है जिसे राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत पूरा करने के लिए सरकार बाध्य है। लेकिन इसका दूसरा मतलब यह भी है कि अन्य अनेक फसलों की, जिनकी बाजार कीमत एमएसपी की तुलना में बहुत कम होती है, उन्हें कीमतों की कोई सुरक्षा नहीं मिल पाती है। यह बात बिहार की प्रमुख फसल मक्के के साथ-साथ अन्य मोटे अनाजों पर भी लागू होती है जिन्हें देश के वर्षा आधारित और शुष्क इलाकों में उपजाया जाता है। दलहन और तिलहन के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य के अभाव के कारण ही बीते दो दशकों में भारत इनके आयात पर आश्रित हो गया जबकि 1990 के दशक में इन दोनों मामलों में भारत आत्मनिर्भर था।
एक सक्षम एमएसपी व्यवस्था को लागू करना कितना मुश्किल है? बुनियादी जरूरत यह है कि एमएसपी में सिर्फ उत्पादन की लागत को नहीं बल्कि खाद्य सुरक्षा की रणनीतिक जरूरत का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। इसका मतलब है कि दलहन और तिलहन के लिए एमएसपी इतना हो कि लागत के साथ मुनाफा भी हो। बल्कि इसे उन फसलों की तुलना में अधिक लाभकारी होना चाहिए जिनके उत्पादन के मामले में देश सरप्लस स्थिति में है। अभी कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) एमएसपी की सिफारिश करता है, लेकिन इसकी सिफारिशें बाध्यकारी नहीं हैं। एक और सच्चाई यह है कि वास्तविक एमएसपी राजनीतिक नफा-नुकसान देखकर घोषित किए जाते हैं।
इसलिए पहला कदम तो यह होना चाहिए कि सीएसीपी की सिफारिशों को सरकार के लिए वैधानिक रूप से बाध्यकारी बनाया जाए। दूसरा कदम कीमत निगरानी की व्यवस्था बनाने की है। इसे क्षेत्रीय आधार पर करने की जरूरत है। अभी सरकार की एक व्यवस्था है जिसे और मजबूत बनाया जा सकता है। लेकिन एमएसपी की वास्तविक गारंटी के लिए सरकार को बाजार में हस्तक्षेप करना पड़ेगा और किसानों की उपज खरीदनी पड़ेगी ताकि मूल्य एमएसपी के स्तर पर आ जाएं या उससे अधिक हो जाएं। सरकार का हस्तक्षेप राजनीतिक आधार पर ना हो बल्कि उसका एक फॉर्मूला हो और वह खरीद एजेंसियों के लिए बाध्यकारी हो। यह हस्तक्षेप पूरी तरह से वैज्ञानिक रहे और इसमें अन्य किसी बात को शामिल न किया जाए।
सरकार पर इसका कितना बोझ आएगा? अगर सरकार खरीदी हुई उपज को वितरित करती है तो बोझ ज्यादा नहीं होगा। अच्छी व्यवस्था तो यह होगी कि जब उपभोक्ताओं के लिए कीमतें बढ़ती हैं और महंगाई दर अधिक हो जाती है, तब सरकार उस खरीदी हुई फसल को बाजार में बेचे। इस तरह एमएसपी की व्यवस्था महंगाई के दबाव को कम करने के साथ-साथ गरीब कामगार वर्ग को जरूरी राहत भी मुहैया कराएगी। अंतरराष्ट्रीय बाजार में दाम अगर घरेलू बाजारों से अधिक हो तो कभी-कभार निर्यात भी किया जा सकता है। इससे सरकार को अतिरिक्त राजस्व की प्राप्ति होगी। कुल मिलाकर देखा जाए तो सरकार के लिए शुद्ध लागत, खरीद की जरूरत और वितरण की व्यवस्था पर निर्भर करेगी।
एक बेहतर तरीका यह हो सकता है कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत मौजूदा वितरण व्यवस्था (पीडीएस) का इस्तेमाल मोटे अनाज, दालें, खाद्य तेल आदि के वितरण के लिए किया जाए। इससे देश के बड़े गरीब वर्ग के लिए पोषण की सुरक्षा को मजबूत करने में मदद मिलेगी। इसके अलावा उपेक्षित इलाकों में छोटे और सीमांत किसानों को भी एमएसपी का लाभ मिल सकेगा। बिहार जैसे गरीब राज्यों में इसकी जरूरत बहुत अधिक है जहां एमएसपी पर खरीद नगण्य है। इसके अलावा विदर्भ, तेलंगाना, कर्नाटक के शुष्क और वर्षा आधारित इलाकों में भी इसका फायदा होगा जहां मुख्य रूप से दालें, तिलहन और मोटे अनाज उपजाए जाते हैं। इससे इन फसलों का उत्पादन भी बढ़ेगा और सरकार को दलहन और तिलहन का आयात घटाकर विदेशी मुद्रा की बचत करने में भी मदद मिलेगी। इन सबके साथ खाद्य सुरक्षा भी सुनिश्चित होगी।
यह सब आसानी से किया जा सकता है और सरकार के अधिकार क्षेत्र में है। एक प्रभावी एमएसपी व्यवस्था सिर्फ आपातकालीन प्रावधान है। इससे खेती की वास्तविक समस्याओं का समाधान नहीं होता है। बीते एक दशक में देश के किसानों को अनेक अनकही समस्याओं का सामना करना पड़ा है। पोषण आधारित उर्वरक सब्सिडी की व्यवस्था के चलते किसान पहले ही उर्वरकों की अधिक कीमत से जूझ रहे हैं। साल 2014 और 2015 में उन्हें लगातार दो साल बिना सरकारी मदद के सूखे का सामना करना पड़ा। फिर अगस्त 2014 से जिंसों के दाम में भारी गिरावट आ गई। इसके बावजूद किसान लड़ते रहे और धीरे-धीरे कृषि में रिकवरी हो ही रही थी कि तभी नोटबंदी और जीएसटी का झटका लगा और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ टूट गई। उसके बाद से अर्थव्यवस्था में जारी सुस्ती और कोविड-19 महामारी के कारण किसानों की आमदनी और ग्रामीण इलाकों में पारिश्रमिक घट रहा है तथा बेरोजगारी बढ़ रही है। इन समस्याओं के साथ कृषि को सरकार की असंवेदनशीलता का भी सामना करना पड़ा जिससे कृषि क्षेत्र में वास्तविक निवेश में गिरावट आई और डीजल तथा बिजली महंगी होने के कारण किसानों की लागत बढ़ गई।
किसानों पर कर्ज का बोझ बढ़ने और उनकी कमाई घटने का मुख्य कारण सरकारी नीतियों की असंवेदनशीलता ही है। फिलहाल एमएसपी की गारंटी की मांग से कृषि में कम निवेश, कम अनुसंधान तथा अर्थव्यवस्था में घटती मांग जैसी ढांचागत समस्याओं का समाधान होने की उम्मीद कम है। लेकिन यह जरूर है कि इससे किसानों का कष्ट कुछ हद तक दूर होगा। इसके साथ ही देश के हर क्षेत्र के किसानों को एमएसपी की व्यवस्था का लाभ मिलने लगेगा।
( हिमांशु , जेएनयू के स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज के सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज एंड प्लानिंग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं )