भारत के कृषि निर्यात की चुनौतियां और डब्लूटीओ में विरोध की तेज होती आवाजें
भारत के लिए कृषि निर्यात को प्रोत्साहित करने के लिए अनुकूल महौल बना हुआ हैं। मगर पिछले कुछ साल से विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में भारत के निर्यात के खिलाफ विरोध की आवाजें लगातार सुनी जा रही हैं और यह आवाजें तेज होती जा रही हैं। कृषि पर विश्व व्यापार संगठन की समिति में आस्ट्रेलिया, यूरोपीय संघ और अमेरिका सहित कई सदस्यों ने तर्क दिया है कि भारत का प्रमुख कृषि उत्पादों का निर्यात सब्सिडी पर आधारित है
केंद्न सरकार द्वारा लाये गये तीन नये केंद्रीय कृषि कानूनों के उद्देश्यों में से एक कृषि विपणन में सुधार लाकर भारत को दुनिया में प्रमुख कृषि निर्यातक के रूप में स्थापित किया करना है। आधी सदी से भी अधिक समय से भारत की कृषि नीति काफी हद तक घरेलू खाद्य सुरक्षा पर केंद्रित थी । लेकिन सरकार के कृषि पर बदले हुए नीतिगत रुख के साथ ही इत्तेफाक से साल 2020-21 में भारत के कृषि निर्यात में लगभग एक चौथाई की उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गयी है। जहां देश का कुल निर्यात 300 अरब डॉलर के मनोवैज्ञानिक स्तर नीचे आ गया था वहीं कृषि में निर्यात में वृद्धि स्वागत योग्य घटनाक्रम रहा। भारतीय कृषि के निर्यात में इस बेहतर प्रदर्शन से देश के नीति निर्माताओं द्वारा इस क्षेत्र के लिए बनाई गई नई नीति की पुष्टि भी हुई।
भारत का कृषि निर्यात साल 2020-21 में बढ़कर 32.5 अरब डॉलर हो गया लेकिन साल 2012-13 में निर्यात किए गये 32.7 अरब डॉलर के रिकॉर्ड स्तर से अभी यह नीचे है । उस साल देश के कुल निर्यात में कृषि निर्यात का हिस्सा 11 फीसदी से अधिक हो गया था जो कुल निर्यात में कृषि क्षेत्र की इस सदी की सबसे अधिक हिस्सेदारी थी। कृषि निर्यात में यह उछाल अनाज,वनस्पति तेल, चीनी और मोलेसेज के तीन उत्पाद समूहों के कारण आया।
इस साल 10 अरब डॉलर का खाद्यान्न निर्यात किया गया जो 2013-14 में हासिल किए गए 10.5 अरब डॉलर के रिकॉर्ड खाद्यान्न स्तर से थोड़ा कम है। हमेशा की तरह, चावल प्रमुख निर्यात उत्पादथा लेकिन निर्यात की जाने वाली चावल की किस्म में एक महत्वपूर्ण बदलाव आया है । चावल के निर्यात में हमेशा से बासमती का वर्चस्व रहा है लेकिन 2020-21 में गैर-बासमती चावल के निर्यात में तेजी आई है । पश्चिम एशिया के प्रमुख बाजारों में बासमती के कम निर्यात होने के कारण बासमती के निर्यात में गिरावट आई । भारत की इस प्रमुख चावल किस्म के आयातक देश ईरान को निर्यात में 53 फीसदी की गिरावट के कारण यह अधिक प्रभावित हुआ है।
साल 2020-21 के दौरान गैर बासमती सेला चावल (पारबॉयल्ड) और सामान्य गैर बासमती चावल दोनों के निर्यात में वृद्धि में यह वृद्धि हुई है । सेला चावल का निर्यात दोगुना होकर लगभग 2.4 अरब डॉलर का हो गया और सामान्य चावल की किस्म का निर्यात लगभग तीन गुना होकर 1.6 अरब डॉलर का हो गया। भारत के सेला चावल की मांग ज्यादतर अफ्रिका के देशों में है। कोरोना महामारी के दौरान इसका बाजार काफी तेजी से बढ़ा। जबकि सामान्य चावल की मांग के मामले में नेपाल के बाद अब मलयेशिया इसके दूसरे बड़े मार्केट के रूप में उभरा। बांग्लादेश ने चावल आयात के साथ ही गेहूं का भी आयात किया है। इससे भारत के दूसकरे बड़े खाद्यान्न गेहूं को वैश्विक बाजार में अपनी बड़ी उपस्थिति बनाने में मदद मिली है ।
चीन को वनस्पति तेल का निर्यात में काफी तेजी आई है । साल 2020-21 के दौरान वहां 10 गुना से अधिक निर्यात बढ़ गया। इसमें अधिकांश लगभग 97 फीसदी हिस्सेदारी मूंगफली तेल की रही जिसका निर्यात मूल्य लगभग 40 करोड़ डॉलर था।
भारत के कृषि निर्यात को कई आकस्मिक कारकों के चललते लाभ हुआ । वियतनाम द्वारा चावल के निर्यात पर लगाया प्रतिबंध और म्यांमार में राजनीतिक अनिश्चितताओं ने भारतीय निर्यातकों को बाहर के देशों में निर्यात करने का पूरा अवसर मिला जिसका उन्होंने पूरा फायदा उठाया। इसके अलावा चीन में आई बाढ़ से उसकी मूंगफली की एक तिहाई से अधिक फसल खराब हो गई थी। इस कारण चीन में खाद्य तेल की कमी को पूरा करना का अवसर भारत के हाथ में आ गया।
भारत के लिए कृषि निर्यात को प्रोत्साहित करने के लिए अनुकूल महौल बना हुआ हैं। मगर पिछले कुछ साल से विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में भारत के निर्यात के खिलाफ विरोध की आवाजें लगातार सुनी जा रही हैं और यह आवाजें तेज होती जा रही हैं। कृषि पर विश्व व्यापार संगठन की समिति में हुई एक चर्चा मे आस्ट्रेलिया, यूरोपीय संघ और अमेरिका सहित कई सदस्यों ने तर्क दिया है कि भारत का प्रमुख कृषि उत्पादों का निर्यात सब्सिडी पर आधारित है। इन सदस्यों का प्रमुख तर्क है कि भारत की वैश्विक बाजारों में मजबूत उपस्थिति दर्ज कराने के पीछे किसानों को दी जा रही सब्सिडी है।
फिलहाल भारत चीनी के निर्यात पर सब्सिडी के खिलाफ विवाद का सामना कर रहा है। यह विवाद ब्राजील, आस्ट्रेलिया और ग्वाटेमाला ने डब्ल्यूटीओ के विवाद निस्तारण पंचाट में दाखिल किया हुआ है। इन देशों का आरोप है कि भारत गन्ना उत्पादक किसानों, चीनी उत्पादकों और चीनी निर्यात पर सब्सिडी देता है। यह सब्सिडी विश्व व्यापार संगठन के कृषि पर समझौते (एओए), सब्सिडी पर समझौते और काउंटरवेलिंग प्रावधानों के खिलाफ है । इस विवाद को दाखिल करने वाले तीन देशों के अलावा चीन, यूरोपीय संघ, इंडोनेशिया, जापान और अमेरिका सहित 14 देश तीसरे पक्ष के रूप में इसमें शामिल हो गये हैं ।
हाल ही में विश्व व्यापार संगठन के 33 सदस्यों के एक समूह जी-33 का एक अप्रत्य़ाशित प्रस्ताव दिया है जो विकासशील देशों के कृषि के मुद्दों पर हितों की बात करता है लेकिन यह प्रस्ताव भारत के निर्यात की कोशिशों को झटका लग सकता है। जी-33 विकासशील देशों द्वारा खाद्य सुरक्षा के उद्देश्यों के लिए सार्वजनिक स्टॉक होल्डिंग (पीएसएच) का समर्थन कर रहा है। उसका कहना है कि एओए के तहत लागू सब्सिडी की सीमा खाद्य सुरक्षा के मकसद से दी जा रही सब्सिडी के लिए बाधक नहीं बननी चाहिए। इस समय एक अस्थायी विराम के चलते अगर कोई देश कृषि उत्पादन के मूल्य के 10 फीसदी से बराबर सब्सिडी की सीमा का उल्लंघन भी करता है तो उसके खिलाफ कोई विवाद दाखिल नहीं किया जा सकता है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के चलते भारत को इस स्थिति का सबसे अधिक फायदा मिल रहा है।
जी-33 समूह का कहना है कि सार्वजनिक स्टॉक भंडारण के इस मुद्दे का स्थायी हल निकाला जाना चाहिए। भारत जी-33 का सक्रिय सदस्य रहा है लेकिन यह प्रस्ताव भारत के खिलाफ जाता है। इसमें कहा गया है कि अब इस आवेदन से भारत ने खुद को दूर कर लिया है क्योंकि यह निवेदन कहता है कि किसी भी सदस्य देश द्वारा खाद्य सुरक्षा के लिए खरीदे गये पब्लिक स्टॉक से निर्यात नहीं किया जाना चाहिए। किसी सदस्य देश द्वारा आयात के लिए निवेदन करने की स्थिति में ही इस सटॉक से निर्यात की इजाजत होनी चाहिए। करने का प्रयास नहीं करेगा। जब तक आयात करने वाले सदस्य से निवेदन नही आता है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो भारत अपने सार्वजनिक खाद्यान्न स्टॉक से तभी निर्यात कर पाएगा जब उसके पास दूसरे देश से आयात का निवेदन आता है। हालांकि भारत ने खुद को इस प्रस्ताव से अलग कर लिया है। यह प्रस्ताव दो ऐसे विकल्प रखता है जिनमें खाद्य सब्सिडी को जारी रखना या कृषि निर्यात को जारी रखने में से किसी एक का चुनाव करना भारत के लिए लगभग नामुमकिन सी बात है।
( डॉ. बिस्वजीत धर, जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज एंड प्लानिंग के स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज में प्रोफेसर हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं)