इकोसिस्टम मॉडलिंग और डेटा आधारित नीति-निर्माण की जरूरत
बढ़ते जलवायु संकट को देखते हुए पर्यावरण संरक्षण के लिए पारिस्थितिकी तंत्र और भू-दृश्य आधारित दृष्टिकोण पर अधिक जोर दिया जा रहा है। यह अधिक समग्र दृष्टिकोण है, जिसमें भूमि और जल संसाधनों के साथ-साथ पारिस्थितिक तंत्र में रहने वाले सभी जीवों के एकीकृत प्रबंधन पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।
वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) की लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट के अनुसार 1970 के दशक से वन्यजीवों की आबादी में लगभग 69 फीसदी की गिरावट आई है। इसका एक प्रमुख कारण प्राकृतिक आवासों का नष्ट होना है। इससे वन्यजीवों के लिए जगह कम रह गई है और बदलती परिस्थितियों के अनुकूल ढलने की उनकी क्षमता सीमित हो गई है। बढ़ते जलवायु खतरों के साथ वन्यजीव आबादी की बढ़ती हानि को देखते हुए पर्यावरण संरक्षण के लिए पारिस्थितिकी तंत्र और भू-दृश्य आधारित दृष्टिकोण पर अधिक जोर दिया जा रहा है। पर्यावरण संरक्षण के लिए यह अधिक समग्र दृष्टिकोण है, जिसमें भूमि और जल संसाधनों के साथ-साथ पारिस्थितिक तंत्र में रहने वाले सभी जीवों के एकीकृत प्रबंधन को महत्व दिया जाता है।
सदी के अंत तक, दुनिया के अनुमानित 23 फीसदी पर्यावास जलवायु परिवर्तन के कारण नष्ट हो जाने की आशंका है और वर्तमान तापमान वृद्धि के कारण दुनिया के लगभग 10 फीसदी स्तनधारियों के आवास खत्म होने की आशंका है। समग्र भू-दृश्य आधारित संरक्षण में डेटा का उपयोग कर यह अनुमान लगाया जाता है कि भविष्य में पारिस्थितिक तंत्र कैसे प्रभावित हो सकते हैं। जलवायु मॉडलिंग ने जलवायु कार्रवाई के लिए मानक स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जो यह दर्शाता है कि कहां महत्वपूर्ण बदलाव आने की संभावना है और मानव आबादी पर उनके व्यापक प्रभाव पड़ने की संभावना है। अब पारिस्थितिक तंत्र के लिए इसी तरह के पूर्वानुमानित मॉडल की आवश्यकता है। नीतिगत निर्णयों के लिए बेंचमार्क बनाए जाएं जो जलवायु संकट से निपटने और ग्रामीण समुदायों के भविष्य के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले पारिस्थितिकी तंत्र की पहचान कर सकें।
इकोसिस्टम मॉडलिंग
जलवायु विज्ञान यह निर्धारित करने के लिए परिष्कृत मॉडलिंग प्रणालियों पर बहुत अधिक निर्भर करता है कि बदलते वायुमंडलीय कारक जैसे - ग्रीनहाउस गैसें, बदलते तापमान, ग्लेशियर, जलधाराएं और मौसम प्रणालियां आपस में कैसे जुड़े हैं और एक-दूसरे को कैसे प्रभावित करते हैं। जलवायु-आधारित पारिस्थितिकी तंत्र मॉडल के जरिए कार्बन सिंक (जैसे अमेजोन वर्षावन) के रूप में कार्य करने वाले प्रमुख पारिस्थितिक तंत्रों के टिपिंग बिंदु की भविष्यवाणी की जा सकती है। अध्ययनों से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन से वैश्विक स्वास्थ्य को खतरा है क्योंकि तापमान बढ़ने से मच्छरों जैसे रोग वाहकों के आवास का विस्तार हो रहा है। भविष्य में, इससे पारंपरिक उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के बाहर मलेरिया और डेंगू जैसी बीमारियों का प्रसार बढ़ने की आशंका है।
फिलहाल पारिस्थितिकी तंत्र मॉडलिंग का मुख्य रूप से छोटे पैमाने पर उपयोग किया जा रहा है जो एक विशेष पारिस्थितिकी तंत्र या लैंडस्कैप पर ध्यान केंद्रित करता है। आमतौर पर इसका उपयोग संरक्षण से जुड़े विभिन्न निर्णयों के परिणामों का परीक्षण करने के लिए किया जाता है। जैसे कि एक नई प्रजाति को लाने के व्यापक प्रभाव, प्रजातियों की आबादी का प्रबंधन, प्रवासन और आवासों को बहाल करना। जलवायु परिवर्तन भारत में जंगलों को कैसे प्रभावित कर रहा है, यह समझने के लिए 2022 के एक अध्ययन से पता चला कि यह प्रभाव कितना जटिल हो सकता है। 2000 से 2018 के बीच के आंकड़ों के अध्ययन में पाया गया कि जलवायु परिवर्तन की उच्च दर यानी जलवायु वेग का वन हानि पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ा। जांच करने पर पता चला कि उत्तर पश्चिम भारत में तेजी से घटती वर्षा और बढ़ता तापमान वन हानि का एक मजबूत पूर्वानुमान था। उत्तर पूर्व भारत में, वर्षा और तापमान में गिरावट हो रही थी, जिससे वनों का नुकसान हो रहा था। कृषि उपज में गिरावट और अधिक ईंधन की लकड़ी की पैदावार जैसे मध्यस्थ कारक वनों के नुकसान में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे।
किसी पारिस्थितिकी तंत्र के भीतर व्यक्तियों के व्यवहार की भविष्यवाणी करना पारिस्थितिकी तंत्र मॉडल के लिए सबसे कठिन बाधाओं में से एक को दर्शाता है। जलवायु मॉडल काफी हद तक स्थलीय प्रणालियों पर निर्भर करते हैं। पारिस्थितिकी तंत्र मॉडल पारिस्थितिकी तंत्र में व्यक्तिगत कारकों द्वारा प्रभावित होते हैं। इसमें लोग और वन्यजीव दोनों शामिल होते हैं, जिससे भविष्यवाणियां जटिल हो जाती हैं।
नीति निर्माण में इकोसिस्टम मॉडलिंग का महत्व
भारत दुनिया में सबसे अधिक जलवायु संकटग्रस्त देशों में से एक है। यह तेजी से अनियमित मानसून, बढ़ते तापमान और कृषि आय के लिए मौसम पर निर्भर अत्यधिक ग्रामीण आबादी की चुनौती का सामना कर रहा है। भारत का पांचवां हिस्सा सूखे जैसी स्थितियों से प्रभावित रहता है। जलवायु परिवर्तन के कारण 2050 तक फसलों की पैदावार में 9 फीसदी तक की गिरावट आने की आशंका है। भारतीय वन सर्वेक्षण रिपोर्ट-2021 के अनुसार, इस दशक के भीतर भारत के 45-64 फीसदी वन जलवायु परिवर्तन हॉटस्पॉट के भीतर होंगे। यह समझने के लिए कि बदलते जलवायु पैटर्न वनों को कैसे प्रभावित कर रहे हैं और यह अनुमान लगाने के लिए कि वे भविष्य में कैसे प्रभावित होते रहेंगे, जंगलों और जलवायु के डेटा की मदद से पारिस्थितिकी तंत्र मॉडलिंग की आवश्यकता है।
वन हानि और पारिस्थितिकी तंत्र और जलवायु डेटा पर रिमोट सेंसिंग डेटा को सक्रिय रूप से ट्रैक करना भी महत्वपूर्ण है कि वन हानि आस-पास के क्षेत्रों को कैसे प्रभावित करती है। उदाहरण के लिए माइक्रॉक्लाइमेट में परिवर्तन, मिट्टी की संरचना और उर्वरता में परिवर्तन, जैव विविधता डेटा, आस-पास के समुदायों में कृषि उपज, मानव-पशु संघर्ष आदि से जुड़े आंकड़े पारिस्थितिकी तंत्र मॉडलिंग के लिए महत्वपूर्ण हैं। इन मॉडलों का उपयोग पूर्वानुमान के लिए किया जा सकता है ताकि यह पता लगाया जा सके कि बदलते वन भू-दृश्य सामाजिक परिदृश्य को कैसे बदलते हैं। इन मॉडलों और प्रणालियों के निर्माण के लिए देश के भीतर शैक्षणिक और गैर-शैक्षणिक अनुसंधान को प्रोत्साहित करने के लिए अधिक निवेश की आवश्यकता है। इन प्रणालियों की मदद से जलवायु परिवर्तन के संकट के मद्देनजर भविष्य के लिए साक्ष्य-आधारित डेटा-संचालित निर्णय लेने में मदद मिल सकती है।
(लेखक सामाजिक उद्यमी और बालीपारा फाउंडेशन के अध्यक्ष हैं। बालीपारा फाउंडेशन पूर्वी हिमालयी समुदायों के साथ मिलकर पर्यावरण संरक्षण, कृषि और आजीविका के क्षेत्र में काम करता है।)