सरकार और दलों की केंद्रीकृत व्यवस्था से कद्दावर नेताओं में बेचैनी
उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनावों के ऐन पहले पिछले दिनों अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के कई दिग्गज नेताओं के भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) छोड़ने की यही वजह है। असल में यह किसी एक राजनीतिक दल की बात नहीं, बल्कि अधिकांश दलों में स्थिति लगभग एक जैसी है और वहां अधिकारों का केंद्रीकरण बढ़ रहा है। बात यहां तक सीमिति रहती तो भी ठीक था लेकिन अब यह परिपाटी सरकारों के कामकाज की कार्यप्रणाली में तेजी से शामिल हो रही है। उसके चलते नेताओं को अपने राजनीतिक भविष्य पर खतरा महसूस होने लगा है
हाल ही में भाजपा से पाला बदलने वाले एक राजनेता से रूबरू होने का मौका मिला। उनका दर्द था कि कई दशक तक खुद को राजनीति में प्रभावी बनाये रखकर राजनीति करने का दौर सिमटने का संकट उनके पार्टी बदलने की मुख्य वजह है। उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनावों के ऐन पहले पिछले दिनों अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के कई दिग्गज नेताओं के भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) छोड़ने की यही वजह है। असल में यह किसी एक राजनीतिक दल की बात नहीं, बल्कि अधिकांश दलों में स्थिति लगभग एक जैसी है और वहां अधिकारों का केंद्रीकरण बढ़ रहा है। बात यहां तक सीमिति रहती तो भी ठीक था लेकिन अब यह परिपाटी सरकारों के कामकाज की कार्यप्रणाली में तेजी से शामिल हो रही है। उसके चलते नेताओं को अपने राजनीतिक भविष्य पर खतरा महसूस होने लगा है। इसलिए हाल की पार्टी बदलने की घटनाओं को केवल एक चुनाव और राजनीतिक मौकापरस्ती से आगे देखने की जरूरत है।
केंद्र सरकार और राज्य सरकारों में फैसलों का केंद्रीकरण बहुत तेजी से बढ़ा है। उत्तर प्रदेश सरकार से इस्तीफा देने वाले मंत्री धरम सिंह सैनी ने बयान दिया है कि उनके पास फाइलें ही नहीं आती थीं। हालांकि यह पूरी तरह सही नहीं हो सकता है क्योंकि किसी भी विभाग के फैसलों पर संबंधित मंत्री की मुहर जरूरी है। कहा जा सकता है कि फैसले लेने की पूरी छूट उनको नहीं रही होगी, इसलिए वह यह आरोप लगा रहे हैं। विभागीय फैसलों को लेकर उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य भी कुछ समय पहले नाराजगी जाहिर कर चुके थे। पिछले कुछ बरसों में राज्यों में मुख्यमंत्री कार्यालय और कुछ चुनिंदा बड़े अधिकारियों के स्तर पर ही अधिकांश फैसले लेने का चलन बढ़ा है। उत्तर प्रदेश इसका अपवाद नहीं है। ऐसे में मंत्रियों और चुने हुए प्रतिनिधियों के राजनीतिक लाभ लेने की गुंजाइश कम होती जा रही है। यही वह मसला है जो राजनीतिक रूप से प्रभावी नेताओं को अधिक बेचैन कर रहा है।
अक्सर राजनेता रोजगार देने और विकास परियोजनाओं का श्रेय लेकर अपना आधार मजबूत करते हैं या बचाये रखते हैं। लेकिन जिस तरह से राज्य सरकारें सरकारी नौकरियों में भर्तियां नहीं कर रही हैं, और अगर कर रही हैं तो उसमें काफी देरी हो रही है, उसके चलते केंद्र और राज्य सरकारों के सरकारी विभागों में रिक्त पदों की संख्या बढ़ती जा रही है। इसके साथ ही निजीकरण को लगातार बढ़ावा देने की नीतियों से पिछड़े और अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के लिए सरकारी नौकरियां सिकुड़ती जा रही हैं। यह बदलाव पिछड़ी जाति के नेताओं के लिए खतरे की घंटी की तरह है, क्योंकि उनके हाथ से अपनी राजनीतिक ताकत के लिए लोगों को लुभाने का एक बड़ा मौका संकुचित होता जा रहा है।
पिछले कुछ बरसों में दूसरे दलों से भाजपा में पिछड़ी जातियों के नेताओं की एंट्री बड़ी तेजी से हुई थी, लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के ठीक पहले भाजपा छोड़ने वालों में इन जातियों के नेताओं ने ही तेजी दिखाई। स्वामी प्रसाद मौर्य हों, दारा सिंह चौहान हों या फिर धरम सिंह सैनी हों, इन नेताओं ने पार्टी पर अगड़ी जाति के नेताओं के वर्चस्व का आरोप लगाया। सरकारी अधिकारियों की नियुक्ति और सरकारी पदों की बंदरबांट को लेकर भी इसी तरह के आरोप लगाए।
इस घटनाक्रम ने भाजपा के मतदाताओं के उस ओबीसी अंब्रेला को छोटा कर दिया है जिसके चलते उसके मत प्रतिशत में भारी बढ़ोतरी हुई थी। पिछले सात साल में पार्टी ने जो भी मत प्रतिशत बढ़ाया और केंद्र व राज्य में सत्ता हासिल करने के लिए अधिक सीटें जीतीं, उसमें इस ओबीसी अंब्रेला की बड़ी भूमिका रही है। पिछले कुछ सप्ताह के घटनाक्रम को भाजपा भले ही सार्वजनिक रूप से हल्के में लेती दिखे, हकीकत इसके उलट है।
इन नेताओं के पाला बदलने से पहले ही पिछड़ी जाति राजभर के नेता ओमप्रकाश राजभर राज्य में गठबंधन अलग हो चुके थे। हालांकि 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले अलग हुए राजभर उन चुनावों में भाजपा का नुकसान नहीं कर पाये थे। लेकिन इस बार विधानसभा चुनावों में स्थिति अलग है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन के असर वाले इस इलाके में रालोद और सपा गठबंधन से परेशान भाजपा के लिए ओबीसी नेताओं का पार्टी छोड़ना मध्य उत्तर प्रदेश और पूर्वांचल में मुश्किलें पैदा कर सकता है। भाजपा इससे पार पाने की रणनीति बना रही है और नुकसान कम करने की कोशिशों में है।
सरकार और पार्टी चलाने की केंद्रीकृत व्यवस्था में खुद के राजनीतिक आधार वाले नेताओं की बेचैनी आने वाले दिनों में और बढ़ेगी। कोई भी राजनेता नहीं चाहता है कि वह सांसद और विधायक तो बना रहे लेकिन स्थानीय प्रशासन से लेकर राज्य और केंद्र सरकार के स्तर तक उसकी कोई सुनवाई न हो। पिछले दिनों भाजपा के एक बड़े नेता ने इस लेखक को कहा था कि हमारी पार्टी में नेता चुनाव नहीं लड़ता है, पार्टी चुनाव लड़ती है इसलिए किसको टिकट मिले इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। हालांकि जिस तरह से भाजपा ने अभी तक उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के प्रत्याशियों की सूची में मौजूदा विधायकों के बड़े पैमाने पर टिकट काटने से परहेज किया है, वह इस आत्मविश्वास को नहीं दिखाता है। राजनीतिक दलों और सरकार चलाने वाले नेताओं को केंद्रीकृत व्यवस्था को लेकर आने वाले दिनों में क्या वाकई सोचने को मजबूर होना पड़ेगा, इसका असर उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजों के बाद दिख सकता है।