खाद्य सुरक्षा में आत्मनिर्भर बनाने वाले डॉ. एम एस स्वामीनाथन का देश हमेशा ऋणी रहेगा
देश में ज्यादा पैदावार वाली चावल की किस्मों के विकास को बढ़ावा देने के अलावा डॉ. स्वामीनाथन ने कृषि अनुसंधान, विस्तार और प्रयोगशाला से भूमि अवधारणा को बनाने और मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) प्रणाली और राज्य कृषि विश्वविद्यालयों के नेटवर्क में इन उपायों ने दशकों से बढ़ती खाद्य जरूरतों को पूरा करने के लिए भारतीय कृषि को अच्छी स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया
भारत की 'हरित क्रांति' के शिल्पकारों में से एक डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन का उम्र संबंधी समस्याओं के कारण 98 वर्ष की आयु में 28 सितंबर को चेन्नई में निधन हो गया। बहुआयामी व्यक्तित्व वाले डॉ. मनकोम्बु संबासिवन स्वामीनाथन ने आजादी के बाद भारतीय कृषि क्षेत्र के समग्र विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1987 में उन्हें पहला विश्व खाद्य पुरस्कार मिला जिसे कृषि क्षेत्र में 'नोबेल पुरस्कार' के समकक्ष माना जाता है। भारत सरकार ने भी उन्हें उनके योगदान के लिए पद्म विभूषण पुरस्कार से सम्मानित किया।
विश्व प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक रहे डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन ने तीन दशक पहले चेन्नई में डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन की स्थापना की थी। उनके परिवार में तीन बेटियां- मधुरा, नित्या और सौम्या हैं। पत्नी मीना की पहले ही मृत्यु हो चुकी है। संयोग से डॉ. सौम्या स्वामीनाथन कोविड-19 महामारी के महत्वपूर्ण चरण के दौरान विश्व स्वास्थ्य संगठन की मुख्य वैज्ञानिक थीं और उन्होंने इसका मुकाबला करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
देश में ज्यादा पैदावार वाली गैहूं और चावल की किस्मों के विकास को बढ़ावा देने के अलावा डॉ. स्वामीनाथन ने कृषि अनुसंधान, विस्तार और प्रयोगशाला से खेत तक की अवधारणा को स्थापित करने और मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) और राज्य कृषि विश्वविद्यालयों के नेटवर्क में इन उपायों ने दशकों से बढ़ती खाद्य जरूरतों को पूरा करने के लिए भारतीय कृषि को अच्छी स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया।
संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) ने पर्यावरण के प्रति उनकी चिंताओं के लिए उन्हें 'आर्थिक पारिस्थितिकी का जनक' कहा। उन्होंने 1960 और 1970 के दशक के दौरान चावल और गेहूं की ज्यादा पैदावार वाली किस्मों को विकसित करने और उनको किसानों तक पहुंचाने के कार्यक्रमों का नेतृत्व किया था। उस समय भारत मुश्किल खाद्य स्थिति से जूझ रहा था और भोजन की समस्या बहुत विकट थी। इस चुनौती से निपटने के लिए भारत सरकार ने तत्कालीन कृषि मंत्री सी. सुब्रमण्यन के नेतृत्व में डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन, डॉ. डी.एस. अटवाल,नोबल पुरस्कार विजेता कृषि वैज्ञानिक डॉ. नॉर्मन बोरलॉग और अन्य भारतीय कृषि वैज्ञानिकों का एक समर्पित दल तैयार किया। पीएल-480 के जरिये अमेरिका की सहायता से उन्होंने 1960 के दशक के अंत में संगठित रणनीति को अमलीजामा पहनाया जिसे 'हरित क्रांति' का नाम दिया गया। इसने देश को संभावित अकाल से बाहर निकाला और अगले कुछ दशकों में देश की खाद्य आत्मनिर्भरता को आगे बढ़ाया। वर्ष 2000 के बाद से भारत कई कृषि उत्पादों का बड़ा निर्यातक है जो इस उल्लेखनीय प्रयास का प्रमाण है।
7 अगस्त, 1925 को तमिलनाडु के कुंभकोणम जिले में एक मध्यवर्गीय परिवार में जन्मे डॉ. स्वामीनाथन 1940 के दशक की शुरुआत में बंगाल के अकाल की भयावहता से प्रभावित हुए थे। माता-पिता की डॉक्टर बनने की इच्छा के विपरीत वह खेती की ओर आकर्षित हुए।
भारत की हरित क्रांति के वास्तुकारों में से एक डॉ. स्वामीनाथन से 1983 में मेरी पहली मुलाकात हुई थी। तब मैं प्रशिक्षु के रूप में न्यूज एजेंसी पीटीआई से जुड़ा था। पीटीआई ज्वॉइन करने के कुछ ही हफ्तों बाद अप्रैल 1983 में उनसे मुलाकात हुई थी। दिलचस्प बात यह है कि डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन पहले शीर्ष वैज्ञानिक थे जिनका इंटरव्यू लेने का मौका मुझे करियर की शुरुआत में ही मिल गया था। मैं उनकी आसानी से उपलब्धता, संचार कौशल और सरल शैली में समझाने की क्षमता से प्रभावित हुआ था। इससे मुझे भी एक अच्छी स्टोरी मिल गई थी।
अगले तीन दशकों में अनगिनत मौकों पर उनसे मुलाकात हुई और मैने उन्हें कवर किया। डॉ. स्वामीनाथन को 40 से अधिक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिले हैं। कुछ साल पहले 93 वर्ष की आयु में उन्हें भारतीय खाद्य एवं कृषि परिषद द्वारा स्थापित प्रथम विश्व कृषि पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा पुरस्कार हो जो डॉ. स्वामीनाथन को न मिला हो। रमन मैग्सेसे पुरस्कार और अल्बर्ट आइंस्टीन पुरस्कार उनकी अन्य उल्लेखनीय उपलब्धियां हैं।
पिछले 50 वर्षों में भारत की सभी कृषि नीतियों पर उनकी छाप दिखती है। भारतीय कृषि की दिशा पर उन्होंने अनगिनत रिपोर्टें लिखीं और कई समितियों की उन्होंने अध्यक्षता की। कई राज्य सरकारों ने उन्हें अपना सलाहकार बनाया। वह हमेशा एक फील्ड मैन थे जो वैज्ञानिकों का नेतृत्व करते थे और सर्वोत्तम प्रथाओं को लागू करने और सीखने के लिए खेतों में किसानों का अनुसरण करते थे।
डॉ. स्वामीनाथन वैश्विक कृषि क्षेत्र में भी एक अग्रणी व्यक्ति थे। वह फिलीपींस के मनीला स्थित अंतर्राष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान (आईआरआरआई) के निदेशक बने। उन्होंने कई भारतीय वैज्ञानिकों के लिए भी उस संस्थान से जुड़ने का मार्ग प्रशस्त किया। उन्हें अंतर्राष्ट्रीय कृषि नेटवर्क और संस्थानों से कई वैश्विक सहयोग और आर्थिक सहयोग मिले। चेन्नई स्थित उनका एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन सरकार और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों से मिले आर्थिक सहयोग की बदौलत आकार, गतिविधि और पहुंच में काफी आगे बढ़ गया है। ग्रामीण, आदिवासी और वंचित क्षेत्रों में, विशेष रूप से खेती और पारिस्थितिक चिंताओं के साथ आजीविका में इस फाउंडेशन के योगदान की व्यापक रूप से सराहना की जाती है।
डॉ. स्वामीनाथन का विवादों से भी गहरा नाता रहा है। आनुवंशिक अनुसंधान पर उनके विचारों पर मिश्रित प्रतिक्रियाएं देखने को मिली। उनके नेतृत्व में आईसीएआर और आईएआरआई में कठिन समय के दौरान युवा कृषि वैज्ञानिकों के बीच कुछ समय के लिए निराशा सामने आई। कृषि भूमि पर हरित क्रांति का नकारात्मक प्रभाव, विशेष रूप से इंडो-गंगेटिक क्षेत्र में रसायनों के ज्यादा इस्तेमाल का असर होने और इसकी वजह से भूमि की उर्वरता में कमी ने उन्हें आलोचना के केंद्र में ला दिया। सर्वोत्तम अनुसंधान अद्यतनों से लैस होने चलते डॉ. स्वामीनाथन ने पर्यावरण की रक्षा की अंतर्निहित जिम्मेदारी के साथ टिकाऊ कृषि को सुनिश्चित करने के लिए 'सदाबहार क्रांति' शब्द को गढ़ा।
डॉ. स्वामीनाथन के विचारों को भारतीय और वैश्विक वैज्ञानिक जगत में दशकों तक भारी महत्व और सम्मान मिला। 1990 के दशक के मध्य में उनके प्रभाव ने यह सुनिश्चित किया कि कृषि अनुसंधान और शिक्षा विभागों का नेतृत्व पेशेवर कृषि विशेषज्ञों द्वारा किया जाए, न कि नौकरशाहों द्वारा। मामला आईसीएआर (भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद) के तत्कालीन महानिदेशक डॉ. आरएस परोदा का था जो आरोपों के घेरे में आ गए थे। यह डॉ. स्वामीनाथन का ही हस्तक्षेप था जिसने आईसीएआर प्रणाली और डॉ. परोदा की प्रतिष्ठा को बरकरार रखने में मदद की।
अपनी महान उपलब्धियों के बावजूद डॉ. एमएस स्वामीनाथन हमेशा विनम्र और आसानी से उपलब्ध रहे। उन्होंने मीडिया में योगदान देकर और देश और दुनिया भर में अक्सर व्याख्यान देकर अपने लेखन और संचार कौशल का प्रभावी उपयोग किया।