आज के दौर में गांधी के ग्राम स्वराज की हकीकत
गांधी जी स्वशासन के जरिए गांवों को आदर्श गांव बनाने के लिए पूरी स्वायत्तता के साथ पंचायती राज कायम करने की चाह रखते थे। उनके जन्म दिवस पर यह इस बात का मूल्यांकन करना उचित होगा कि गांधी जी ने जिस ''ग्राम स्वराज'' की कल्पना की थी वह कहां खड़ा है
गांधी जी स्वशासन के जरिए गांवों को आदर्श गांव बनाने के लिए पूरी स्वायत्तता के साथ पंचायती राज कायम करने की चाह रखते थे। उनके जन्म दिवस पर यह इस बात का मूल्यांकन करना उचित होगा कि गांधी जी ने जिस ''ग्राम स्वराज'' की कल्पना की थी वह कहां खड़ा है। इस लेख में उदाहरणों की मदद से इस बात कि विवेचना कि गई है कि गांधी जी के सपनों का ग्राम स्वराज ग्रामीण क्षेत्र में कितना और किस रूप में स्थापित है।
ग्राम स्वराज पर गांधी के विचार
गांधी जी का मानना था कि एक आदर्श भारतीय गांव का निर्माण इस तरह किया जाए कि वह अपने आप में पूर्ण स्वच्छता का उदाहरण हो। उस गांव में ऐसे घर हों जिनमें रौशनी और वेंटिलेशन की पर्याप्त व्यवस्था हो, उसे बनाने में ऐसी वस्तुओं का इस्तेमाल किया गया हो जो पांच मील के दायरे में पाई जाती हों। हर घर के साथ खुला प्रांगण हो जहां परिवार अपनी जरूरत की सब्जियां उगा सके और अपने मवेशी बांध सके।
गांव की गलियों में गंदगी या धूल ना हो। पर्याप्त संख्या में कुएं हों जो सभी के लिए सुलभ हों। गांव में सबके लिए पूजा स्थल हो, एक आम सभा स्थल, एक सहकारी डेयरी, प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालय (जिसमें औद्योगिक शिक्षा दी जाए) और विवादों को निपटाने के लिए पंचायतें हों। गांव अपने लिए अनाज, सब्जियां, फल और अपनी खादी उत्पादन करेगा। यह मोटे तौर पर एक आदर्श गांव के बारे में मेरा विचार है।
आज की परिस्थितियों में गांव में घरों की हालात पहले से थोड़ी बेहतर होगी। गांव में अगर अच्छा जमींदार है या लोगों में आपसी सहयोग है, तो मॉडल घर को छोड़कर बाकी कार्य किए जा सकते हैं। ये कार्य ग्रामीण और जमींदार के स्तर पर, बिना सरकारी सहायता के किए जा सकते हैं। अगर सरकार सहायता देती है तो गांवों में पुनर्निर्माण की संभावना की कोई सीमा नहीं है।
मैं अभी इस बात पर ध्यान दे रहा हूं कि अगर ग्रामीणों का आपसी सहयोग हो और स्वैच्छिक श्रम दाम करें तो वे क्या कर सकते हैं। मेरा मानना है कि यदि एक बेहतर मार्गदर्शन में गांव में काम किया जाय तो लोगों की व्यक्तिगत आय से अलग गांव की आय दोगुनी की जा सकती है। हमारे गांवों में व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए तो नहीं, लेकिन ग्रामीणों के अपने इस्तेमाल के लिए अशेष संसाधन हैं। लेकिन सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि गांववासी खुद अपने आपको बेहतर बनाने के प्रति अनिच्छुक होते हैं।
गांव की पहली समस्या सफाई को लेकर है। यह सबसे उपेक्षित बात है। इससे लोगों की सेहत को नुकसान होता है और बीमारियां फैलती हैं। अगर कर्मचारी स्वेच्छा से सफाई का कार्य करें तो वे लोगों को बता सकते हैं कि नित्य क्रिया कहां करनी चाहिए। वे लोगों को सफाई का महत्व और इसकी उपेक्षा से होने वाले नुकसान के बारे में बता सकते हैं।
मोटे तौर पर देखा जाय तो गांधी के आदर्श गांव के पांच प्रमुख पहलू हैं। पहला, स्वशासी या स्वायत्त होना। दूसरा, अपनी जरूरतें खुद पूरी करना। तीसरा, स्वच्छ वातावरण और साफ-सफाई। चौथा, अपनी बेहतरी के लिए अनिच्छुक रहना और पांचवां, स्वयंसेवक ग्रामीणों को एक बेहतर व समृद्ध गांव बनाने के लिए जागरूक करें।
व्यवहार में क्या है?
जमीनी हकीकत को देखते हुए गांधी जी का स्वावलंबी गांव का विचार आज व्यावहारिक नहीं लगता है। स्वावलंबी गांव की जगह आत्मनिर्भर गांव का विचार बेहतर लगता है। ऐसे ग्राम वासियों के पास पर्याप्त आमदनी की सुविधा होती है ताकि वह गांव के बाहर से जरूरत का सामान खरीद सकें। स्वच्छता के लिए एक कार्यक्रम शुरू किया गया है और उसमें अच्छी प्रगति भी हुई है, लेकिन ऐसी घटनाएं भी हो रही हैं जब गांव में दोबारा गंदगी फैलने लगी है। इस संदर्भ में निरंतर स्वच्छता का विचार महत्वपूर्ण है जिस पर व्यापक रूप से अमल किया जाना चाहिए।
गांधी का यह कहना पूरी तरह से ठीक नहीं कि गांव के लोग खुद अपना भला नहीं चाहते। जो लोग अपने गांव से बाहर निकले वे ऐसा नहीं होते। वह इस बात को समझते हैं कि उनके जीवन को बेहतर बनाने के लिए क्या जरूरी है। जीवन में आगे बढ़ने की लालसा के लिए धर्म की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए जिन ग्राम वासियों अथवा परिवारों ने आर्य समाज पद्धति का पालन किया है उनमें विकास में बाधक बनने वाली प्रथाओं और परंपराओं के प्रति सोच बदली है। आर्य समाज में महिलाओं और लड़कियों के लिए शिक्षा को भी स्थान दिया गया है ताकि वे अपनी पसंद के क्षेत्र में आगे बढ़ सकें।
जहां तक गांवों के स्वशासन की बात है, तो भारत सरकार ने संविधान में 73वें संशोधन के जरिए इस दिशा में प्रयास किए हैं। तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री जी वेंकटस्वामी ने संसद में 1 दिसंबर 1992 को 73 वां संशोधन विधेयक पेश करते हुए कहा था, “ग्राम पंचायत स्थापित करना तथा उन्हें आगे बढ़ाना केंद्र और राज्य सरकारों का कर्तव्य है, ताकि वे एक प्रभावी और स्वशासी संस्थान बन सकें।” यहां संविधान संशोधन विधेयक से जुड़े अनुच्छेद 243 जी का उल्लेख जरूरी है जो पंचायतों की स्वायत्तता से संबंधित है। संविधान के प्रावधानों के अनुरूप राज्य की विधायिका पंचायतों को ऐसे अधिकार और शक्ति दे सकती है जो उन्हें स्वशासन के संस्थान के रूप में कार्य करने के लिए आवश्यक हैं। ऐसे कानून में पंचायतों को अधिकार और उत्तरदायित्व सौंपने की बात रहे। इसमें इन बातों का स्पष्ट उल्लेख हो-
क) आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिए योजनाएं बनाना।
ख) आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय की योजनाओं पर अमल। इनमें ग्यारहवीं अनुसूची में शामिल विषयों समेत अन्य विषय भी शामिल हों। संशोधन कानून का यह अनुच्छेद अधिकारों के हस्तांतरण की संपूर्ण योजना का मूल है। यह पंचायतों को केंद्र और राज्य सरकारों के बाद सरकार के तीसरे स्तर के रूप में स्थापित करता है।
इस संदर्भ में 2001 की पंचायतों पर टास्क फोर्स की रिपोर्ट में सही लिखा गया है कि पंचायतों को अपने फैसले लागू करने के लिए पर्याप्त कर्मियों, फाइनेंस और फंक्शन की जरूरत है। पंचायतों को पंचायती राज संस्थानों को मजबूत बनाने में यह तीनों एक दूसरे के पूरक हैं। सही मायने में देखा जाए तो पंचायती राज संस्थानों को अधिकारों के हस्तांतरण का मतलब है संविधान की ग्यारहवीं अनुसूची में शामिल 29 विषय (ग्राम पंचायत, पंचायत समिति अथवा जिला पंचायत के स्तर पर कार्यों का हस्तांतरण) स्पष्ट रूप से परिभाषित हों और उसके लिए पर्याप्त फंड (विभिन्न कार्यों को पूरा करने के लिए पंचायत को कितने फंड की आवश्यकता है) की व्यवस्था हो। इसके लिए कर्मी भी सुनिश्चित किए जाएं ।पंचायतों के पास पर्याप्त संख्या में कर्मी होते हैं जो उचित कानूनी ढांचे के दायरे में मुक्त वातावरण में निर्धारित कार्यों को करते हैं।
इस संदर्भ में हम यह देखते हैं कि वास्तविकता क्या है-
पंचायती राज मंत्रालय ने 2015-16 में विभिन्न राज्यों में इस बात का अध्ययन कराया कि पंचायतों को कितने अधिकार हस्तांतरित किए गए हैं। अध्ययन में यह बात सामने आई कि किसी भी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश में 73वें संविधान संशोधन के ढाई दशक बाद भी अधिकारों का 100% हस्तांतरण नहीं हुआ था। आज भी परिस्थितियां बेहतर नहीं हुई हैं। इस दिशा में राजनीतिक नेताओं और अफसरों ने कभी कोई उत्साह नहीं दिखाया ताकि पंचायत वास्तविक अर्थों में स्वशासित संस्थानों के रूप में कार्य कर सकें। सिर्फ केरल ने तीन चौथाई अधिकारों का हस्तांतरण किया है। उसके अलावा केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, तेलंगाना, सिक्किम और पश्चिम बंगाल ने 50% अधिकार पंचायतों को सौंपे हैं।
गांधी जी के जन्मदिन पर पंचायतों को पर्याप्त अधिकारों और शक्ति के साथ तीसरे स्तर की सरकार के रूप में स्थापित किया जाना चाहिए। ये केंद्र और राज्य सरकारों के पूरक मात्र नहीं होने चाहिए। इसके साथ ही पंचायतों के 30 लाख से अधिक निर्वाचित प्रतिनिधियों को भी पंचायती राज कानून के प्रावधानों को लागू करने के लिए आगे आना चाहिए। उन्हें अपने स्तर पर अतिरिक्त फाइनेंस जुटाने और शांति तथा सामाजिक सौहार्द स्थापित करने की दिशा में कार्य करना चाहिए। इसके लिए उन्हें वार्ड सभा और ग्राम सभा की बैठकें आयोजित करनी चाहिए। ग्राम वासियों और पंचायत नेताओं को उनकी जिम्मेदारियों के प्रति जागरूक करने में सिविल सोसाइटी की भूमिका भी महत्वपूर्ण है।
(लेखक इंडियन इकोनॉमिक सर्विस के पूर्व अधिकारी और कृपा फाउंडेशन के अध्यक्ष हैं। उनसे mpal1661@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)