राजकोषीय संघवाद में पंचायतों का स्थान क्या है?
सामान्य अर्थों में देखा जाए तो सहकारी संघवाद को केंद्र और राज्यों के बीच, विभिन्न राज्यों के बीच और पंचायती राज संस्थानों के बीच संबंधों को दिशानिर्देशित करना चाहिए। लेकिन ऐसा लगता है कि राजकोषीय संघवाद या सहकारी संघवाद मौजूदा ढांचे में राज्य के स्तर से आगे नहीं बढ़ पाता है
हाल ही 15वें वित्त आयोग के चेयरमैन एन.के. सिंह ने दिल्ली विश्वविद्यालय के दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के सालाना समारोह को मुख्य अतिथि के तौर पर संबोधित किया। उन्होंने कहा, “राजनीतिक लाभ के लिए लोगों को मुफ्त चीजें देने की नई संस्कृति विकसित होने से यह सवाल उठने लगा है कि क्या भारत को राज्यों के दिवालिया होने के कॉन्सेप्ट पर विचार करना चाहिए। केंद्र की शक्ति राज्यों की शक्ति में ही निहित है। इसलिए केंद्र और राज्य दोनों की वृहद आर्थिक स्थिरता में ही भारतीय संघ की स्थिरता निहित है।”
दरअसल, उन्होंने जो कहा उतना पर्याप्त नहीं है। अभी ‘मुफ्त’ की जो प्रतिस्पर्धी राजनीति चल रही है उसे सही अर्थों में प्रतिस्पर्धी बनाने की जरूरत है ताकि लोग ‘वार्डसभा से लेकर लोकसभा’ तक सबमें अपना योगदान कर सकें और उससे लाभान्वित हो सकें। प्रधानमंत्री ने भी संसद में कहा कि वे सहकारी संघवाद में विश्वास करते हैं। सहकारी संघवाद क्या है? सामान्य अर्थों में देखा जाए तो सहकारी संघवाद को केंद्र और राज्यों के बीच, विभिन्न राज्यों के बीच और पंचायती राज संस्थानों के बीच संबंधों को दिशानिर्देशित करना चाहिए। लेकिन ऐसा लगता है कि राजकोषीय संघवाद या सहकारी संघवाद मौजूदा ढांचे में राज्य के स्तर से आगे नहीं बढ़ पाता है।
संविधान का अनुच्छेद 243जी राज्य की विधायिका को यह अधिकार देता है कि वह पंचायतों को ऐसे अधिकार प्रदान करे जिससे वे स्वशासन संस्थान के रूप में कार्य कर सकें। ये संस्थान अपने अधिकारों का इस्तेमाल इस तरह करें कि (1) वे आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिए योजनाएं तैयार कर सकें और (2) आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिए योजनाओं पर अमल कर सकें, जिनमें ग्यारहवीं अनुसूची में शामिल योजनाएं भी हैं। ग्यारहवीं अनुसूची में कृषि से लेकर सामुदायिक संपत्ति की देखरेख तक 29 विषय हैं।
सहकारी संघवाद कैसे स्थापित किया जा सकता है? अभी सरकारें चार स्तर पर काम करती हैं- केंद्र, राज्य, ग्रामीण (पंचायत) और शहरी (निगम)। बेहतर गवर्नेंस के लिए सहकारी संघवाद को एक तरफ केंद्र और राज्यों के बीच संबंधों को निर्देशित करना चाहिए तो दूसरी तरफ विभिन्न राज्यों के बीच तथा पंचायती राज संस्थानों और निगमों के बीच संबंधों को भी। सहकारी संघवाद के तहत विभिन्न स्तरों पर सरकार द्वारा संसाधनों को जुटाना और आम लोगों के हित में उनका इस्तेमाल करना संभव है। लेकिन सहकारी संघवाद एक शाब्दिक आडंबर मात्र बनकर रह गया है। क्योंकि इसके केंद्र में पंचायत नहीं है। देश में लगभग 2.55 लाख पंचायतें हैं जिनमें 31 लाख चुने हुए प्रतिनिधि चेयरपर्सन और सदस्य के रूप में कार्य करते हैं।
सहकारी संघवाद को मजबूत बनाने के लिए राज्य और केंद्र के स्तर पर एक फोरम गठित करने की आवश्यकता है जहां पंचायती राज संस्थानों के प्रतिनिधि सांसदों और विधायकों के साथ वार्ता करें। उदाहरण के लिए गुजरात पंचायत कानून की धारा 266 में पंचायतों के लिए एक राज्य स्तरीय परिषद का प्रावधान है जिसके चेयरमैन पंचायत मंत्री होंगे। यह परिषद पंचायतों को सुझाव देगी और उनके साथ समन्वय स्थापित करेगी। हरियाणा में भी अंतर जिला परिषद के रूप में कुछ ऐसी ही व्यवस्था है, जिसके प्रमुख मुख्यमंत्री हैं।
ग्रामीण स्थानीय सरकार के रूप में कार्य करने के बजाय पंचायती राज संस्थान वास्तव में केंद्र और राज्य सरकार की एजेंसियों के तौर पर काम कर रहे हैं। इनका काम ग्रामीण इलाकों में केंद्र और राज्य की योजनाओं को लागू करना मात्र रह गया है। इन संस्थानों के पास स्थानीय स्तर पर प्राथमिकताएं तय करने की आजादी नहीं होती है।
केंद्रीय वित्त आयोग ने केंद्र सरकार से सीधे पंचायतों को फंड ट्रांसफर करने की सिफारिश की है। लेकिन यहां भी मुद्दा यह है कि फंड खास योजनाओं से जुड़े होते हैं अथवा उनके इस्तेमाल करने के लिए पंचायतों पर अनेक शर्तें थोप दी जाती हैं। उदाहरण के लिए 15वें वित्त आयोग ने जो कुल ग्रांट की सिफारिश की है उसका 60 फ़ीसदी पेयजल, रेन वाटर हार्वेस्टिंग और वॉटर रीसाइकलिंग, स्वच्छता और ओडीएफ स्टेटस को बरकरार रखने, घरेलू कचरा के प्रबंधन एवं उनके निस्तारण तथा मानव मल के प्रबंधन से जुड़ा हुआ है।
वित्त आयोग के अनुसार कुल ग्रांट की 40 फ़ीसदी राशि किन्हीं खास कार्यों के लिए नहीं है और उसका इस्तेमाल ग्यारहवीं अनुसूची में शामिल 29 विषयों पर जरूरत के मुताबिक किया जा सकता है। हालांकि इसका इस्तेमाल भी वेतन और अन्य संस्थागत खर्चों में नहीं किया जा सकता। लेकिन सही अर्थों में देखा जाए तो फंड का यह हिस्सा भी सशर्त है क्योंकि इसका इस्तेमाल भी ग्यारहवीं अनुसूची में शामिल 29 विषयों पर ही किया जा सकता है। यानी पंचायत इन विषयों से इतर अन्य कार्यों के लिए उस राशि का इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं।
पंचायती राज संस्थानों को सहकारी संघवाद का महत्वपूर्ण अंग बनाने की जरूरत है, क्योंकि गरीबी दूर करने और लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाने में ग्रामीण सरकारी संस्थानों की अहम भूमिका है। इस संदर्भ में सुभोजित बागची की स्टडी रिपोर्ट (साउदर्न कंफर्टः इंडियाज ग्लोबल पॉवर्टी इंप्रूव्स, हिंदू, कोलकाता, 12 मई 2018) का उल्लेख किया जा सकता है। इस स्टडी में बताया गया है कि भारत में मल्टीडाइमेंशनल गरीबी 2006-07 के 55 फ़ीसदी से घटकर 2015-16 में 21 फ़ीसदी रह गई। इसका प्रमुख कारण दक्षिण भारत के 5 राज्यों केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश का अच्छा प्रदर्शन है।
मल्टीडाइमेंशनल पॉवर्टी इंडेक्स स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन शैली तीन मानकों पर आधारित गरीबी को मापने का अंतरराष्ट्रीय तरीका है। यदि मल्टीडाइमेंशनल पॉवर्टी इंडेक्स के नतीजे को पंचायतों को दिए जाने वाले अधिकारों से मिलाकर देखा जाए तो पता चलता है कि जिन पांच राज्यों में गरीबी में उल्लेखनीय कमी आई उनमें से चार राज्यों में पंचायतों को काफी मजबूत बनाया गया। इससे जाहिर होता है कि पंचायतों को मजबूत बनाने और गरीबी कम करने के बीच सीधा संबंध है। पंचायतों को सशक्त बनाने के पीछे कोविड-19 के दौरान उनकी अहम भूमिका भी एक वजह है।
पंचायतों को सहकारी संघवाद का प्रभावी अंग बनाने के लिए संविधान की सातवीं अनुसूची से एक स्थानीय सूची बनाने की जरूरत है। इस सूची को तीन हिस्से में बांटा जाना चाहिए। पहली ग्राम पंचायत के लिए, दूसरी पंचायतों के मध्यवर्ती स्तर के लिए और तीसरी जिला पंचायतों के लिए। इससे देश में सहकारी संघवाद और गहरा होगा।
(लेखक इंडियन इकोनॉमिक सर्विस के पूर्व अधिकारी हैं)