किसान दिवस विशेष: चौधरी चरण सिंह के संकल्पों को दोहराने की जरूरत

आजाद भारत के सर्वाधिक स्वीकार्य एवं लोकप्रिय किसान नेता चौधरी चरण सिंह का आज 118वां जन्मदिन है। केंद्र सरकार द्वारा पारित तीन कृषि बिलों को लेकर देशभर के किसान संघर्षरत हैं। उनके संगठनों द्वारा भी सार्वजनिक तौर पर घोषणा की गई थी कि वह 23 दिसंबर को “किसान दिवस” मनाएंगे और अपनी मांगों के समर्थन में उपवास भी रखेंगे।

किसान दिवस विशेष: चौधरी चरण सिंह के संकल्पों को दोहराने की जरूरत

समूचा देश आज “किसान दिवस” मना रहा है। आजाद भारत के सर्वाधिक स्वीकार्य एवं लोकप्रिय किसान नेता चौधरी चरण सिंह का आज 118वां जन्मदिन है। केंद्र सरकार द्वारा पारित तीन कृषि बिलों को लेकर देशभर के किसान संघर्षरत हैं। उनके संगठनों द्वारा भी सार्वजनिक तौर पर घोषणा की गई थी कि वह 23 दिसंबर को “किसान दिवस” मनाएंगे और अपनी मांगों के समर्थन में उपवास भी रखेंगे।

ग्रामीण भारत आज उदास है। अन्नदाता ने विगत 50 वर्षों में रिकॉर्ड उत्पादन कर भारत को न सिर्फ खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाया है, बल्कि आज भारत गेहूं, चावल, शक्कर आदि क्षेत्रों में बड़े निर्यातक के रूप में उभर रहा है। 50, 60, 70 के दशक के वे दिन भी अभी स्मृतियों से लुप्त नहीं हुए हैं, जब खाद्य पदार्थ की घरेलू जरूरत पूरी करने हेतु अमेरिका से गेहूं (पीएल 480) से लेकर कनाडा और अन्य देशों से आयात करना पड़ता था। वहीं आज कोरोना संक्रमण के दौर में भी विगत 6 महीने से 80 करोड़ जरूरतमंद भारतीयों को मुफ्त भोजन की व्यवस्था की गई है, जबकि एफएओ द्वारा संक्रमण काल में दक्षिण एशिया में भुखमरी के संकेत बताए गए हैं। सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सशक्त बनाकर दो तिहाई आबादी को न्यूनतम मूल्य पर गेहूं, चावल और दाल उपलब्ध कराई जा रही है, लेकिन पिछले 28 दिन से अन्नदाता 4.5 डिग्री तापमान में घरबार छोड़कर दिल्ली के सभी प्रवेश द्वारों पर धरनारत हैं। असली भारत की आर्थिक स्थिति चिंताजनक बनती जा रही है। प्रतिदिन कई किसान आत्महत्या कर रहे हैं। चूंकि कृषि लाभ का उपक्रम नहीं बन पा रही है। बैंकों और साहूकारों के कर्ज से मुक्ति मिलने की सभी संभावनाएं लगभग समाप्त हैं। लगभग हर किसान पर औसतन एक लाख रुपये का कर्ज मापा गया है। 70% किसानों के पास 1 हेक्टेयर से कम जोत है, जो कृषि भाषा के अनुसार अलाभकारी माना जाता है। एनएसएसओ के विगत दिनों प्रमाणित आंकड़ों के मुताबिक कृषक परिवार की औसत आय 6428 रुपये आंकी गई है, जो चतुर्थ श्रेणी के सरकारी कर्मचारी से भी कम है। सरकार द्वारा प्राप्त सरकारी सब्सिडी मदद जहां भारत में 20000 रुपये सालाना दी जा रही है। वहीं अमेरिका में प्रतिदिन 6000 करोड़ की सब्सिडी उपलब्ध कराई जा रही है। सन् 1967, 68 से शुरू किए गए न्यूनतम समर्थन मूल्य की प्रक्रिया दिन प्रतिदिन कमजोर होती जा रही है। यह सही है कि एमएसपी प्रक्रिया जारी है और सरकार इसे समाप्त करने का इरादा भी नहीं रखती है। वहीं दूसरी ओर 80 प्रतिशत किसान एमएसपी प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं। गेहूं, चावल, मक्का, बाजरा जैसे किसान उत्पाद के लूट के समाचार अखबारों की सुर्खियां बटोर रहे हैं। सभी सरकारों का रवैया उनके साथ पक्षपात पूर्ण रहा है। कृषक उपज व्यापार एवं वाणिज्य विधेयक 2020 न्यूनतम समर्थन मूल्य को कोई कानूनी अधिकार नहीं बनाता है।

संसद के दोनों सदनों में पारित विधेयक में एमएसपी या खरीद का कोई उल्लेख नहीं है। इसका मकसद किसानों, व्यापारियों को एमएसपी मंडियों के बाहर उपज के क्रय-विक्रय को स्वतंत्रता देना है। एमएसपी और खरीद दो अलग-अलग मुद्दे हैं। एमएसपी ना तो पहले कभी कानून का हिस्सा थी और ना ही आगे किसी कानून का हिस्सा होगी। कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार में बना प्रसिद्ध खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 सिर्फ सार्वजनिक वितरण प्रणाली को एक कानूनी अधिकार प्रदान करता है। इसमें एमएसपी संबंधी ना कोई कानून है और ना कोई सिफारिश की गई है। अफसोस है कि एमएसपी केवल एक नीति है, जो प्रशासनिक फैसले लेने का हिस्सा मात्र है। उसके क्रियान्वय को अनिवार्य बनाने वाला कोई कानून नहीं है। आश्चर्यजनक है कि एमएसपी की सिफारिश करने वाली सी.ए.सी.पी. को भी वैधानिक दर्जा प्राप्त नहीं है। सी.ए.सी.पी. खुद संसद के अधिनियम के जरिए बना कोई वैधानिक निकाय नहीं है। इसके द्वारा की गई सिफारिश सरकार माने ऐसा भी कोई कानून नहीं है। यह मूल्य वृद्धि की सिफारिश मात्र करता है।

 

मुगल काल, ब्रिटिश प्रशासन और स्वतंत्र भारत में इस क्षेत्र को लेकर कोई बड़े बदलाव नहीं हो पाए हैं। गांधी जी के नेतृत्व में चंपारण का किसान आंदोलन भारतीय किसानों को अवश्य यकीन दिलाता था कि स्वतंत्र भारत में उनकी अनदेखी संभव नहीं होगी। स्वामी सहजानंद सरस्वती और सरदार पटेल के नेतृत्व में कई बार किसानों के संगठित आंदोलन भी स्वतंत्र भारत में किसानों को नए सपने दिखा रहे थे। सरदार पटेल की असमय मृत्यु ने देश की बड़ी आबादी को निराश कर दिया। गांव, खेत, खलिहान और उद्योग जगत के विकास की प्राथमिकताओं को लेकर पंडित नेहरू से उनके मतभेद जगजाहिर थे। प्रथम पंचवर्षीय योजना के प्रारूप में कृषि क्षेत्र को लगभग 35% राशि का आवंटन किया गया था, जो दूसरी और तीसरी योजना में घटकर मात्र 10 से 12% ही रह गया।

आजाद भारत में चौधरी चरण सिंह इस विरासत के साथ अपनी सरकारों को घेरते रहे हैं। उनका उद्देश्य छुटपुट राहत दिलाने तक सीमित नहीं था। बल्कि वे ग्रामीण पृष्ठभूमि के लोगों की सत्ता के स्वामित्व को लेकर कार्यरत रहे। पहला विरोध उनका भूमि सुधारों के असरदार क्रियान्वयन को लेकर था। उत्तर प्रदेश के राजस्व मंत्री रहते हुए अपने राज्य में असरदार भूमि सुधारों के नायक बने। दूसरा मुकाबला उनका पंडित नेहरू से सहकारी कृषि को लेकर था। पंडित नेहरू कांग्रेस के पर्याय और स्वतंत्र भारत के सबसे लोकप्रिय नेताओं में शुमार थे।

उनके द्वारा प्रस्तुत आधिकारिक प्रस्ताव का विरोध चौधरी चरण सिंह ने किया तो प्रतिनिधि करतल ध्वनि से उनका समर्थन कर रहे थे। पंडित नेहरू के आधिकारिक प्रस्ताव को पराजित किया गया. लेकिन चौधरी चरण सिंह हाईकमान की आंखों की किरकिरी बन गए। पहली बार पंडित गोविंद बल्लभ पंत उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तब उन्होंने तीन नेताओं को अपना संसदीय सचिव नियुक्त किया। जिसमें लाल बहादुर शास्त्री चौधरी, चौ. चरण सिंह और सी.पी. गुप्ता शामिल रहे। चौधरी चरण सिंह को उत्तर प्रदेश सरकार में निरंतर अवहेलना एवं अपमान झेलना पड़ा। अंततः दुखी होकर उन्होंने 1967 में कांग्रेस छोड़कर भारतीय क्रांति दल का निर्माण किया और उत्तर प्रदेश के पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री बने। आज भी कुशल मुख्यमंत्री के प्रशासनिक क्षमता से पूर्ण पारदर्शी कार्यकाल की सराहना की जाती है।

आज दिल्ली के प्रवेश द्वारों पर किसानों के बड़े जमावड़े आयोजित हैं, जो 23 दिसंबर 1978 को चौधरी साहब के जन्मदिन पर आयोजित किसान रैली की याद दिलाते हैं। आजाद भारत में संपन्न हुई यह अब तक की संख्या बल के आधार पर सबसे सफल रैली रही। यह रैली चौधरी चरण सिंह एवं राजनारायण के मंत्री परिषद से निष्कासन के विरोध में आयोजित की गई थी। जानकारों के अनुसार इसमें 25 लाख से अधिक लोगों की हिस्सेदारी रही। इतिहास गवाह है कि जनता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने किसान आक्रोश के सामने घुटने टेककर उन्हें उप प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री पद पर नवाजा। बाद में वे पहले किसान प्रधानमंत्री बने। यद्यपि उस समय के कांग्रेस के विश्वासघाती नेतृत्व के चलते उनका कार्यकाल की अवधि अधिक नहीं रही। चौधरी चरण सिंह की राजनीति का मूल मंत्र राज्य सत्ता पर आधिपत्य कायम करने पर रहा। इसके लिए वे निरंतर कभी सरकार में रहकर तो कभी बाहर रहकर जीवन पर्यंत कार्यरत रहे। आज उन्हीं संकल्पों को दोहराने का दिन है।

(लेखक  ज.द.(यू) के प्रधान महासचिव और पूर्व राज्य सभा सांसद हैं)

 

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