एमएसपी में बढ़ोतरी के बावजूद खाद्य उत्पादों के दाम कम रखने का करिश्मा
हमें खाद्य तेलों और दालों में आत्मनिर्भर भी बनना है, लेकिन चुनावी साल में महंगाई ना बढ़ जाए इसलिए किसानों को अधिक दाम मिलने से रोकने के लिए सरकारी विभाग पूरी तरह मुस्तैद हैं।
लोकसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है और ऐसे में सरकार की पुरजोर कोशिश है कि खाद्य उत्पादों की कीमतें नियंत्रण में बनी रहें। खास बात यह है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य सात फीसदी बढ़ने के बाद भी खाद्य उत्पादों की महंगाई दर तीन-साढ़े तीन फीसदी से अधिक नहीं होनी चाहिए। सरकारी अधिकारी इसी कोशिश में जुटे हैं। यह बात अलग है कि सरसों जैसी प्रमुख तिलहन फसल बाजार में आने के दो माह बाद तक सरकारी खरीद नहीं होने से इसकी कीमतें न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे चल रही हैं, वहीं प्याज के निर्यात पर प्रतिबंध को बढ़ा दिया गया है।
पिछले दिनों एक बड़े अधिकारी के लिए यह बात सरदर्द बन गई कि जब एमएसपी में अधिक बढ़ोतरी हुई है तो फिर बाजार में उत्पाद के दाम में कम बढ़ोतरी कैसे हो सकती है। लेकिन सरकार का तो यही मानना है। उसका उपाय गेहूं और चावल के मामले में तो ढूंढ लिया गया है। लगातार एमएसपी के आसपास की कीमत पर खुले बाजार की बिक्री योजना के तहत गेहूं और चावल की नीलामी की जाए। ऐसे में कारोबारी वैसे ही फसलों को खरीदने के लिए बाजार में नहीं आएगा। लेकिन जिस तरह से मध्य प्रदेश में नवंबर और दिसंबर में तापमान सामान्य से अधिक रहा और उसके बाद गेहूं की फसल को ठीक से धूप नहीं मिली, वहां गेहूं की उत्पादकता प्रभावित हुई है। नतीजा मध्य प्रदेश और दूसरे पश्चिमी राज्यों में गेहूं का उत्पादन कम रहने की सूचनाएं आ रही हैं। इसलिए कारोबारियों को गेहूं की खरीद से हतोत्साहित किया जा सकता है। आवश्यक वस्तु अधिनियम का इस्तेमाल भी लगातार हो रहा है। पिछले साल गेहूं के खरीद सीजन के बीच ही स्टॉक लिमिट लागू कर दी गई गई थी। इस तरह के कदम इस साल भी दिख सकते हैं।
वहीं अन्य फसलों में प्याज के निर्यात पर प्रतिबंध जारी है जिसका खामियाजा प्याज उत्पादक किसान भुगत रहे हैं। चीनी के निर्यात पर रोक जारी है और एथेनॉल उत्पादन के लिए सीधे गन्ने का जूस इस्तेमाल करने की सीमा को चालू पेराई सीजन में 17 लाख टन पर ही सीमित रखा गया है। महाराष्ट्र में शुरुआती अनुमानों के मुकाबले अधिक उत्पादन के चलते चीनी उद्योग इस सीमा को बढ़ाने की मांग कर रहा है। ऐसा नहीं होने की स्थिति में उसकी मांग है कि सरकार चीनी का बफर स्टॉक बनाए ताकि किसानों को गन्ना मूल्य भुगतान का संकट पैदा नहीं हो।
खाद्य तेलों की कीमतों को नियंत्रण में रखने के लिए रियायती व शून्य आयात शुल्क पर खाद्य तेलों के आयात की सुविधा को 31 मार्च, 2025 तक जारी रखा गया है। वहीं दालों के आयात के मामले में भी मात्रात्मक प्रतिबंध से 31 मार्च, 2025 तक दालों को मुक्त रखा गया है। वहीं पीली मटर के आयात की भी छूट दे दी गई है। दूसरी ओर मसूर जैसी दाल के दाम एमएसपी से नीचे चल रहे हैं। हालांकि प्राइस सपोर्ट स्कीम (पीएसएस) के तहत दालों की सरकारी खरीद करने के लिए नेफेड को सक्रिय किया गया है। लेकिन एक बड़े मसूर उत्पादक राज्य बिहार ने इसके तहत मसूर की खरीद लिए कोई मात्रा ही केंद्र सरकार को नहीं बताई है जबकि वहां मसूर के दाम एमएसपी से नीचे चल रहे हैं।
गौरतलब है कि बिहार ऐसा राज्य है जहां एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केट कमेटी (एपीएमसी) एक्ट लागू ही नहीं है और वहां इस एक्ट के तहत मंडिया भी काम नहीं करती है। ऐसे में बाजार शक्तिओं के भरोसे रहने वाले बिहार के किसानों की स्थिति किसी से छिपी नहीं है।
इन सबके बीच हमें खाद्य तेलों और दालों में आत्मनिर्भर भी बनना है, लेकिन चुनावी साल में महंगाई ना बढ़ जाए इसलिए किसानों को अधिक दाम मिलने से रोकने के लिए सरकारी विभाग पूरी तरह मुस्तैद हैं। क्योंकि उपभोक्ताओं को अधिक कीमत चुकानी पड़ी तो उसका असर राजनीतिक हो सकता है।