आम होती महंगाई से कृषि कारोबार के उदारीकरण का सपना बिखरा
जहां इस साल चार महत्वपूर्ण राज्यों में विधान सभा चुनाव हैं और करीब आठ माह बाद लोक सभा चुनाव हैं, तो सरकार खाद्य महंगाई को नियंत्रित करने के लिए जूझ रही है, जो एक या दो उत्पादों तक सीमित रहने की बजाय आम होती जा रही है। ऐसे में राजनीतिक जोखिम भी बढ़ गया है। इसलिए जिस भारतीय जनता पार्टी को बाजार की उदारीकृत नीतियों का समर्थक माना जाता है, वह कीमतों को नियंत्रित करने के लिए बाजार नियंत्रण की नीति पर अमल कर रही है। भले वह घरेलू बाजार हो या वैश्विक बाजार, दोनों मोर्चों पर यह नियंत्रण बढ़ रहा है।
सरकार ने साल 2020 में जब कृषि क्षेत्र के उत्पादों के कारोबार को आर्थिक सुधारों का जामा पहनाते हुए तीन कृषि कानूनों को लागू करने का फैसला लिया तो शायद उसे दूर-दूर तक इस बात की उम्मीद नहीं थी कि तीन साल के भीतर ही देश में कृषि उत्पादों के कारोबार को नियंत्रित करने के लिए आवश्यक वस्तु अधिनियम (ईसीए) जैसे सख्त कानून के प्रावधानों को लागू करना पड़ेगा। साथ ही खाद्यान्नों और चीनी के रिकॉर्ड उत्पादन के बावजूद गेहूं, चावल और चीनी जैसे कृषि उत्पादों के निर्यात को प्रतिबंधित करना पड़ेगा। लेकिन साल 2023 में यह बात हकीकत है और उसकी वजह है महंगाई का आम हो जाना।
उपभोक्ता हितों को संरक्षित करने के लिए सरकार पिछले साल से लगातार कदम उठा रही है ताकि खाने-पीने की वस्तुओं की कीमतें नियंत्रित रहें, लेकिन फिलहाल जो स्थिति है वह सरकार के कदमों के बहुत प्रभावी होने की पुष्टि नहीं करती। बात केवल एक वस्तु की महंगाई की नहीं है, अब खाद्य महंगाई आम हो चली है, खाने-पीने की किसी भी वस्तु की आप बात कर लें सब महंगे हो चुके हैं। यही वह स्थिति है जो सरकार के साथ-साथ भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के लिए भी चिंता का सबब है। अगर बात एक खाद्य उत्पाद की हो तो उसको लेकर सरकार और आरबीआई को बहुत चिंतित नहीं होना पड़ता, क्योंकि उसका आम लोगों पर बहुत असर नहीं पड़ता है। लेकिन जब गेहूं, चावल, आटा, दाल, टमाटर, चीनी, प्याज और तमाम सब्जियों और फलों की कीमतों में तेजी का दौर हो तो उन पर बहुत तेजी से नियंत्रण करना एक टेढ़ा काम है। इस स्थिति का राजनीतिक नुकसान भी बड़ा होता है। यहां पर सरकार को उपभोक्ता और उत्पादक (यहां उत्पादक से तात्पर्य किसान से है) के बीच संतुलन बनाना भी मुश्किल काम है। हालांकि उत्पादक भी कई उत्पादों का उपभोक्ता है।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, पिछले फसल सीजन (2022-23) में देश में गेहूं का रिकॉर्ड 11.23 करोड़ टन का उत्पादन हुआ। चावल का भी रिकॉर्ड उत्पादन हुआ। इसके बावजूद, सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, पिछले एक साल में आटा का औसत दाम 30 रुपये से 35 रुपये किलो हो गया। इसी अवधि में चावल का औसत दाम 34 रुपये किलो से बढ़कर 40 रुपये किलो हो गया। दालों की कीमतों में भी लगातार बढ़ोतरी हो रही है। सरकार के पास चना का भारी भंडार होने के बावजूद पिछले दस दिन में 10 रुपये महंगा होकर इसका दाम 50 रुपये किलो को पार कर गया है। हालांकि, यह अभी न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से कम है, लेकिन इसमें बढ़ोतरी होना इस बात का संकेत है कि यह और महंगा होगा।
जून में महाराष्ट्र की लासलगांव मंडी में प्याज का दाम 13.5 रुपये किलो था लेकिन अब यह 22 रुपये प्रति किलो पर पहुंच गया है। कर्नाटक की कोलार मंडी में टमाटर का दाम जरूर 100 रुपये किलो से घटकर 35 रुपये किलो रह गया है। लेकिन टमाटर की कम होती महंगाई की जगह को प्याज की महंगाई भर देगी। प्याज के दाम में वृद्धि शुरू हो चुकी है। एक हफ्ते पहले तक 25-30 रुपये बिकने वाला प्याज खुदरा बाजार में 40 रुपये प्रति किलो पर पहुंच गया है। जीरा ने 60 हजार रुपये प्रति क्विटंल का रिकॉर्ड बनाया है, तो अदरक की कीमत भी 800 रुपये प्रति किलो को पार कर गई है। वैसे हरी मिर्च की कीमत भी 200 रुपये किलो को पिछले दिनों पार कर गई। यानी आम खाद्य उत्पादों के साथ मिर्च-मसाला की महंगाई भी आम आदमी को परेशान कर रही है। हां, खाद्य तेलों के मामले में रिकॉर्ड आयात और रियायती आयात शुल्क ने उपभोक्ताओं को राहत जरूर दी। लेकिन देश की करीब 65 फीसदी खाद्य तेल जरूरत आयात से पूरी होती है और इस मोर्चे पर आत्मनिर्भरता में मदद करने वाले किसान को इस साल के रबी मार्केटिंग सीजन में सरसों न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से कम कीमत पर बेचनी पड़ी। कुछ राज्यों में प्राइस सपोर्ट स्कीम (पीएसएस) के तहत नेफेड के जरिये किसानों से एमएसपी पर सरसों की खरीद जरूर हुई, लेकिन बड़े पैमाने पर किसानों को सरसों की एमएसपी नहीं मिली।
ऐसा नहीं है कि सरकार ने खाद्य महंगाई को नियंत्रित करने लिए काम नहीं किया। पिछले साल सरकारी खरीद में गेहूं की खरीद में भारी गिरावट के चलते रबी मार्केटिंग सीजन के बीच ही 13 मई, 2022 को गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। उसके कुछ माह बाद सितंबर, 2022 में ब्रोकन राइस के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और गैर बासमती चावल के निर्यात पर 20 फीसदी निर्यात शुल्क लगा दिया था। चीनी के निर्यात को फ्री एक्सपोर्ट से बदलकर कर रेस्ट्रिक्टिव कर दिया गया। उसके बाद अप्रैल, 2023 में निर्यात कोटा पूरा होते ही नया कोटा जारी करने पर रोक लगा दी यानि निर्यात पर रोक लग गई।
इस बीच तुअर (अरहर) और उड़द दाल पर स्टॉक लिमिट लागू की गई। साथ ही इसके स्टॉक की नियमित जानकारी सरकार को देने का नियम लागू कर दिया गया। इसके लिए आवश्यक वस्तु अधिनियम का उपयोग किया गया। उसके बाद 12 जून, 2023 को गेहूं पर स्टॉक लिमिट लागू कर दी गई जो 31 मार्च, 2024 तक जारी रहेगी। वहीं 20 जुलाई से गैर-बासमती सफेद चावल (व्हाइट राइस) के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इन सब उपायों के बावजूद चावल, आटा, दाल और चीनी की कीमतें बढ़ रही हैं। पिछले साल दूध की कीमतों में जो बढ़ोतरी हुई, वह इससे अलग है। सब्जियों और फलों की कीमतों ने नए रिकॉर्ड बनाये हैं। हां, केवल आलू और आम इस साल महंगाई के मोर्चे पर राहत देने वाले रहे हैं।
अब मसला ऐसा है कि भले ही रिजर्व बैंक ने 10 अगस्त, 2023 को जारी मौद्रिक नीति समीक्षा में लगातार तीसरी बार नीतिगत ब्याज दरों को स्थिर रखा हो, लेकिन वह भी इस महंगाई को ठीक से नहीं समझ पा रहा है। यही वजह है कि नीतिगत ब्याज दरों को स्थिर रखने के साथ ही रिजर्व बैंक गर्वनर महंगाई पर भी चिंता जताते हैं और रिजर्व बैंक महंगाई के अपने पुराने अनुमान को बढ़ा देता है।
बात केवल आंकड़ों की नहीं, माहौल की भी है। कोविड के दौरान एक ऐसा समय था जब केंद्रीय पूल में खाद्यान्न भंडार उफन रहे थे जिसके चलते सरकार ने 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज दिया और उसने महंगाई में कमी लाने का काम किया। उस समय दुनिया के अमीर देश अपने नागरिकों को पैसों से मदद कर रहे थे, जो महंगाई में इजाफा करने वाला कदम था। लेकिन अब हमारे पास उतना स्टॉक नहीं है। केंद्रीय पूल में खाद्यान्न भंडार पांच साल के निचले स्तर पर है। सरकार रिकॉर्ड गेहूं और चावल उत्पादन की बात कर रही है लेकिन बाजार की प्रतिक्रिया सरकारी आंकड़ों के प्रतिकूल है।
बात राजनीतिक नुकसान की भी है। अपने पहले कार्यकाल के बाद मोदी सरकार जब 2019 में चुनाव में गई थी तो महंगाई रिकॉर्ड गिरावट की ओर थी। अब जहां इस साल चार महत्वपूर्ण राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं और करीब आठ माह बाद लोकसभा चुनाव हैं, तो सरकार खाद्य महंगाई को नियंत्रित करने के लिए जूझ रही है, जो एक या दो उत्पादों तक सीमित रहने की बजाय आम होती जा रही है। ऐसे में राजनीतिक जोखिम भी बढ़ गया है। इसलिए जिस भारतीय जनता पार्टी को बाजार की उदारीकृत नीतियों का समर्थक माना जाता है, वह कीमतों को नियंत्रित करने के लिए बाजार नियंत्रण की नीति पर अमल कर रही है। भले वह घरेलू बाजार हो या वैश्विक बाजार, दोनों मोर्चों पर यह नियंत्रण बढ़ रहा है।
असल में भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देश के लिए खाद्य उत्पादों के कारोबार का उदारीकरण करने की सीमा है, क्योंकि जहां अभी भी कृषि उत्पादन के मामले में मानसून पर काफी निर्भरता है, वहीं सरकारी दावों के बावजूद उत्पादन के आंकड़ों को लेकर सवाल खड़े होते रहते हैं। इसकी प्रतिक्रिया बाजार में कीमतों के रूप में सामने आती है। इसलिए घरेलू बाजार में कीमतों पर नियंत्रण के लिए निर्यात पर प्रतिबंध और आवश्यक वस्तु अधिनियम के जरिये स्टॉक लिमिट और स्टॉक डिक्लेरेशन जैसे कदम सरकारें उठाती रही हैं। मसलन कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के दौरान चीनी निर्यात पर अचानक प्रतिबंध लगा दिया गया था जो कृषि मंत्रालय के गन्ना उत्पादन के आंकड़ों के चलते हुआ था जबकि उत्पादन ज्यादा हुआ और उसके बाद करीब तीन साल तक चीनी की कीमतों में भारी गिरावट के चलते चीनी मिलों और किसानों को संकट का सामना करना पड़ा।
उससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत स्टॉक लिमिट लगाने के अधिकार केंद्र के तहत ला दिये थे लेकिन बाद में यूपीए सरकार के दौरान महंगाई बढ़ने के चलते इस आदेश को वापस लेकर राज्यों को अधिकार दिए गए। वैसे, कृषि कारोबार को उदार करने की कवायद आजादी के तुरंत बाद शुरू हो गई थी लेकिन साल भर के भीतर ही नियंत्रण लागू करने पड़े थे। यह सिलसिला आजादी के 76वें साल में भी जारी है।