बढ़ती महंगाई से कोई अछूता नहीं, इस पर लगाम जरूरी
थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) के आधार पर थोक बाजारों में मुद्रास्फीति की दर नवंबर में 14.23 फीसदी पर पहुंच गई जो पिछले कई दशकों में सबसे ज्यादा है । यह स्थिति देश के नीति विश्लेषकों और अर्थशास्त्रियों के अनुसार बहुत बडा झटका देने वाली है लेकिन इस स्थिति से वास्तव मे नीतिनिर्धारक कितने चिंतित है इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। पिछले आठ महीने से मुद्रास्फीति दहाई में बनी हुई है
थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) के आधार पर थोक बाजारों में मुद्रास्फीति की दर नवंबर में 14.23 फीसदी पर पहुंच गई जो पिछले कई दशकों में सबसे ज्यादा है । यह स्थिति देश के नीति विश्लेषकों और अर्थशास्त्रियों के अनुसार बहुत बडा झटका देने वाली है लेकिन इस स्थिति से वास्तव मे नीतिनिर्धारक कितने चिंतित है इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। पिछले आठ महीने से मुद्रास्फीति दहाई में बनी हुई है ।
जैसे पहले के लेखों मे भी उल्लेख किया गया है ,खुदरा और थोक दोनों स्तरों पर मुद्रास्फीति सिस्टेमेटिक हो गई है । कीमतों की वृद्धि दर में अधिक उछाल मुख्य रूप से अधिकांश उपसमूहों में आया है। जिनमें हमेशा की तरह ईंधन औऱ बिजली जैसे उत्पादों की कीमतों में अधिक बढोतरी हुई है। जिनमें नवंबर, 2021 में सालाना आधार पर वृद्धि दर 40 फीसदी तक पहुंच गई है ।
मंहगाई उस जेब कतरे की तरह है जो किसी को भी नही बख्शता है । लेकिन चाहे गांव हो या शहर मंहगाई की मार को सबसे ज्यादा अधिक गरीब को ही सहना पडता है। यह विडंबना ही है कि गांव के लोग, विशेष रूप से छोटे और सीमांत किसान खुद को इस बात से ठगा हुआ पाते हैं कि जिस फसल को अन्होंने कम कीमतों पर बेचा था वह उस समय अचानक प्रीमियम हो जाता है, जब उनके पास उनके खुद के उपयोग के लिए स्टॉक खत्म हो जाता है। पीड़ा तब और बढ़ जाती है जब उन्हें एक ही वस्तु को उनके बिक्री मूल्य की तुलना में अधिक कीमत पर खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ता है । लेकिन, क्या किसान साल भर के लिए स्वयं के उपभोग के लिए पर्याप्त अनाज का भंडारण नहीं करते हैं? खैर, जो लोग ग्रामीण अर्थव्यवस्था से वाकिफ हैं, उन्हें पता होगा कि स्व-उपभोग के लिए भी भंडारण की यह सुविधा सभी किसानों के लिए उपलब्ध नहीं है, क्योंकि वह फसल के समय नकदी के लिए बेताब होते हैं ।
इसके लिए गेहूं एक उत्कृष्ट उदाहरण है। जब अप्रैल में फसल आती है, तो किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य पाने के लिए संघर्ष करते हैं, लेकिन दिसंबर, जनवरी आते ही इस मुख्य खाद्यान्न की कीमत बढ़ जाती है। इसके अलावा वार्षिक मुद्रास्फीति इस स्थिति को और भी कठिन बना देती है।
नवंबर, 2021 में गेहूं की कीमतों में लगातार दूसरे साल 10 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है। अगर इस वृद्धि को तिलहन के साथ मिलाएं, जिसमें लगभग 25 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई तो रसोई का बजट खराब हो जाता है क्योंकि तिलहन की ऊंची कीमत का मतलब है खाना पकाने के तेल की खुदरा कीमत में वृद्धि ।
डब्ल्यूपीआई के आधार पर थोक मुद्रास्फीति और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) द्वारा मापी गई खुदरा मुद्रास्फीति के बीच एक बहुत बड़ा अंतर है। नवंबर में थोक मूल्य सूचकांक में 14.23 फीसदी की बढ़ोतरी के मुकाबले सीपीआई में 4.91 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। इससे हम क्या समझ सकते है? सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण, थोक मूल्य सूचकांक खुदरा स्तर पर मूल्य वृद्धि की उच्च गति के लिए एक प्रारंभिक संकेत है। इसमें कम से कम एक दो महीने का अंतराल है। डब्ल्यूपीआई बास्केट में अधिकांश मदों में अंतिम खपत के उत्पादों के इनपुट शामिल होते हैं। हमारे पास ऐसी स्थिति नहीं हो सकती है जहां थोक मूल्य सूचकांक एक ऊंचे स्तर पर बना रहे, जबकि सीपीआई तथाकथित भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के चार फीसदी (दो फीसदी प्लस-माइनस) के लक्ष्य के भीतर बना रहे। पिछले 18 महीनों से भी अधिक समय से, आरबीआई ने जमाकर्ताओं को नकारात्मक रिटर्न देना जारी है, जो सरकार सहित बड़े उधारकर्ताओं के पक्ष में है।
थोक और खुदरा मुद्रास्फीति के बीच व्यापक अंतर का एक अन्य संभावित कारण मांग में कमी के कारण खुदरा विक्रेताओं की मूल्य निर्धारण शक्ति का ह्रास हो सकता है। हम एक अजीबोगरीब स्थिति में हैं। आमतौर पर, बढ़ती मुद्रास्फीति बढ़ती मांग का संकेत है के लेकिन मांग में वृद्धि केवल पूर्व-कोविड स्तर पर आंशिक वापसी है। क्या यह मुद्रास्फीतिजनित मंदी है? यह नहीं कहा जा सकता!
तो मुद्रास्फीति को तत्काल रूप में मात देने के लिए सरकार क्या कर सकती है? प्रणालीगत कारकों को ठीक करने के बारे में भूल जाइए क्योंकि उनमें से ज्यादातर को सरकार द्वारा तय नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के लिए ऊर्जा की कीमतों को ही ले लीजिए। सबसे पहले तो, सरकार को कम से कम सचिवों की एक अधिकार प्राप्त अंतर-मंत्रालयी समिति को फिर से सक्रिय करना चाहिए। इस समिति को साप्ताहिक आधार पर बैठक करनी चाहिए और चर्चा करनी चाहिए कि सबसे प्रभावी कदम क्या हो जा सकता है। जैसे आयात शुल्क में बदलाव, जीएसटी में कटौती (राज्यों के सहयोग से), वस्तुओं की स्टॉक सीमा की समीक्षा करना, परिवहन सब्सिडी देना आदि। इसके अलावा, सरकार अपनी एजेंसियों जैसे भारतीय खाद्य निगम, नैफेड और राज्य स्तरीय सहकारी समितियों की मदद से बाजार में हस्तक्षेप कर सकती है। इस तरह के हस्तक्षेप का मुनाफाखोरी पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ सकता है। साथ ही मंत्री और सचिव उद्योग के शीर्ष नेताओं की बैठकें बुलाकर उन्हें सीमेंट, स्टील, रिफाइंड खाना पकाने के तेल जैसी वस्तुओं की कीमतों पर लगाम लगाने के लिए कह सकते है।
बढ़ती महंगाई के ग्राफ को उलटने और एक आम महिला की कठिनाई को कम करने के लिए तत्काल सरकारी हस्तक्षेप बेहद जरूरी है।
(प्रकाश चावला सीनियर इकोनॉमिक जर्नलिस्ट है और आर्थिक नीतियों पर लिखते हैं)