भारत के खाद्यान्न निर्यात पर डब्ल्यूटीओ की टेढ़ी नजर, रूस, जापान और अमेरिका ने की है शिकायत
डब्ल्यूटीओ की कृषि पर समिति की चर्चा में जापान, रूस और अमेरिका समेत कई देशों ने भारत से इस बात पर स्पष्टीकरण मांगा है कि क्या वह बाली में मंत्रिस्तरीय बैठक में लिए गए फैसले का पालन कर रहा है? वह फैसला 2013 में अनाज की सरकारी स्टॉकहोल्डिंग को लेकर था
मर्केंडाइज यानी फैक्ट्री में बनी वस्तुओं का निर्यात 2021-22 में पहली बार 400 अरब डॉलर को पार कर गया, जिसे बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है। प्रोविजनल आंकड़ों के अनुसार बीते वित्त वर्ष में लगभग 420 अरब डॉलर का निर्यात हुआ है। यह इससे पहले के 2018-19 के रिकॉर्ड 330 अरब डॉलर से 27 फ़ीसदी ज्यादा है।
निर्यात के इस प्रदर्शन खास बात यह है कि अर्थव्यवस्था के लगभग हर क्षेत्र ने इसमें अपना योगदान किया है। कृषि क्षेत्र में कई गैर पारंपरिक कमोडिटी के कारण निर्यात में वृद्धि हुई है। उदाहरण के लिए गैर बासमती चावल और गेहूं दोनों का रिकॉर्ड निर्यात हुआ। कुछ समय पहले तक कुल चावल निर्यात में गैर बासमती का हिस्सा एक तिहाई से आधा तक होता था। लेकिन 2021-22 में यह दो तिहाई पहुंच गया। गेहूं का निर्यात 2019-20 में सिर्फ छह करोड़ डॉलर का हुआ था लेकिन 2021-22 में दो अरब डॉलर का गेहूं निर्यात हुआ।
इन कमोडिटी के मामले में भारत ने विश्व बाजार में अपनी स्थिति मजबूत की है। अमेरिकी कृषि विभाग (यूएसडीए) के आंकड़ों के मुताबिक विश्व चावल निर्यात में भारत का हिस्सा 2018-19 में 22 फ़ीसदी था जो 2021-22 में 40 फ़ीसदी पहुंच गया। गेहूं निर्यात में भारत की हिस्सेदारी 2019-20 में 0.3 फ़ीसदी थी जो अब 5 फ़ीसदी हो गई है। चीनी निर्यात में भी भारत का प्रदर्शन अच्छा रहा है। विश्व चीनी निर्यात में 2017-18 में भारत का हिस्सा 3.4 फ़ीसदी था जो अब 11 फ़ीसदी से ऊपर जा चुका है। लगातार सातवें वर्ष अनाज उत्पादन रिकॉर्ड स्तर पर रहने की उम्मीद है। इसे देखते हुए मौजूदा वित्त वर्ष में कृषि निर्यात और बढ़ने की संभावना है।
लेकिन अच्छी खबर बस इतनी ही है, क्योंकि भारत के कृषि निर्यात की विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में सघन जांच चल रही है। 2019 में ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील और ग्वाटेमाला ने डब्ल्यूटीओ की विवाद निस्तारण समिति में शिकायत दर्ज कराई थी कि चीनी निर्यात बढ़ाने के लिए केंद्र सरकार कई तरह की सब्सिडी दे रही है। शिकायत में कहा गया है कि इस तरह की सब्सिडी स्कीम चला कर सरकार ने डब्ल्यूटीओ के कृषि समझौते का उल्लंघन किया है, जिसमें निर्यात की जाने वाली वस्तुओं पर सब्सिडी देने की मनाही है। दिसंबर 2021 में विवाद निस्तारण समिति ने भारत के खिलाफ निर्णय दिया था।
बड़ी समस्या यह है कि भारत से अनाज का निर्यात डब्ल्यूटीओ की जांच की जद में है। कृषि समिति की चर्चा में जापान, रूस और अमेरिका समेत कई देशों ने भारत से इस बात पर स्पष्टीकरण मांगा है कि क्या वह बाली में मंत्रिस्तरीय बैठक में लिए गए फैसले का पालन कर रहा है? वह फैसला 2013 में अनाज की सरकारी स्टॉकहोल्डिंग को लेकर था। उस फैसले का मकसद कृषि समझौते को उन देशों पर सख्ती से लागू करना था जो अनाज की सरकारी स्टॉकहोल्डिंग के जरिए खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम चलाते हैं, जैसे भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली यानी पीडीएस।
कृषि समझौते के मुताबिक इस तरह के खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम चलाने वाले देशों को प्रशासित मूल्य पर अनाज खरीदने और जारी करने की अनुमति है, जैसे भारत में एमएसपी पर खरीदा जाता है। लेकिन वे ऐसा तभी कर सकते हैं जब वे अनाज के खरीद मूल्य और बाहरी संदर्भ मूल्य (1986-88 के दौरान अंतरराष्ट्रीय कीमत के अंतर) को अपने सब्सिडी बिल में शामिल करें। कृषि समझौते के अनुसार भारत जैसे विकसित देश जो सब्सिडी देते हैं वह उनके कुल कृषि उत्पादन के मूल्य के 10 फ़ीसदी से अधिक नहीं हो सकता है। अगर भारत में पीडीएस के जरिए दी जाने वाली सब्सिडी, किसानों को एमएसपी के रूप में दी जाने वाली सब्सिडी तथा इनपुट सब्सिडी को जोड़ा जाए तो यह निश्चित रूप से 10 फ़ीसदी की सीमा को पार कर जाएगी।
कृषि समझौते के प्रावधानों में सरकारी स्टॉकहोल्डिंग के प्रावधान कम से कम दो पैमाने पर सही नहीं लगते। पहला, भारत अभी कृषि उपज पर जो न्यूनतम समर्थन मूल्य देता है उसकी तुलना 1986-88 के दौरान रहे अंतरराष्ट्रीय कीमतों से की जाती है। भारत का तर्क है कि बाहरी संदर्भ मूल्य के लिए हाल के वर्षों को आधार बनाया जाए या उसमें महंगाई दर को एडजस्ट किया जाए। दूसरा, कुपोषित आबादी को सब्सिडी पर अनाज उपलब्ध कराना और किसानों को उत्पादन से संबंधित सब्सिडी मुहैया कराना, दोनों को एक ही नजर से देखना त्रुटिपूर्ण है। यह इस बात का उदाहरण है कि अमेरिका और यूरोपियन यूनियन ने किस तरह कृषि से संबंधित नियम लिखे जो विकासशील देशों के हितों के खिलाफ हैं।
जिस दिन भारत ने अपनी दो तिहाई आबादी को सस्ता खाद्य पदार्थ उपलब्ध कराने के लिए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून को लागू किया, उसी दिन यह बात स्पष्ट हो गई थी कि सरकारी स्टॉकहोल्डिंग पर डब्ल्यूटीओ के कृषि समझौते के नियम भारत के हितों के खिलाफ होंगे। वर्ष 2013 में बाली मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में डब्ल्यूटीओ के सदस्य इस बात पर राजी हुए कि अगर भारत राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून को लागू करने में 10 फ़ीसदी सब्सिडी की सीमा को पार करता है तो भी उसके खिलाफ कोई विवाद नहीं खड़ा किया जाएगा। उसे पीस क्लॉज नाम दिया गया जिसकी पुष्टि 2015 में हुई। इसमें स्थाई समाधान होने तक भारत को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत सस्ता खाद्य पदार्थ उपलब्ध कराने की छूट दी गई है। यह कृषि समझौते के नियमों से भारत के पीडीएस को बचाने का एक रास्ता था।
लेकिन उस पीस क्लॉज में एक महत्वपूर्ण शर्त जोड़ी गई कि सरकारी स्टॉक का इस्तेमाल व्यापार की परिस्थितियों को बिगाड़ने या दूसरे सदस्य देशों की खाद्य सुरक्षा को प्रभावित करने में नहीं किया जाएगा। इसका सीधा मतलब यह है कि भारत इस स्टॉक से अनाज का निर्यात नहीं कर सकता है। डब्ल्यूटीओ के सदस्य देशों ने भारत से स्पष्टीकरण मांगा है कि भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) की खुले बाजार में बिक्री योजना, जिसके तहत समय-समय पर पूर्व निर्धारित कीमत पर खुले बाजार में गेहूं और चावल की बिक्री की जाती है, क्या उसके कारण भारत से खाद्य पदार्थों का आयात बढ़ा है? दूसरे शब्दों में कहें तो सीधा सवाल यह है कि भारत से खासकर गेहूं और चावल का निर्यात क्या एफसीआई के स्टॉक से किया जा रहा है?
भारत से अनाज का निर्यात बढ़ने के बाद डब्ल्यूटीओ में इस तरह के सवाल अधिक उठने लगे हैं। इससे पता चलता है कि डब्ल्यूटीओ के अन्य सदस्य देश अब ज्यादा सघन निगरानी कर रहे हैं। सरकार को इन चुनौतियों का जवाब देने के लिए एक मजबूत रणनीति तैयार करनी चाहिए।
(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ सोशल साइंस में सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज एंड प्लानिंग में प्रोफेसर हैं। यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं)