तीन दशक में पृथ्वी की तीन-चौथाई भूमि स्थायी रूप से शुष्क हुई, संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में खुलासा
वैज्ञानिकों ने पाया है कि पिछले 30 वर्षों में तीन-चौथाई से अधिक भूमि स्थायी रूप से शुष्क हो गई है। वर्ष 1990 और 2020 के बीच पृथ्वी की 77.6% भूमि इससे पहले की तीन दशकों की तुलना में अधिक शुष्क हो गई। साथ ही, सूखी भूमि का क्षेत्रफल 43 लाख वर्ग किलोमीटर तक बढ़ गया। अब सूखी भूमि पृथ्वी के 40.6% भूभाग को कवर करती है।
संयुक्त राष्ट्र के कॉप 16 सम्मेलन में एक गंभीर खुलासा हुआ है। वैज्ञानिकों ने पाया है कि पिछले 30 वर्षों में तीन-चौथाई से अधिक भूमि स्थायी रूप से शुष्क हो गई है। वर्ष 1990 और 2020 के बीच पृथ्वी की 77.6% भूमि इससे पहले की तीन दशकों की तुलना में अधिक शुष्क हो गई। साथ ही, सूखी भूमि का क्षेत्रफल 43 लाख वर्ग किलोमीटर तक बढ़ गया। अब सूखी भूमि पृथ्वी के 40.6% भूभाग को कवर करती है (अंटार्कटिका को छोड़कर)। सबसे चिंताजनक यह है कि लगभग 7.6% वैश्विक भूमि - जो कनाडा के आकार से भी बड़ी है - ने शुष्कता की अहम सीमा पार कर ली है। ये क्षेत्र अब अधिक शुष्क या कम आर्द्र से अधिक शुष्क श्रेणी में परिवर्तित हो गए हैं।
यह निष्कर्ष ग्लोबल थ्रेट ऑफ ड्राईंग लैंड्स: रीजनल एंड ग्लोबल एरिडिटी ट्रेंड्स एंड फ्यूचर प्रोजेक्शन्स नामक रिपोर्ट में प्रकाशित हुआ। इसे सऊदी अरब के रियाद में आयोजित कॉप 16 सम्मेलन में जारी किया गया। सम्मेलन के एक्जीक्यूटिव सेक्रेटरी इब्राहिम थियाव ने कहा, “इस विश्लेषण ने वैश्विक शुष्कता रुझानों को लेकर अनिश्चितता दूर कर दी है। शुष्कता एक स्थायी परिवर्तन है। सूखे जलवायु से पृथ्वी पर जो प्रभाव हो रहा है, वह वापस नहीं लौटेगा जिससे पृथ्वी पर जीवन को नया रूप दिया जा सके।”
मानव जनित जलवायु परिवर्तन की भूमिका
रिपोर्ट में इस बदलाव का मुख्य कारण ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को बताया गया है। बिजली उत्पादन, परिवहन, उद्योग और भूमि उपयोग परिवर्तन जैसी गतिविधियां पृथ्वी को गर्म कर रही हैं। इससे वर्षा के पैटर्न बदल रहे हैं, वाष्पीकरण दर बढ़ रही है और वनस्पति प्रभावित हो रही है। ये सब धरती की शुष्कता में योगदान कर रहे हैं।
शुष्कता से प्रभावित हॉटस्पॉट में यूरोप (95.9% प्रभावित), पश्चिमी अमेरिका, ब्राजील, दक्षिणी अफ्रीका और एशिया के बड़े क्षेत्र शामिल हैं। भूमध्यसागरीय देश, जो कभी मजबूत कृषि केंद्र थे, अब अर्ध-शुष्क परिस्थितियों का सामना कर रहे हैं। दक्षिण सूडान और तंजानिया में भूमि का बड़ा हिस्सा शुष्क भूमि में बदल गया है। चीन ने सबसे बड़ा क्षेत्रीय बदलाव देखा है।
इसके विपरीत केवल 22.4% वैश्विक भूमि में इस अवधि में नमी बढ़ी। इसमें मध्य अमेरिका और दक्षिण पूर्व एशिया के कुछ हिस्से शामिल हैं। हालांकि, समग्र रूप से यह स्पष्ट है कि सूखी भूमि का विस्तार हो रहा है, जो पारिस्थितिक तंत्र, कृषि और मानव जीवनयापन को खतरे में डाल रहा है।
दूरगामी परिणाम
बढ़ती शुष्कता के प्रभाव व्यापक हैं, जो जीवन और समाज के हर पहलू को प्रभावित करते हैं:
कृषि: शुष्कता भूमि के क्षरण का मुख्य कारण है। इससे पृथ्वी की 40% उपजाऊ भूमि प्रभावित हुई है। सिर्फ इस वजह से 1990 और 2015 के बीच अफ्रीकी देशों की जीडीपी में 12% की गिरावट आई है। वर्ष 2040 तक वैश्विक स्तर पर 2 करोड़ टन मक्का, 2.1 करोड़ टन गेहूं और 1.9 करोड़ टन चावल का नुकसान होने का अंदेशा है।
जल संसाधन: वर्ष 2100 तक दो-तिहाई भूमि में कम पानी जमा होने का अनुमान है, भले ही उत्सर्जन मध्यम स्तर पर हो। मध्य-पूर्व जैसे क्षेत्रों में 1950 के बाद से पानी की उपलब्धता में पहले ही 75% की गिरावट आई है।
जैव विविधता: बढ़ती शुष्कता शुष्क और आर्द्र क्षेत्रों में 55% प्रजातियों के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा कर रही है। इससे पूरे पारिस्थितिक तंत्र के बदलने का जोखिम हो गया है। जंगलों की जगह घास के मैदान और अन्य लैंडस्केप बन सकते हैं।
लोगों का माइग्रेशनः शुष्कता से भूमि क्षरण और पानी की कमी लोगों को पलायन के लिए मजबूर कर रही है। विशेष रूप से दक्षिणी यूरोप, मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका के अति-शुष्क और शुष्क क्षेत्रों में। वर्ष 2100 तक 5 अरब लोग शुष्क भूमि पर रहने को मजबूर हो सकते हैं। यह संख्या दुनिया की अनुमानित आबादी के आधे से अधिक होगी।
शुष्कता का असर कम करने के लिए रोडमैप
रिपोर्ट में शुष्कता के प्रभावों को कम करने और इसके अनुकूलन के लिए एक व्यापक रोडमैप प्रस्तुत किया गया है। इसमें कहा गया है कि शुष्कता के मानकों को सूखा निगरानी प्रणालियों में एकीकृत करना होगा ताकि शुरू में ही इसकी पहचान हो और समय पर हस्तक्षेप किया जा सके। एरिडिटी विजुअल इनफॉर्मेशन टूल जैसे उपकरण नीतिनिर्धारकों को बहुमूल्य जानकारी प्रदान कर सकते हैं।
लचीले और स्थानीय समुदायों की भागीदारी वाले समग्र भूमि प्रबंधन तरीकों को प्रोत्साहित करना होगा। अफ्रीका की ग्रेट ग्रीन वॉल जैसी पहल बड़े पैमाने पर रेस्टोरेशन प्रोजेक्ट की क्षमता दर्शाती है। यह मरुस्थलीकरण से निपटने और आर्थिक अवसर सृजित करने में सहायक हैं। वर्षा जल संचयन, ड्रिप सिंचाई और अपशिष्ट जल की रीसाइक्लिंग जैसी तकनीकें प्रभावित क्षेत्रों में जल संसाधनों के प्रबंधन के व्यावहारिक समाधान प्रदान करती हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि राष्ट्रीय नीतियों को यूएनसीसीडी के लैंड डिग्रेडेशन न्यूट्रलिटी फ्रेमवर्क जैसे वैश्विक फ्रेमवर्क के साथ जोड़ना जरूरी है। ऐसे उपायों को बड़े पैमाने पर लागू करने और एकीकृत वैश्विक समाधान हासिल करने के लिए अंतर-क्षेत्रीय भागीदारी आवश्यक है।
इस मौके पर यूएनसीसीडी साइंस-पॉलिसी इंटरफेस की अध्यक्ष निकोल बार्जर ने कहा, “वैज्ञानिक दशकों से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के गंभीर परिणामों की चेतावनी दे रहे हैं। यह रिपोर्ट वैश्विक स्तर पर समग्र प्रयास और इनोवेशन आधारित समाधान की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करती है। सवाल यह नहीं कि हमारे पास इन समस्याओं के समाधान का तरीका है या नहीं, बल्कि सवाल यह है कि क्या हम समाधान की मंशा रखते हैं?”