समावेशी कृषि हो 2022 के लिए विकास का रोडमैप
अब देश के नीति निर्माताओं को अभी की जरूरत, वर्तमान संकट का उपाय जैसे शब्दों को नकार कर देश की समस्याओं के लिए स्थायी समाधान तलाशने होंगे। भ्रष्टाचार, निरक्षरता, शिक्षा व्यवस्था, स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली, गरीबी, जलवायु परिवर्तन, घटता भूजल स्तर, वायु प्रदूषण, ठोस अवशेष, महिला सशक्तीकरण, बेरोजगारी, कृषि संकट जैसे मुद्दे आज देश के सामने हैं जिनको प्राथमिकता के आधार पर हल करने की जरूरत है
अब देश के नीति निर्माताओं को अभी की जरूरत, वर्तमान संकट का उपाय जैसे शब्दों को नकार कर देश की समस्याओं के लिए स्थायी समाधान तलाशने होंगे। भ्रष्टाचार, निरक्षरता, शिक्षा व्यवस्था, स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली, गरीबी, जलवायु परिवर्तन, घटता भूजल स्तर, वायु प्रदूषण, ठोस अवशेष, महिला सशक्तीकरण, बेरोजगारी, कृषि संकट, बाढ़, सुखाड़, लंबित न्याय, सकल घरेलू उत्पाद आदि मुद्दे आज देश के सामने हैं जिनको प्राथमिकता के आधार पर हल करने की जरूरत है।
समस्या यह है कि नीति निर्माता, समाजसेवी, जन प्रतिनिधि, शासन, प्रशासन सभी वर्तमान समस्याओं का एक-एक हल करने में अपनी ऊर्जा लगाते हैं। अगर “एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाय” पर ध्यान दिया जाए तो शायद देश के विकास के लिए एक उचित रास्ता हम सब तय कर सकेंगे। इसलिए जरूरत है एक न्याय संगत अर्थव्यवस्था की, क्योंकि विश्व असमानता रिपोर्ट के अनुसार भारत एक "गरीब और बहुत असमान देश, एक समृद्ध अभिजात वर्ग के साथ" के रूप में खड़ा है, जहां शीर्ष 10 फीसदी के पास कुल राष्ट्रीय आय का 57 फीसदी हिस्सा है, जिसमें शीर्ष 1 फीसदी के पास 22 फीसदी है, जबकि नीचे के 50 फीसदी के पास सिर्फ 13 फीसदी है। इसके अलावा कोविड महामारी का दौर अरबपतियों के लिए स्वर्णयुग साबित हुआ। यह सिद्ध करता है कि जिन्दा रहने के लिए ‘कौशल’ व जीने के लिए ‘मानवीय’ जैसे पाठ्यक्रम शिक्षा में शामिल नहीं होंगे तब तक एक सर्कुलर इकोनॉमी स्थापित नहीं होगी।
शिक्षा, स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था और सकल घरेलू उत्पाद, कृषि, रोजगार, जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याओं में से किस मुद्दे को केंद्र में रखकर कार्य किया जाए जिसमें सभी समस्याओं का हल निकल सके। स्वास्थ्य को लेकर फिर से बिल गेट्स ने चेतावनी दी है कि अगली महामारी के लिए हम तैयार नहीं हैं। जलवायु परिवर्तन की समस्या से छुटकारा पाने के लिए फ्यूल व कोयले का उपयोग कम करने की बात की जाती है, कोई डार्विन के सिंद्धांत पर खेती करने की बात करता है, देश के नीति निर्माता किसान की आय बढ़ाने के लिए सिंचाई के लिए बांध बनाने की बात करते हैं, पलायन रोकने के लिए उद्योगों की, कभी बच्चों को अपने शरीर को समझने (सेक्स) के लिए शिक्षा पर जोर देने की बात की जाती है। यानी अलग-अलग तरीके से समस्याओं को हल करने की बात होती है।
मेरा मानना है कि भारत जैसे देश में अहिंसात्मक कृषि ही ऐसा माध्यम है जिनसे सभी समस्याओं का हल पाया जा सकता है। अहिंसात्मक कृषि से ही जल, जमीन, जैवविविधता, जलवायु परिवर्तन, मिट्टी, रोज़गार, कुपोषण, महिला सशक्तीकरण, पलायन, पशु, अर्थव्यवस्था, शिक्षा, स्वास्थ्य, सर्वमान्य बराबरी सभी का हल मिल सकता है। इसलिए सरकार को कृषि को केंद्र में रखकर योजनाएं बनानी चाहिए, तभी देश सर्व जन हिताय, सर्व जन सुखाय के सिद्धांत को प्रतिपादित कर सकता है।
अभी तक देश में विकास के लिए जो भी योजनाएं बनीं उनमें से हरित क्रांति ने देश की उपजाऊ मिट्टी, स्वास्थ्य, पशुधन आदि को, बांधों ने नदियों को, अर्थव्यवस्था ने मानवता व पर्यावरण को, निगल लिया। उदाहरण के लिए, जब खाद्य सुरक्षा की बात आती है, तो जनसंख्या भारत के लिए एक दायित्व बन गई है। दुनिया के कुल भूमि क्षेत्र के केवल 2.4 प्रतिशत के साथ भारत के पास दुनिया की कुल आबादी का 14 प्रतिशत हिस्सा है। जल संसाधनों का लगभग 4% हिस्सा है। यही कारण है कि भारतीय जल की कमी से परेशान हैं। 1951 में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 5,177 घन मीटर थी। 2011 की जनगणना के आंकड़ों में यह घटकर 1,545 घन मीटर हो गई। यानी 60 वर्षों में लगभग 70 प्रतिशत की गिरावट हुई है।
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की नई रिपोर्ट 'स्टेट ऑफ इंडियाज एनवायरनमेंट इन फिगर्स 2021' के अनुसार, भारत में चार जैव विविधता वाले हॉटस्पॉट हैं और इस क्षेत्र का 90% नष्ट हो चुका है। इतना ही नहीं, शिकागो विश्वविद्यालय के वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक (एक्यूएलआई) की रिपोर्ट के अनुसार भारत दुनिया का सबसे प्रदूषित देश है, 48 करोड़ से अधिक लोग या इसकी लगभग 40% आबादी उत्तर में भारत-गंगा के मैदानों में रहती है, जहां प्रदूषण का स्तर नियमित रूप से दुनिया में कहीं और पाए जाने वाले स्तर से अधिक है। अगर जलवायु परिवर्तन की बात की जाए तो एनसीईआई की रिपोर्ट के मुताबिक इस बर्ष नवम्बर का औसत तापमान सामान्य से 0.91 डिग्री सेल्सियस ज्यादा दर्ज किया गया। बीते 142 वर्षों में यह चौथा मौका है जब नवंबर में बढ़ा हुआ तापमान दर्ज किया गया।
धरती पर जीवन के लिए छोटे से छोटा एवं बड़े से बड़ा जीव, पेड़-पौधे, नदियां, पहाड़ प्रत्येक जीव व वस्तु एक दूसरे पर प्राकृतिक चक्र से जुड़ा हुआ है। उदाहरण के लिए, मधुमक्खियां अगर लुप्त हो गईं तो इससे सारे मानव समाज का विनाश हो जाएगा क्योंकि मधुमक्खियों को अन्य किसी चीज अथवा प्राणी से विस्थापित नहीं किया जा सकता है। मधुमक्खियों तथा फूल-पौधों के बीच संबंध पृथ्वी पर सबसे व्यापक, सामंजस्यपूर्ण और परस्पर निर्भरता का है। करीब 10 करोड़ वर्षों पूर्व मधुमक्खियों तथा फूलों के मध्य सामंजस्य से यह पृथ्वी समृद्ध बनी थी। अतः इस ग्रह पर संपूर्ण मानव जाति के उत्थान में भी मधुमक्खियों का महत्व है।
एक सर्वे के मुताबिक यह भी पता चला कि इस विश्व में 87 प्रमुख खाद्य फसलें सम्पूर्ण या आंशिक रूप से परागण से ही संचालित हो पाती हैं। परागण की इस प्रक्रिया में मधुमक्खियां बहुत योगदान देती हैं। जिससे वे हजारों पशु-पक्षियों की विभिन्न प्रजातियों को भोजन उपलब्ध कराती हैं। पृथ्वी पर पौधों की विविध प्रजातियां पाई जाती हैं। इसका श्रेय मधुमक्खियों को ही जाता है। इसलिए विलुप्त होती प्रजातियों एवं प्रकृति के चक्र को संतुलित करने के लिए भारत को दो पहल करनी चाहिए। एक तो यह कि पर्यावरण संरक्षण के लिए ‘ब्रह्माण्ड एक है’ के तहत पूरे विश्व में एक कानून लागू हो और दूसरा, ईकोसाइड को पांचवा अंतर्राष्ट्रीय अपराध घोषित कराने की पहल करनी चाहिए। विश्व बैंक जैसे संस्थानों को कुछ ऐसी योजनाएं शुरू करनी चाहिए जिनमें पैसे की जगह वस्तु विनिमय हो। इससे कुटीर उद्योगों को बढ़ावा मिलेगा और कुछ हद तक असमानता की खाई को भी पाटा जा सकेगा।
अल्बर्ट आइंस्टीन ने भी पूंजीवाद को लेकर यह कहा था कि इस विकास का परिणाम निजी पूंजी का एक कुलीन वर्ग है, जिसकी विशाल शक्ति को लोकतांत्रिक रूप से संगठित राजनीतिक समाज द्वारा प्रभावी ढंग से नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। कुल मिलाकर प्राकृतिक संसाधनों का खनन या उपयोग (जल, खनिज पदार्थ) देश की पर्यावरणीय वहन क्षमता का आकलन करने के बाद ही किया जाए। इसके लिए पंचतत्वों के लिए एक समग्र कानून बने क्योंकि जैव विविधता, जल, वायु आदि के लिए अलग-अलग नियम-कानून होने के कारण इनके कार्यान्वयन में दिक्क्त होती है। अतः पर्यावरण को जान बूझ कर नुकसान पहुंचाने वाले आसानी से बच निकलते हैं।
सरकार को चाहिए कि स्नातक और परास्नातक स्तर के छात्रों को जीवन के सभी पहलुओं विज्ञान, उदारता, अर्थ, समाज, यहां तक कि शरीर की जरूरतें (सेक्स) तक की जानकारी और युवाओं को कृषि के जोड़ने के मकसद से किसानों के पास तीन से छह महीने के लिए व्यावहारिक प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए भेजना चाहिए। इससे किसानों की कृषि मॉनिटरिंग होगी और कृषि क्षेत्र में नए आविष्कार तथा गांव स्तर पर कृषि से संबंधित उद्योगों को बढ़ावा भी मिलेगा।
विकास के लिए सिर्फ बड़ी परियोजनाओं की जरूरत नहीं है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनमें छोटी योजनाओं से भी सुखद परिणाम प्राप्त किए गए हैं। गांधी के सिद्धान्तों को केंद्र में रखकर भविष्य की विकास योजनाएं अगर बनाई जाएं तो देश एक समग्र विकास की ओर न्याय संगत तरीके से चल पाएगा। हालांकि केंद्र सरकार ने गांधी के बताये ग्रामस्वराज के लिए कई योजनाएं लागू की हैं, लेकिन सकल घरेलू उत्पाद के चलते कुछ पहलुओं को नकार दिया जाना देश के विकास के लिए अच्छा नहीं माना जा सकता है। उदाहरण के लिए नदी जोड़ने की परियोजना के तहत केन-बेतवा नदी परियोजना है जिसमें जल, जंगल, जमीन के वास्तविक मूल्य को नकार दिया गया। जबकि ये सिद्ध हो चुका है कि तालाबों के माध्यम से बिना किसी नुकसान के लोगों की सिंचाई व पीने के लिए जल उपलब्ध करवाया जा सकता है। विकास परियोजनाओं में मानवीय दृष्टिकोण को शामिल करते हुए आम आदमी की भागीदारी सुनिश्चित हो, तभी हम गांधी के भारत को खुशहाल बना सकेंगे।
(गुंजन मिश्रा पर्यावरणविद हैं और बुंदेलखंड उनका कार्यक्षेत्र है)