इस साल भी घाटा झेलने को मजबूर आलू किसानों को कमाई के 'टॉप' फार्मूले का इंतजार
आलू किसानों को बढ़ती लागत, उत्पादकता में कमी और कीमतों में गिरावट के रूप में दोहरे नुकसान का सामना करना पड़ सकता है। पिछले करीब पांच साल से एक बंपर कमाई वाले साल की उम्मीद कर रहे किसानों के लिए यह उम्मीद अब अधिक लंबी होती दिख रही है।
टिढ़ियापुर, कन्नौज, उत्तर प्रदेश
अगर आप इन दिनों दिल्ली से लखनऊ के लिए ग्रेटर नोएडा से आगरा जाने वाले ताज एक्सप्रेसवे और उसके बाद आगरा- लखनऊ एक्सप्रेसवे पर जा रहे हैं तो मथुरा से थोड़ा आगे चलते ही जहां तक नजर जाती है वहां तक आपको खेतों में आलू की खुदाई करते किसान और मजदूर, लाल और मलमैले रंग की आलू की बोरियों की लंबी कतारें, ट्रैक्टर ट्रालियों और ट्रकों में लदे कोल्ड स्टोरों की ओर जा रहे आलू के बोरे दिखाई देने लगते हैं। यह सिलसिला मथुरा से शुरू होकर उन्नाव तक चलता है। वहीं एक्सप्रेसवे से उतरकर अलीगढ़, हाथरस, कन्नौज, शिकोहाबाद, फर्रुखाबाद, इटावा, कानपुर और हरदोई की ओर जाने वाली सड़कों के आसपास भी यही नजारा दिखता है। इसे देखकर लोगों को भ्रम को सकता है कि कुछ माह पहले तक महंगा बिक रहा आलू किसानों के लिए बेहतर कमाई का मौका लेकर आ रहा है। लेकिन किसानों के साथ बात करने पर कहानी बदल जाती है। वजह है इस साल आलू की उत्पादकता अनुमान से कम होना और कीमतों में गिरावट आना। बेहतर दाम की उम्मीद में पिछले साल से अधिक रकबे के चलते उत्पादन करीब 10 फीसदी ज्यादा होगा। जिसके चलते आलू किसानों को बढ़ती लागत, उत्पादकता में कमी और कीमतों में गिरावट के रूप में दोहरे नुकसान का सामना करना पड़ सकता है। पिछले करीब पांच साल से एक बंपर कमाई वाले साल की उम्मीद कर रहे किसानों के लिए यह उम्मीद अब अधिक लंबी होती दिख रही है।
लखनऊ एक्सप्रेसवे से कन्नौज जाने वाली सड़क पर इस जिले के टिढ़ियापुर गांव के किसान बबलू कटियार अपने एक एकड़ के खेत में आलू की खुदाई के बाद मजदूरों के साथ उसे बोरों में भरकर कोल्ड स्टोर भेजने की तैयारी कर रहे हैं । रुरल वॉयस से बातचीत में वह कहते हैं कि दाम गिर गया है, आलू के बैग (52 किलो) का भाव अभी 400 रुपये के करीब मिल रहा है। पिछले साल फसल कमजोर थी लेकिन भाव इससे ज्यादा था। इस बार एक एकड़ में 300 बैग उत्पादन का अनुमान था लेकिन उत्पादन 200 से 225 बैग के आसपास ही है। वह विस्तार से फसल की लागत बताते हैं जिसमें बीज, खाद, मजदूरी और सिंचाई, खुदाई, बारदाना और ढ़ुलाई समेत जो लागत आती है उसमें कोल्ड स्टोरेज के खर्च समेत लागत 20 हजार रुपये बीघा पर पहुंच रही है। कोल्ड स्टोर मालिक 125 रुपये प्रति बैग किराया लेते हैं। पिछले साल 28 से 30 बोरी प्रति बीघा उत्पादन था। इस साल हम 50 बैग प्रति बीघा से ज्यादा की उम्मीद कर रहे थे लेकिन उत्पादन 40 से 45 बैग पर अटक गया है। एक बीघा में 2250 किलो आलू के उत्पादन और 20 हजार रुपये लागत के आधार पर प्रति किलो लागत 8.90 रुपये बैठती है। अगर आलू 10 रुपये किलो बिकता तो ही किसान लागत के उपर कुछ कमा सकता है नहीं तो उसे घाटा होना तय है।
बबलू बताते हैं कि अक्तूबर, 2020 में आलू के दाम 1000 रुपये से 1200 रुपये प्रति बैग पहुंच गये थे। इसके चलते लोगों ने फसल का रकबा बढ़ा दिया था। लेकिन जिस तरह से दाम है और उत्पादन कम है उसे देखकर तो अब सीजन के बाद का भाव की तय करेगा कि लागत भी निकल पायेगी या नहीं। असल में किसान खुदाई के समय करीब 20 फीसदी आलू बेचकर कुछ खर्चों को निपटाते हैं बाकी 80 फीसदी आलू कोल्ड स्टोरेज में भंडारण के लिए चला जाता है। जिसकी बिक्री नवंबर तक चलती है।
यहां से थोड़ा आगे कन्नौज- हरदोई मार्ग पर 29 बीघा में आलू की खेती करने वाले कन्नौज जिले के मानपुर गांव के किसान अवधेश कुमार कटियार भी आलू की खुदाई करते मिल जाते हैं। रुरल वॉयस के साथ बातचीत में अवधेश कहते हैं कि हमें 40 बैग प्रति बीघा का उत्पादन मिल रहा है। उनका कहना है कि लागत ही दस रुपये किलो आ रही है। जबकि दाम आठ रुपये मिल रहा है। जाहिर है हमें अभी से घाटा हो रहा है। कोल्ड सटोर में आलू जाने के बाद वहां से आने वाले दिनों में बिक्री होगी तो स्थिति और साफ होगी। हम चार साल से एक बेहतर कमाई वाले सीजन का इंतजार कर रहे हैं। पिछले साल उत्पादन घटने से दाम कुछ बेहतर हुआ था लेकिन कोरोना महामारी में लॉकडाउन के चलते किसानों को इसका फायदा नहीं मिल सका। यही कहानी एक के बाद एक किसान दोहराता जाता है। इस समय उत्तर प्रदेश की तीन आलू बेल्ट में से फरुर्खाबाद, इटावा कन्नौज बेल्ट में 50 फीसदी से ज्यादा आलू की खुदाई हो चुकी है।
दक्षिण पश्चिम उत्तर प्रदेश जिसे लोअर दोआब भी कह सकते हैं देश का सबसे बड़ा आलू उत्पादक इलाका है। आलू उत्पादन की यह बेल्ट राज्य में मथुरा, अलीगढ़, हाथरस, आगरा, फिरोजाबाद, फर्रूखाबाद, इटावा, मैनपुरी, कन्नौज से लेकर आगे बाराबंकी और जौनपुर तक जाती है। उत्पादन और कारोबार के नजरिये से इसे दो जोन में बांटते हैं। आगरा जोन और कानपुर जोन। आगरा जोन दिल्ली, दक्षिणी भारत, महाराष्ट्र और मध्य भारत में आलू की आपूर्ति करता है। जबकि कानपुर जोन देश के पूर्वी और पूर्वोत्तर हिस्से में आलू की ज्यादा आपूर्ति करता है। इसके अलावा वहां बिहार और पश्चिम बंगाल से भी आलू की आपर्ति होती है। उत्तर प्रदेश की इस आलू बेल्ट में बसंत पंचमी से आलू की खुदाई शुरू होती है और यह होली तक या यूं कहें कि करीब 15 मार्च तक चलती है। कन्नौज के आसपास के कुछ हिस्से में फसल कमजोर है तो कुछ में सामान्य है। वहीं आगरा, अलीगढ़, हाथरस, मथुरा और मैनपुरी बेल्ट में भी खुदाई शुरू हो गई जो होली के पहले तक चलेगी। यह सबसे बड़ी आलू उत्पादक बेल्ट है।
आगरा के खंडोली कस्बे के किसान डूंगर सिंह खंडोली रुरल वॉयस से कहते हैं कि अभी तक की खुदाई के आधार पर उत्पादकता आठ से 10 फीसदी तक कम है। वहीं बाजार 500 से 700 रुपये बैग से गिरकर 350 से 400 रुपये प्रति बैग पर आ गया है। इसका नतीजा यह हुआ कि उत्पादकता और दाम दोनों की गिरावट की मार किसान झेल रहा है। करीब 100 एकड़ में आलू उगाने वाले और कोल्ड स्टोर के मालिक डूंगर सिंह को उत्तर प्रदेश में आलू के कारोबार के आकलन के मामले में काफी सटीक अनुमान लगाने वाले लोगों में शुमार किया जाता है।
डूंगर सिंह का कहना है कि आलू का साइज कम होने के चलते उत्पादकता करीब 10 फीसदी कम रह गई है। हालांकि वह कहते हैं कि फर्रुखाबाद - कन्नौज बेल्ट में कोल्ड स्टोर भरने लायक उत्पादन होने की संभावना है लेकिन आगरा बेल्ट में इस बार सभी कोल्ड स्टोर भर पाएंगे, ऐसा संभव नहीं लगता है। उनका कहना है कि इस साल लागत और कीमतों के चलते हर बैग पर 100 रुपये का घाटा है। हालांकि वह कहते हैं कि इस साल उत्पादन पिछले साल से 10 से 15 फीसदी तक ज्यादा होगा। इसकी मुख्य वजह पिछले साल के बेहतर दाम के चलते आलू का अधिक रकबा है।
देश का करीब 30 फीसदी आलू उत्तर प्रदेश में पैदा होता है। राज्य की आलू बेल्ट के लिए यह एक कमर्शियल फसल है। यहां लोगों ने कोल्ट स्टोरेज क्षमता पर भारी निवेश किया है। अकेले आगरा जिले में करीब 300 कोल्ड स्टोर हैं। जो देश के किसी भी जिले में कोल्ड स्टोरों की सबसे बड़ी संख्या है। इस आलू बेल्ट में करीब एक हजार कोल्ड स्टोर हैं। औसतन 10 हजार टन की क्षमता के आधार पर यहां कोल्ड स्टोरों की क्षमता करीब 10 मिलियन टन बैठती है। जबकि पिछले साल उत्तर प्रदेश का कुल आलू उत्पादन 13 मिलियन टन रहा था। डूंगर सिंह कहते हैं कि अभी एक सप्ताह में उत्पादन की स्थिति और साफ होगी। अगर उत्पादकता पर ज्यादा असर पड़ता है तो कीमतों पर भी असर हो सकता है। वहीं अगर उत्पादन में ज्यादा गिरावट नहीं आती है तो कीमतें और गिर सकती है।
किसानों का कहना है कि पिछले साल अक्तूबर में जब दाम 1000 से 1200 रुपये प्रति बैग तक पहुंचने लगे तो उत्तर प्रदेश सरकार के अधिकारियों ने किसानों पर दबाव बनाना शुरू कर दिया था कि वह आलू को कोल्ड स्टोर से निकालें। इसकी वजह बिहार का चुनाव था जहां आलू की कीमतों में बढ़ोतरी का मुद्दा राजनीतिक हो गया था और भाजपा को राजनीतिक नुकसान से बचाने के लिए किसानों पर दबाव बनाया गया था। हालांकि कानूनी रूप से किसान नवंबर तक स्टोर से आलू निकालने के लिए बाध्य नहीं हैं। लेकिन इस माहौल के चलते कीमतों में गिरावट आ गई थी। यानी राजनीतिक फायदे के लिए किसानों का नुकसान हुआ।
देश में 2019-20 में आलू का उत्पादन गिरकर 48.66 मिलियन टन पर आ गया था। उसके चलते दाम बढ़े थे। सरकार के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक 2015-16 में आलू उत्पादन 43.42 मिलियन टन रहा था। जो 2016-17 में 48.60 मिलियन टन पर पहुंच गया। उसके अगले साल 2017-18 में उत्पादन रिकार्ड 51.31 मिलियन टन पर पहुंच गया था। वहीं 2018-19 में आलू उत्पादन 50.19 मिलियन टन रहा जो 2019-20 में घटकर 48.66 मिलियन टन पर आ गया। इसमें उत्तर प्रदेश का उत्पादन 13 मिलियन टन, पश्चिम बंगाल का 12.56 मिलिटन टन, बिहार का 7.7 मिलियन टन, गुजरात का 3.62 मिलियन टन, मध्य प्रदेश का 3.46 मिलियन टन और पंजाब का उत्पादन 2.87 मिलियन टन रहा था। 2017-18 के रिकार्ड उत्पादन वाले साल में उत्तर प्रदेश का उत्पादन 15.56 मिलियन टन पर पहुंच गया था। जिसके चलते कीमतों में भारी गिरावट आई थी। इसके पहले डिमोनेटाइजेशन ने आलू किसानों की हालत खराब कर दी थी। 2018 में दाम कुछ बढ़े थे, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं । उसके बाद पिछले साल जरूर कम उत्पादन की वजह से दाम कुछ सुधरने की गुंजाइश बनी थी लेकिन लॉकडाउन की वजह किसानों को उसका बड़ा फायदा नहीं मिल सका। जब अक्तूबर, 2020 में दाम बढ़े तो किसानों पर कोल्ड स्टोरों से आलू निकालने का परोक्ष दबाव बनाया गया।
इस साल भी आलू किसानों के लिए हालात बहुत बेहतर नहीं दिख रहे हैं। दाम गिरने की स्थिति में सरकारी की ओर से मदद की बात हो तो बबलू कटियार हों, अवधेश कटियार हों या डूंगर सिंह सभी कहते हैं कि हमें नुकसान उठाना पड़ रहा है तो भी सरकार से किसी तरह की मदद की उम्मीद नहीं है। वैसे सरकारी योजनाओं में इस तरह के किसानों के लिए ऑपरेशन ग्रीन योजना में टॉप (टमैटो, अनियन, पोटेटो) योजना की चर्चा तो बहुत होती है । इसका मकसद इन उत्पादों की कीमतों में भारी गिरावट को रोकना और उतार-चढ़ाव को रोकना है। लेकिन जमीनी हकीकत किसान ही जानते हैं।
इस सबके बीच उत्तर- पश्चिम भारत में चल रहे किसान आंदोलन पर इन किसानों का कहना है कि हमें भी अगर आलू के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) मिल जाए तो हम नुकसान से बच जाएंगे। कम से कम लागत तो निकल जाएगी। भले ही यह किसान दिल्ली के बार्डर पर बैठे किसानों के साथ यहां नहीं आ सके लेकिन एमएसपी तो वह भी चाहते हैं। असल में आलू भी गन्ना के तरह व्यवसायिक फसल है जिसमें किसानों की लागत भी ज्यादा आती है और उसकी मार्केटिंग पूरी तरह से सिस्टेमैटिक है। लेकिन उनके लिए गन्ना किसानों की तरह कोई एफआरपी नहीं है। दूसरी और उन एक्सपर्ट्स को भी इस आलू बेल्ट में आकर देखना चाहिए जो कॉरपोरेट को यहां भंडारण में निवेश के लिए प्रोत्साहित करने के मकसद से कृषि सुधारों की बात करते हैं। यहां आने पर उनको पता लगेगा कि यहां कोल्ड स्टोर स्थापित करने पर कितना निवेश हुआ है और यहां भंडारण की कमी नहीं है। असल समस्या लाभप्रद और कीमतों में स्थायित्व की है जो किसानों को घाटे से बाहर निकाल कर उन्हें सही दाम का भरोसा दे सके। इस बेल्ट के कई किसानों का कहना है कि छोटे किसान होने के नाते वह किसान आंदोलन में जाने की स्थिति में नहीं हैं। लेकिन एमएसपी जैसा भरोसा तो हमें भी चाहिए। इस धारणा के जरिये वह खुद को आंदोलन से जोड़ते हैं। काफी लोग दिल्ली के बार्डरों पर आकर आंदोलन में शिरकत भी कर चुके हैं। वहीं मौजूदा स्थिति से लग रहा है कि देश की हॉर्टिकल्चर उत्पादों की सबसे बड़ी फसल आलू के किसानों के लिए यह साल फायदे की बजाय नुकसान की चिंता लेकर आया है।