मजबूत होते अल-नीनो प्रभाव का महंगाई पर असर और बढ़ता राजनीतिक जोखिम
महंगाई और राजनीति के बीच एक सीधा रिश्ता है। महंगाई कम हो तो राजनीतिक जोखिम कम होता है लेकिन महंगाई बढ़ने के साथ ही राजनीतिक जोखिम बढ़ जाता है, खासतौर से चुनावी साल में। इसी तरह अल-नीनो का महंगाई के साथ रिश्ता है। मजबूत होता अल-नीनो प्रभाव महंगाई में बढ़ोतरी का कारण बनता है क्योंकि इसका भारत में मानसून की बारिश पर सीधा असर पड़ता है जो इस साल दिख रहा है। अभी तक के जो हालात हैं उसे देख कर लग रहा है कि इस साल का अगस्त बारिश के आंकड़ों की उपलब्धता के समय से अभी तक का सबसे कम बारिश वाला अगस्त होने वाला है। 27 अगस्त तक इस माह में सामान्य से 30.7 फीसदी कम बारिश हुई है। जिसके चलते देश भर में बारिश 27 अगस्त तक दक्षिण पश्चिम मानसून (जून से सितंबर) की बारिश सामान्य से 7.6 फीसदी कम रह गई है। जिसका सीधा असर केवल खऱीफ सीजन ही नहीं बल्कि रबी सीजन की फसलों के उत्पादन पर भी पड़ेगा। यह स्थिति बढ़ती खाद्य महंगाई के कारण केंद्र की मोदी सरकार के लिए राजनीतिक जोखिम को बढ़ाने वाली साबित हो सकती है। इस साल पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव हैं और 2024 के अप्रैल-मई में लोक सभा के चुनाव होने हैं
महंगाई और राजनीति के बीच एक सीधा रिश्ता है। महंगाई कम हो तो राजनीतिक जोखिम कम होता है लेकिन महंगाई बढ़ने के साथ ही राजनीतिक जोखिम बढ़ जाता है, खासतौर से चुनावी साल में। इसी तरह अल-नीनो का महंगाई के साथ रिश्ता है। मजबूत होता अल-नीनो प्रभाव महंगाई में बढ़ोतरी का कारण बनता है क्योंकि इसका भारत में मानसून की बारिश पर सीधा असर पड़ता है जो इस साल दिख रहा है। अभी तक के जो हालात हैं उसे देख कर लग रहा है कि इस साल का अगस्त बारिश के आंकड़ों की उपलब्धता के समय से अभी तक का सबसे कम बारिश वाला अगस्त होने वाला है। 27 अगस्त तक इस माह में सामान्य से 30.7 फीसदी कम बारिश हुई है। जिसके चलते देश भर में बारिश 27 अगस्त तक दक्षिण पश्चिम मानसून (जून से सितंबर) की बारिश सामान्य से 7.6 फीसदी कम रह गई है। जिसका सीधा असर केवल खऱीफ सीजन ही नहीं बल्कि रबी सीजन की फसलों के उत्पादन पर भी पड़ेगा। यह स्थिति बढ़ती खाद्य महंगाई के कारण केंद्र की मोदी सरकार के लिए राजनीतिक जोखिम को बढ़ाने वाली साबित हो सकती है। इस साल पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव हैं और 2024 के अप्रैल-मई में लोक सभा के चुनाव होने हैं।
अब बात अल-नीनो की। अमेरिकी नेशनल ओशनिक एंड एटमोस्फिरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) के आंकड़ों के मुताबिक ओशनिक नीनो इंडेक्स (ओएनआई) एक डिग्री पर पहुंच गया है। यह पूर्वी सेंट्रल इक्वेटोरियल पेसिफिक क्षेत्र में समुद्र की सतह के तापमान के सामान्य से अधिक होने के स्तर को दर्शाता है। ओएनआई का एक डिग्री होने का मतलब है कि यह अल-नीनो के प्रभाव के स्तर 0.5 डिग्री से दोगुना है। अप्रैल में ही एनओएए ने अल नीनो के प्रभाव के बढ़ने का आकलन जारी किया था। उस समय रूरल वॉयस ने इस बारे में रिपोर्ट की थी और इसके मानसून पर प्रतिकूल असर का अंदेशा जताया था जो अब सही साबित हो रहा है। एनओएए ने ओएनआई के अक्तबूर से दिसंबर के दौरान 1.5 डिग्री और मार्च-अप्रैल, 2024 में एक डिग्री पर रहने का अनुमान जारी किया है। यानी दक्षिण पश्चिम मानसून को प्रभावित करने के बाद यह दक्षिण पूर्व मानसून पर भी प्रतिकूल असर डाल सकता है। जो देश में रबी सीजन की फसलों के उत्पादन पर भी प्रतिकूल असर डाल सकता है।
दूसरी ओर चालू खरीफ सीजन में फसलों की बुआई का क्षेत्रफल जुलाई में बेहतर बारिश के चलते तेजी से बढ़ा है। लेकिन कुल क्षेत्रफल सामान्य से कम रहा है। साथ ही बाढ़ के चलते पंजाब और हरियाणा में करीब एक लाख हैक्टेयर क्षेत्रफल में धान की दोबारा रोपाई करनी पड़ी है। वहीं दालों का क्षेत्रफल पिछले साल से करीब दस लाख हैक्टेयर कम बना हुआ है। दक्षिणी व पश्चिमी राज्यों में अगस्त माह में कम बारिश के चलते वहां खरीफ की फसलों के उत्पादन पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। दूसरी ओर कम बारिश के चलते 24 अगस्त तक देश भर के 146 रिजरवायर्स में पानी का स्तर पिछले साल से 21.4 फीसदी कम और दस साल के औसत स्तर से 6.1 फीसदी कम है। इस स्थिति के चलते रबी सीजन की फसलों की सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता कम रहेगी। अगर अगले एक माह में बारिश कम रहती है तो महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे राज्यों को पीने के पानी और सिंचाई के पानी के बीच के बीच संतुलन बनाना होगा।
बारिश में कमी के अलावा सरकार की एक बड़ी चिंता यह है कि दो साल में गेहूं की सरकारी खरीद कम रहने के चलते केंद्रीय पूल में एक अगस्त को खाद्यान्नों का कुल स्टॉक 655 लाख टन था जो पिछले छह साल का सबसे कम स्तर है।
जुलाई में खुदरा महंगाई का स्तर 15 माह में सबसे अधिक रहा और खाद्य महंगाई दर 11.5 फीसदी पर पहुंच गई। यह महंगाई गेहूं, चावल, चीनी, फल, सब्जियों और दालों के दाम बढ़ने के चलते इस स्तर पर पहुंची है।
यही वजह है कि सरकार खाद्य महंगाई पर अंकुश लगाने के लिए ताबड़तोड़ फैसले कर रही है। पिछले साल 13 मई, 2022 को गेहूं के निर्यात पर रोक लगाने से लेकर चीनी के निर्यात को मुक्त से रेस्ट्रिक्टेड सूची में डालने, ब्रोकन राइस के निर्यात पर रोक लगाने और गैर-बासमती व्हाइट राइस पर 20 फीसदी निर्यात शुल्क लगाने के बाद इस साल जून में गेहूं पर स्टॉक लिमिट लागू करना, उसके बाद प्याज के निर्यात पर 40 फीसदी शुल्क लगाने के साथ ही गैर-बासमती व्हाइट राइस के निर्यात पर रोक लगाने के बाद सेला चावल के निर्यात पर 20 फीसदी शुल्क लगाने और बासमती चावल के निर्यात के लिए 1200 डॉलर से अधिक की कीमत की शर्त लागू करने जैसे फैसले लिये ताकि देश से चावल निर्यात पर अंकुश लगाया जा सके। वहीं अरहर और उड़द दालों पर भी स्टॉक लिमिट पहले ही लागू की जा चुकी है। यह सब कदम बताते हैं कि सरकार खाद्य महंगाई के राजनीतिक नुकसान से बचना चाहती है।
महंगाई और राजनीतिक फायदे नुकसान के पुराने अनुभव मोदी सरकार को सचेत कर रहे हैं। केंद्र की यूपीए-दो सरकार के आखिरी दिनों और 2014 के अप्रैल-मई माह में हुए चुनावों की एक साल की अवधि में महंगाई दर का औसत 11.1 फीसदी रहा रहा था। जबकि मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के अंतिम दिनों और अप्रैल-मई 2019 में हुए चुनावों को दौरान एक साल की अवधि में महंगाई दर का औसत स्तर 0.4 फीसदी रहा था। दोनों चुनावों के नतीजे हमारे सामने हैं। जहां 2014 में यूपीए-दो के बाद चुनावों में कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए गठबंधन को हार का सामना करना पड़ा। वहीं कमजोर महंगाई दर का 2019 में मोदी के नेतृत्व वाले एनडीए को चुनावी फायदा मिला और उसकी सत्ता में वापसी हुई।
यही वजह है कि तेजी से बढ़ती खाद्य महंगाई के राजनीतिक जोखिम को समझते हुए भारतीय जनता पार्टी के नेतृव वाली केंद्र सरकार खाद्य महंगाई पर अंकुश लगाने के लिए तमाम जरूरी कदम उठाने की कोशिश करती दिख रही है। लेकिन इसमें वह कितनी कामयाब होगी अभी कहना मुश्किल है। इसमें सबसे बड़ी बाधा अन-नीनो के मजबूत होते असर के चलते मानसून पर पड़ रहा प्रतिकूल असर है। अगर खरीफ सीजन में उत्पादन में कमी आती है तो खाद्य महंगाई सबसे बड़ा राजनीतिक जोखिम बन कर उभरेगी क्योंकि जनमानस में महंगाई एक बड़ी समस्या के रूप में दिखने लगी है।