प्रतिष्ठित विशेषज्ञों के लेखों के संकलन के साथ रूरल वॉयस का विशेष संस्करण
डिजिटल खबरों का प्लेटफॉर्म रूरल वॉयस मुख्य रूप से कृषि और ग्रामीण क्षेत्र पर फोकस करता है। यह हिंदी और अंग्रेजी भाषाओं में ‘भारत’ यानी कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था से संबंधित खबरों के साथ विश्लेषण भी प्रकाशित करता है। रूरल वॉयस की दूसरी वर्षगांठ के अवसर पर आयोजित एग्रीकल्चर कॉन्क्लेव में रूरल वॉयस के एक विशेष प्रिंट संस्करण का विमोचन किया गया। अंग्रेजी और हिंदी भाषाओं में अलग-अलग क्षेत्र के विशेषज्ञों के आलेख के साथ यह संस्करण अपने आप में संग्राहक संस्करण बन गया है रूरल वॉयस का कंटेंट टेक्स्ट, ऑडियो और वीडियो तीनों रूप में होता है
रूरल वॉयस का लक्ष्य कृषि और ग्रामीण क्षेत्र को आवाज देना है। यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था से जुड़े सभी पक्षों को सूचनाएं उपलब्ध कराने के साथ उन्हें सशक्त भी बनाता है। दरअसल इस समय कृषि वैज्ञानिकों, शोधकर्ताओं इनपुट इंडस्ट्री और कृषक समुदाय के बीच सूचनाओं को साझा करने की बेहद जरूरत है। इस मामले में न्यू मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म का प्रयोग एक मजबूत माध्यम बन सकता है। रूरल वॉयस बढ़ते मोबाइल इंटरनेट की पहुंच को वास्तविक अर्थों में सार्थक बनाते हुए अपने लक्षित वर्ग के लिए खबरों और विश्लेषण के जरिये सूचनाओं को पहुंचाने का काम कर रहा है।
इस प्रयास को आगे बढ़ाने के दृष्टिकोण के साथ रूरल वॉयस की दूसरी वर्षगांठ के अवसर पर आयोजित एग्रीकल्चर कॉन्क्लेव में रूरल वॉयस के एक विशेष प्रिंट संस्करण का विमोचन किया गया। अंग्रेजी और हिंदी भाषाओं में अलग-अलग क्षेत्र के विशेषज्ञों के आलेख के साथ यह संस्करण अपने आप में संग्राहक संस्करण बन गया है।
अपनी संपादकीय टिप्पणी में रूरल वॉयस के एडिटर इन चीफ हरवीर सिंह ने सही लिखा है कि गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध से किसानों को बड़ा नुकसान हुआ। उन्होंने लिखा है कि कृषि और खाद्य मंत्रालयों के बीच समन्वय का नितांत अभाव है, जिसका नतीजा उत्पादन में गिरावट और सरकारी खरीद में कमी के रूप में सामने आया। गेहूं किसानों को इससे अच्छी कीमत नहीं मिल सकती थी। यही नहीं, निर्यात पर प्रतिबंध से एक भरोसेमंद निर्यातक के रूप में भारत की छवि को भी नुकसान पहुंचा है। उन्होंने इस बात का भी जिक्र किया है कि कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए सरकार जो तीन कृषि कानून लेकर आई उस पर उसे यू टर्न लेना पड़ा।
केंद्र सरकार के खाद्य एवं कृषि मंत्रालय के पूर्व सचिव नंदकुमार ने ‘भारत को अपनी जरूरतों के मुताबिक खाद्य प्रणाली की जरूरत’ शीर्षक से अपने आलेख में सही लिखा है कि भारत को एक अलग तरह के फूड सिस्टम अप्रोच की जरूरत है। अभी खाद्य सुरक्षा की पहल सघन उत्पादन, व्यापक खरीद और सक्षम वितरण पर आधारित है। उनका कहना है कि जिस तरह कोई एक ग्लोबल सिस्टम पूरी दुनिया के लिए कारगर नहीं हो सकता उसी तरह समस्त भारत के लिए भी कोई एक सिस्टम कारगर नहीं होगा। भारत की खाद्य प्रणाली उत्पादन, खपत, व्यापार के साथ सांस्कृतिक और पर्यावरण संबंधी चुनौतियों के लिहाज से अलग है। उनका सुझाव है कि भारत की खाद्य प्रणाली को दूसरे देशों के बेस्ट प्रैक्टिस को अपनाने तथा उन्हें अपनी क्षेत्रीय जरूरतों के अनुरूप ढालने की जरूरत है।
जीसीएमएमएफ (अमूल) के एमडी और इंडियन डेयरी एसोसिएशन के प्रेसिडेंट डॉ. आर एस सोढ़ी ने ‘दुनिया की डेयरी भारत’ में लिखा है कि भारत में दूध उत्पादन का कुल मूल्य गेहूं, धान और दालों के कुल उत्पादन मूल्य से अधिक हो गया है। अन्य अनेक क्षेत्रों के साथ डेयरी सेक्टर में भी भारत आत्मनिर्भर हुआ है। उन्होंने लिखा है कि भारत प्रोफेशनल विशेषज्ञों और नवीनतम मैन्युफैक्चरिंग टेक्नोलॉजी की मदद से आपने आपको दुनिया की डेयरी के रूप में स्थापित कर सकता है। भारत न सिर्फ दुनिया का सबसे बड़ा डेयरी उत्पादक रहेगा बल्कि इस सेक्टर के माध्यम से भारतीय डेयरी किसानों के लिए संपन्नता भी लेकर आएगा।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र के रिटायर्ड प्रोफेसर अरुण कुमार ने अपने लेख ‘हाशिए पर रखी गई भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था और इसकी चुनौतियां’ में लिखा है कि कृषि क्षेत्र में लोगों को रोजगार देने की लोचता शून्य रह गई है। गैर कृषि क्षेत्र में नौकरियों की संख्या सीमित है इसलिए लोग वहीं फंस कर रह गए हैं। इसका नतीजा बड़े पैमाने पर ‘प्रच्छन्न बेरोजगारी’ है। इससे गरीबी और बढ़ती है क्योंकि निर्भरता अनुपात बढ़ जाता है। आजादी के बाद से कृषि क्षेत्र के सरप्लस का इस्तेमाल शहरीकरण और उद्योगीकरण के लिए किया जाता रहा। किसान के लिए व्यापार के नियम कभी अनुकूल नहीं रहे। शहरीकरण और उद्योगीकरण दोनों काफी खर्चीले हैं, इसलिए ग्रामीण क्षेत्र के लिए बहुत कम संसाधन रह जाते हैं जिसका नतीजा उन्हें भुगतना पड़ता है।
जेएनयू के स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज में सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज एंड प्लानिंग के प्रोफेसर डॉ विश्वजीत धर का आलेख ‘जी 20 कृषि में भारत की प्राथमिकताएं’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। उन्होंने लिखा है कि भारत को जी-20 की अध्यक्षता मिली है, ऐसे में भारत के सामने प्रमुख एजेंडा खाद्य पदार्थों, उर्वरकों और चिकित्सा सामग्री की ग्लोबल सप्लाई सुनिश्चित करना होगी होगा।
तास के चेयरमैन, आईसीएआर के पूर्व डीजी, डीएआरई के पूर्व सचिव और इंडियन साइंस कांग्रेस के पूर्व प्रेसिडेंट डॉ आर एस बरोदा ने जीएम सरसों पर अपने आलेख में लिखा है कि जीएम सरसों, जीएम सोयाबीन और जीएम मक्का का उत्पादन इन फसलों की उत्पादकता बढ़ाने के साथ किसानों की आमदनी दोगुनी करने की दिशा में प्रगतिशील कदम होगा।
खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय और कृषि मंत्रालय के पूर्व सचिव सिराज हुसैन ने ‘खाद्य पदार्थों के नुकसान और इनकी बर्बादी से बढ़ती खाद्य सुरक्षा’ शीर्षक से प्रकाशित अपने आलेख में लिखा है कि खाद्य पदार्थों का नुकसान और इनकी बर्बादी कम करने के लिए ज्यादातर राज्यों में वेयरहाउसिंग की क्वालिटी सुधारने की जरूरत है। उनका कहना है कि सरकारी नीतियों और पहलों से खाद्य पदार्थों का नुकसान कम करने में मदद मिल सकती है लेकिन इनकी बर्बादी कम करने के लिए आम लोगों को ही कदम उठाने पड़ेंगे।
लीगल रिसर्च और नीति विश्लेषक सुश्री शालिनी भूटानी ने ‘एफटीए, ग्रामीण भारत और किसान’ शीर्षक से प्रकाशित अपने लेख में एफटीए का जिक्र करते हुए लिखा है कि भारत जिन देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौते के लिए बातचीत कर रहा है, वहां ना तो ग्रामीण आबादी अधिक है ना ही छोटे किसान जिनकी भारत की तरह उन्हें चिंता करनी पड़े। 2011 की जनगणना के अनुसार 83.3 करोड़ भारतीय ग्रामीण इलाकों में रहते हैं। यह देश के कुल आबादी के दो तिहाई से भी अधिक है। देश में किसानों की वास्तविक संख्या को लेकर बहस जरूर है फिर भी 2011 की जनगणना के आधार पर कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय का दावा है कि भारत की 54.6 फ़ीसदी आबादी कृषि और इससे जुड़ी गतिविधियों पर निर्भर है। इसलिए व्यापार नीति में यह सुनिश्चित होना चाहिए कि मुक्त व्यापार समझौते से यहां के बहुसंख्यक लोगों को नुकसान ना हो।
सहकार भारती के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. डी एन ठाकुर ने ‘कोऑपरेटिव के जरिए खाद्य प्रणाली प्रबंधन’ शीर्षक से प्रकाशित अपने लेख में लिखा है कि देश के हर गांव को आत्मनिर्भर सहकार ग्राम की दिशा में बढ़ने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। ‘सहकार ग्राम’ की अवधारणा कृषि विकास और खाद्य प्रबंधन के गुरुत्व बल को बदलकर गांवों और किसानों तक ले जाने से जुड़ी है। किसानों को अपने प्राकृतिक और आर्थिक संसाधनों की पूलिंग करने के लिए प्रोत्साहित किया जाए ताकि उन संसाधनों का प्रभावी और सस्टेनेबल इस्तेमाल हो सके, उन्हें संरक्षित रखा जा सके। जमीन, पानी और मवेशी जैसे संसाधनों का तार्किक और सक्षम प्रबंधन यह सुनिश्चित करेगा कि कोई बर्बादी ना हो और रासायनिक इनपुट का प्रयोग तभी हो जब दूसरा कोई विकल्प ना रहे।
इंडियन इकोनामिक सर्विस के पूर्व अधिकारी और कृपा फाउंडेशन के प्रेसिडेंट डॉ. महिपाल ने लिखा है कि एक प्रभावी गवर्नेंस के लिए स्थानीय स्तर पर कायम विसंगतियों को दूर करने की जरूरत है। ऐसा शीर्ष से लेकर निम्न स्तर तक करना पड़ेगा, वरना स्थानीय स्तर पर सभी कार्य जस के तस चलते रहेंगे।
सीनियर इकोनॉमिक जर्नलिस्ट प्रकाश चावला का आलेख ‘कठिन आर्थिक परिस्थितियों में कृषि क्षेत्र का भरोसा’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। इसमें उन्होंने ग्लोबल सप्लाई चेन पर कोविड-19 महामारी और यूक्रेन रूस युद्ध के विपरीत असर का उल्लेख किया है। उनका कहना है कि विपरीत परिस्थितियों में दो वजहों से भारत अपनी स्थिति को मजबूत बनाए रखने में कामयाब रहा- यहां का सर्विस सेक्टर और कृषि क्षेत्र। उन्होंने लिखा है कि कृषि क्षेत्र का प्रभाव ट्रांसपोर्ट, ऑटोमोबाइल, केमिकल जैसे दूसरे क्षेत्रों पर भी पड़ता है क्योंकि खेती अच्छी होने पर इन सेक्टर में भी मांग निकलती है।
रूरल वॉयस का यह विशेष संस्करण इसकी दूसरी वर्षगांठ पर आयोजित ‘एग्रीकल्चर कॉन्क्लेव और नेकॉफ अवॉर्ड्स 2022’ के मौके पर जारी किया गया। किसान दिवस, 23 दिसंबर को इसका आयोजन नई दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर में किया गया था। इस कार्यक्रम में अनेक कृषि विशेषज्ञ, कृषि विज्ञानी, किसान प्रतिनिधि, राजनीतिक नेता और पत्रकार उपस्थित थे।