किसान आंदोलन: दायरा बढ़ाकर राष्ट्रीय मंच बनाने की जरूरत
किसानों का 2024 तक दिल्ली की सीमाओं पर विरोध में बैठना पर्याप्त नहीं हो सकता उन्हें दीर्घकालिक सफलता के लिए इस आंदोलन को बड़ा और व्यापक बनाना होगा जिसके लिए एक नई राह की जरूरत है जिसमें लक्ष्य को हासिल करने के लिए व्यवहारिकता हो
किसान नेता राकेश टिकैत ने कुछ महीने पहले कहा था कि अगर उनकी मांगों को नहीं माना गया तो साल 2024 तक किसान दिल्ली के बॉर्डरों पर धरने पर बैठने को तैयार हैं । टिकैत ने यह बयान तब दिया था जब किसान नेताओं औऱ सरकार के बीच लगातार बढ़ती तनातनी के बीच जनवरी के बाद से सरकार की तरफ से औपचारिक बातचीत भी बंद हो गई । लेकिन सरकार को लगता है कि किसानों की मांगों को फिलहाल नजरअंदाज किया जा सकता है ,उनको थकाया जा सकता है। इसलिए उनका मांगों में से कुछ भी मानने की जरूरत नहीं है ।
लखीमपुर खीरी की शर्मनाक घटना भी सरकार को इस मुद्दे को सुलझाने के लिए अपना रुख बदलने के लिए तैयार नहीं मजबूर नहीं कर सकी। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) ने किसानों में बढ़ते असंतोष पर चिंता व्यक्त की है औऱ वह चाहते हैं कि सरकार औऱ किसानों के बीच कोई समझौता हो जाय और उसके लिए किसी समझौते पर पहुंचने का रास्ता तैयार हो जाय । क्योंकि किसानों के आंदोलन से सरकार के खिलाफ उपजा अंसतोष कहीं उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद 2024 में होने होने वाले लोकसभा चुनाव पर न भारी पड़ जाय. जो उत्तर प्रदेश चुनावों से भी महत्वपूर्ण है । मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने कहा है कि किसान आंदोलन बड़े पैमाने पर सत्ताधारी पार्टी के वोट में सेंध लगाएगा इसलिए सरकार को इस मामले को सौहार्दपूर्ण तरीके से सुलझाने की जरूरत है। इससे कोई असर पड़ेगा, नहीं तो फिर किसान क्या कर सकते है?
सरकार की योजना
सरकार का रुख उसकी इस समझ पर आधारित है कि वह किसान आंदोलन बारे में कैसे सोचती है। पहला मत है कि सरकार की समझ रही की किसान आंदोलन देश के दूसरे हिस्सों में नहीं फैल रहा है, दूसरा सरकार के लिए अमीर और व्यापारी उसके लिए महत्वपूर्ण है। तीसरा सरकार के दिमाग में बातें बैठ गई हैं कि तीन नये कृषि कानूनों में जो भी प्रावधान हैं उनमें से अधिकांश किसानों को लाभ देने वाले हैं ।
देश के हर क्षेत्र में सरकार किसान समुदाय के बीच में विभाजन पर भरोसा कर रही है। जैसे बिहार या केरल की तुलना में पंजाब में खेती बहुत अलग है । जैसे कि उगाई जाने वाली फसलें, फसल पैटर्न, सिंचाई की उपलब्धता, जोतों का आकार ,भूमि का वितरण, व्यापार की प्रकृति और सरकारी सहायता की सीमा इत्यादि । सरकार अधिकांश किसानों को इन तीन कानूनों के दीर्घकालिक फायदों को स्पष्ट करने या इन तीन कानूनों से किसानों को मिलने वाले लाभ के प्रभाव को समझा नहीं पा रही है। सरकार इस बारे में बहाना बना रही है कि किसान इसको समझने में असमर्थ है । वह इस बात पर भरोसा कर रही है। सरकार को विश्वास है कि अगर सरकारी चैनलों और मीडिया के माध्यम से इस लाइन को बार-बार दोहराया जाता है तो किसानों की भलाई के लिए अधिकतर किसान इन तीन कानों को स्वीकार कर लेंगे।
किसान लंबे समय से संकट का सामना कर रहा है । यहां तक कि वह आत्महत्याएं कर रहे हैं । इसलिए वह हताशा में विरोध कर रहे है। अब निस्संदेह ही किसानों के हालात में सुधारों की जरूरत है। इसलिए अब मुख्य मुद्दा यह होना चाहिए कि किसानों की जो मुख्य समस्याएं हैं उनको दूर करके उनके हालात में सुधार के लिए कदम उठाने की जरूरत है, क्योंकि अब बदलाव की बात नही चलेगी।।
सरकार का तर्क है कि तीन कानून औसत किसान की जरूरतों को पूरा करते हैं। किसानों की समस्या का पूरा दोष किसानों का खून चूसने वाले व्यापारी पर डाल दिया है। इन व्यापारियों की छवि सूदखोर साहूकार के रूप में ,छोटे और मध्यम किसान इतनी गहराई से चित्रित कर रहे है जैसे कि1950 से 1970 के बीच लोकप्रिय हिंदी सिनेमा औसत भारतीय के मन में अंकित था। दूसरी तऱफ इस छवि को प्रस्तुत किया जा रहा है कि मुक्त बाजार से किसानों की समस्याओं से मुक्ति मिलेगी और उनके हालात में सुधार होगा। कॉरपोरेट क्षेत्र की छवि को इस तरह प्रस्तुत किया जा रहा है कि मध्यम वर्ग के लोगों को इससे अच्छी नौकरियां मिलेंगी ।
लोगों के बीच छोटे व्यापारियों को सूदखोर साहूकार के रूप में प्रस्तुत कर किसानों को इसते चंगुल से बचाने के लिए सरकार यह कानून लाई है। वहीं कॉरपोरेट सेक्टर को कृषि उपज के व्यापार में प्रवेश कराने के लिए लोगों के सामने उनकी एक आदर्श छवि प्रस्तुत कर रहे हैं।
किसानों का दृष्टिकोण
तीन कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन कर रहे किसानों का तर्क है कि यह बदलाव उनके लिए विनाशकारी होगा। पूंजी और नीतियों पर अपनी पकड़ रखने वाले कॉपोरेट्स कृषि उपज के व्यापार में आ जाने से यह किसानों की हालत व्यापारियों से भी बदतर कर देंगे। किसान तीनों कानूनों को कॉर्पोरेट समर्थक के रूप में देख रहे हैं। उनका मानना है कि आने वाले समय में इनके चलते असमानता बढ़ेगी और किसानों को डर है कि वह अपनी भूमि का मालिकाना हक खो देंगे। कारपोरेट्स बाजार की प्रतिस्पर्धा को दूर करने लिए पहले अधिक मूल्य देते हैं और इसके बाद जब उनका एकाधिकार हो जाता है तो मूल्य बढ़ाकर शोषण करते हैं । जैसे साल 2015 से टैक्सी एग्रीगेटर्स ने यही किया है। किसानों का मानना है कि शुरू में कॉरपोरेट्स मंडियों के बाहर उपज के लिए अच्छी कीमत की पेशकश कर सकते हैं जिससे सरकारी मंडियों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। अगर एक बार ऐसा हो गया तो देश में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था को लागू करना असंभव हो जाएगा, जैसा कि बिहार में हुआ। जहां 2006 में एग्रीकल्चरल प्रॉड्यूस मार्केट कमेटी (एपीएमसी) एक्ट को समाप्त कर दिया गया था।
सरकार सैद्धांतिक तौर पर तर्क दे रही है वह एमएसपी या एपीएमसी को समाप्त नहीं कर रही है। लेकिन जो व्यवहारिक स्थिति है वह समय के साथ इनकी समाप्ति की ओर इशारा करती है। जैसा कुछ रिपोर्टों से पता चलता है कि तीन कानूनों के संसद में पारित होने के बाद कुछ मंडियों ने काम करना बंद कर दिया है । ऐसे में किसान चाहते हैं कि सरकार भविष्य में एमएसपी औऱ एपीएमसी प्रणाली के बरकरार रहने की कानूनी गारंटी दे तो उसको लेकर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
अभी तक के अनुभव के आधार कहा जा सकता है कि समृद्ध वर्ग आंदोलनों का नेतृत्व करते हैं इसका मतलब यह नहीं निकाला जा सकता कि वह दूसरे वर्गों के हितों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। गरीबों के पास न तो इतना समय और साधन हैं कि वह अपनी मजदूरी छोड़ कर कानूनों का विरोध करें। साथ ही बाजार के कामकाज या वैश्वीकरण जैसे जटिल दीर्घकालिक मुद्दों पर विचार करने के लिए कहां से उनको फुरसत मिलेगी । यहां तक कि जाने-माने अर्थशास्त्री भी बाजारों के बारे में गलत साबित होते हैं। उदाहरण के लिए, यूएस सेंट्रल बैंक (फेडरल रिजर्व) के प्रमुख एलन ग्रीनस्पैन ने 2008 में सीनेट की सुनवाई (वैश्विक वित्तीय संकट के बाद) में स्वीकार किया था यह कहना कि मार्केट्स सेल्फ करेक्टिव है और वहां हो रहे स्पेकुलेशन पर रोक के लिए सरकार को हस्तक्षेप की जरूरत नहीं है, सही नहीं था।
अमीर देशों के साथ तुलना
मार्केट्स नाकाम होते है । तो ऐसे में क्या कोई मार्केट्स के कुशलता से काम करने की धारणा पर भरोसा कर सकता है। देश की खेती पर निर्भर कम से कम 50 फीसदी आबादी का जीवनयापन इन कानूनों से प्रभावित होगा। किसानों का कहना है कि इन कानूनों पर उनसे सलाह नहीं ली गई जो हमारे लोकतंत्र और नीति निर्माण की प्रकृति की खामियों को उजागर करता है।
यह तर्क दिया जाता है कि इस विषय पर विचार विमर्श बहुत पहले से चल रहा था यहां तक कि यूपीए सरकार भी इसी तरह की नीतियों को लागू करने के पक्ष में थी । लेकिन जिन किसानों और विशेषज्ञों के साथ विचार विमर्श किया गया था वह लोग भी बाजार व्यवस्था के समर्थक हैं। जब साल 1991 में नई आर्थिक नीतियों (एनईपी) को लांच किया गया था, जिसका उद्देश्य सम्पूर्ण बाजारीकरण था, उसके अधिकांश अर्थशास्त्री वाशिंगटन की आम सहमति के समर्थक बन गए। क्या भारत जैसे गरीब देश के लिए वह सही था ? अमेरिका और यूरोपीय संघ जैसे अमीर देशो का मानना है कि कि कृषि बाजार विफल हो जाते हैं और सरकार का हस्तक्षेप जरूरी है। इसलिए उनके देशों में किसानों को भारी सब्सिडी मिलती है। और संभव भी है क्योंकि वहां आबादी का बहुत कम हिस्सा खेती पर निर्भर है । जबकि भारत में 50 फीसदी आबादी कृषि पर निर्भर है । भारत जैसे देश की सब्सिडी देने की क्षमता कम है। भारत में सामाजिक-आर्थिक स्थितियां अमीर देशों से बहुत भिन्न हैं, जैसे संचालन का पैमाना, कौशल स्तर, पूंजी और विपणन तक पहुंच, इत्यादि । इसलिए भारतीय किसानों की समस्याओं का समाधान अलग होना चाहिए। मुद्दा यह है कि कृषि में जो 50 फीसदी आबादी निर्भर है उसका उचित आय स्तर पर कैसे टिकाऊ रहे। अगर कृषि पर निर्भर लोगों की संख्या कम करनी है तो क्या वहां से विस्थापित होने वाले लोगों को उत्पादक काम दिया जा सकता है। यह मुश्किल लगता है। भारतीय किसानों की स्थिति अमीर देशों की तुलना में बदतर है जहां उनके पास आय और सरकारी सहायता दोनों का उच्च स्तर है। भारतीय किसानों को सरकार की मदद की जरुरत है। हमारे देश में किसानों को धनी देशो में मिलने वाली सहायता से भी अधिक सहायता चाहिए । इसलिए फ्री मार्केट की तरफ हम नहीं जा सकते ।
भारतीय किसानों की स्थिति
अगर सरकार का यह तर्क सही है कि पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी में विरोध कर रहे लोग धनी और समृद्ध किसान और व्यापारी हैं तो इसका मतलब ये है कि ये वह लोग हैं जो कृषि उपज में 'मुक्त बाजार' से डरते हैं। यदि ऐसा है तो क्या बड़े पैमाने पर गरीब, छोटे और सीमांत किसान, जो देश में कुल किसानों का 85 फीसदी हैं क्या उनसे यह उम्मीद की जा सकती है कि वह मुक्त बाजार से निपट लेंगे ।
देश में कृषक परिवारों की संख्या कितनी है? पीएम किसान सम्मान योजना 14.5 करोड़ जोत या किसान परिवारों को लाभान्वित करने के लिए थी। बेशक, इनमें से कई किसान परिवारों की मजदूरी जैसी गैर-खेती गतिविधियों से अधिक आय हो सकती है। ऐसे में यह तर्क दिया जाता है कि ऐसे परिवारों को किसान नहीं माना जाना चाहिए। इनको इससे बाहर करने पर किसान परिवारों की संख्या 7.5 करोड होती है। यह संख्या कृषि उपज बाजारों की प्रकृति को समझने की कुंजी है।
साढ़े सात करोड़ किसानों का कृषि उपज की कीमत पर कोई नियंत्रण नहीं है, वह यह तय करने की स्थिति में नहीं हैं कि उन्हें क्या दाम मिलना चाहिए। जो अधिकांश गैर-कृषि उत्पादों के बिल्कुल उलट है। इन उत्पादों के विक्रेताओं की संख्या सीमित होती है और वह अपनी लागत (जिसे प्राइम कॉस्ट कहा जाता है) के आधार पर अपने उत्पाद की कीमत तय करते हैं। इस लागत पर वह बाजार में अपने एकाधिकार की डिग्री के आधार पर एक मार्क-अप लागू करते हैं ताकि लाभ अर्जित किया जा सके। अगर उनके व्यवसाय में साल दर साल घाटा होने लगेगा तो उनके व्यवसाय बंद हो जाते हैं।
लेकिन किसान ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि यह उनके अस्तित्व का सवाल है। इसका विकल्प उनके पास नहीं है जहां वह कम उत्पादकता के बावजूद टिके रहे । जो लोग शहरी क्षेत्रों में स्थायी रूप से या अस्थाई रूप से रहते हैं, वह असंगठित क्षेत्र के कामों में शामिल हो जाते हैं वह कम मजदूरी पर काम करते हैं और अनिश्चित परिस्थितियों में अवैध मलिन बस्तियों में रहते हैं।
कृषि उपज के अलाभकारी मूल्य का अर्थ है कि कृषि में अगर उत्पादन अधिक होता है तो उसका कोई मतलब नही रह जाता है। इसके कारण औद्योगीकरण और शहरीकरण को बढ़ावा मिलता है। भारतीय नीति निर्धारक नीतियां तय करने में पश्चिमी देशों की नकल कर जो नीतियां बनाते हैं वह ऊपर से नीचे की और जाने वाली धारणा से काम करते हैं। इस तरह की नीतियों ने कृषि और ग्रामीण क्षेत्र को हाशिए पर ला दिया। यहां तक कि जब किसान निर्णय लेने की स्थिति में रहे हैं, तब भी उनके पास एक अलग फ्रेमवर्क नहीं था। नतीजतन, कृषि और ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी का दुष्चक्र और ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच बढ़ती असमानता स्थायी रूप से बनी रही।
किसानों का संकट और ऋणग्रस्तता का कारण है कृषि उपज के लिए लाभकारी मूल्य का नहीं मिलना जिससे वह लाभ कमा सके (जैसा कि गैर-कृषि में) होता है। असल में किसानों को फार्म गेट पर अनुकूल टर्म्स ऑफ ट्रेड चाहिए , पर यह होगा कैसे?
इसके लिए नीतियों में बदलाव की जरूरत है और इस बदलाव के लिए मानसिकता में बदलाव की जरूरत है। कृषि के साथ गैर-कृषि क्षेत्र की तरह व्यवहार नहीं किया जा सकता है। रोजगार उत्पन्न करने के लिए उत्साहित करना होगा, प्रौद्योगिकी और निवेश नीतियों को सही करना होगा, श्रमिकों को एक उचित मजदूरी देनी होगी,टैक्स नीतियों को संशोधित करना होगा साथ ही कृषि बाजारों में सरकारी हस्तक्षेप जरूरी है । क्या भारतीय अर्थव्यवस्था का ऐसा आमूलचूल परिवर्तन संभव है?
शहरी और औद्योगिक अभिजात्य वर्ग अर्थव्यवस्था में इस तरह के परिवर्तन का विरोध करेंगे। राजनीतिक दल भी इस तरह के बदलाव का समर्थन नहीं करेंगे क्योंकि वह भी बड़े पैमाने पर बड़े व्यवसायों के हित के लिए काम करते हैं। विकल्प को यूटोपियन के रूप में चित्रित किया जाएगा, जिसमें इससे पैदा होने वाली तथाकथित सैकड़ों कठिनाइयों को बताया जाएगा। लेकिन वर्तमान व्यवस्था में भारतीय समाज द्वारा गरीबी, असमानता, पर्यावरण का क्षरण जैसी तमाम चुनौतियों को सामना किया जा रहा है उनका क्या?
क्रांतिकारी परिवर्तन नेतृत्व और किसान
किसी भी सामाजिक परिवर्तन के लिए सामाजिक-आर्थिक आंदोलनों की जरूरत होती है जो अचेतना को परिवर्तन की ओर ले जाते हैं और एक राजनीतिक परिवर्तन लाते हैं। किसान आंदोलन के नेताओं को सफलता के लिए ऐसी भूमिका निभाने की जरूरत है। वर्तमान में वह केवल खुद के लिए और कृषि के लिए रियायतों की मांग करते नजर आ रहे हैं। इसे आगे अर्थव्यवस्था में व्यापक बदलाव की मांग तक बढ़ाया जाना चाहिए क्योंकि यही उनकी समस्या का समाधान है।
इन मांगों में कृषि और गैर-कृषि, श्रमिकों और व्यवसायों के विभिन्न वर्गों को शामिल किया जाना चाहिए और उन्हें राष्ट्रीय हित के रूप में चित्रित किया जाना चाहिए। बिजनेस लॉबी अपने लिए रियायतों की मांग करते हुए यही दावा करती है। वह बात करते हैं कि श्रम, व्यापार, कराधान, निवेश, बैंकिंग और वित्त और परिवहन की नीतियां क्या होनी चाहिए।
किसानों को भी इन नीतियों पर अपने विचार अपने नजरिए से पेश करने की जरूरत है। वह लैंगिक, न्यूनतम मजदूरी और विस्थापन के मुद्दों को भी उठा सकते हैं। चूंकि किसान देश की आबादी का 50 फीसदी से अधिक हैं इसलिए जो उनके हित में होगा वह राष्ट्रीय हित के खिलाफ हो ही नहीं सकता। बस उसे अभिव्यक्त करने का आना चाहिए। किसानों का 2024 तक दिल्ली की सीमाओं पर विरोध में बैठना पर्याप्त नहीं हो सकता उन्हें दीर्घकालिक सफलता के लिए इस आंदोलन को बड़ा और व्यापक बनाना होगा जिसके लिए एक नई राह की जरूरत है जिसमें लक्ष्य को हासिल करने के लिए व्यवहारिकता हो।
(अरूण कुमार, इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में माल्कॉम आदिसेशैय्या चेयर प्रोफेसर हैं। वह इंडियन इकोनॉमी सिंस इंडिपेंडेंस परसिस्टिंग कोलोनियल डिसरप्सन और इंडियन इकोनॉमीज ग्रेटेस्ट काइसिस इंपैक्ट ऑफ द कोरोनावायरस एंड द रोड अहेड किताबों के लेखक हैं )