जलवायु परिवर्तन से हो जाएं सावधान
वर्ष 2021 में खरीफ फसलो की बुवाई के बाद 40-50 दिन तक बारिश बिल्कुल नहीं हुई और इसके बाद फसल के पकने तक लगातार बारिश होती रही है। इसलिए फसलों के उगने के बाद और पकने तक फसलें बरबाद हुई। इसके विपरीत वर्ष 2022 में लगभग 25 जून से मध्य अगस्त तक लगातार वर्षा होती रही। फसलों के पौधों की संख्या बहुत अधिक हो गई जिस कारण निराई-गुड़ाई न होने के कारण फसलों को खरपतवार से भारी नुकसान हुआ। कीटों और बीमारियां का भारी प्रभाव रहा और उन पर नियंत्रण नहीं किया जा सका। यह वर्षा की अधिकता का प्रभाव था जिसके कारण क्षेत्रफल बढ़ा मगर उत्पादकता और उत्पादन की गुणवत्ता काफी प्रभावित हुई। वर्ष 2023 में फरवरी-मार्च में असामयिक वर्षा और आंधी-तूफान का आना जलवायु परिवर्तन की एक बहुत बड़ी घटना थी जिसके कारण रबी की फसलें (गेहूं, सरसों और जीरा) काफी हद तक बर्बाद हुई।
साधारण शब्दों में पर्यावरण एक प्रकार से प्राकृतिक वातावरण का रहवासिय आवरण है, जो सभी प्रकार के जीवों व गैर-जीवों के लिए असीमित व अनमोल जीवन रेखा है। इस आवरण की अनुपातित दिशा, दशा तथा मात्रा का दृश्य व अदृश्य प्रभाव जलवायु पर पड़ता है। भूमंडल के घटकों पर पर्यावरण के नकारात्मक प्रभावों के कारण भूमंडल, वायुमंडल, जलमंडल व जीवमंडल के आदानों व कारकों का विघटन शुरू हो जाता है। प्रकृति के बदलते, बिगड़ते स्वरूप को ही सरल भाषा में जलवायु परिवर्तन कहा जाता है। अतः प्रकृति के प्राकृतिक स्वरूप को जो हमें करोड़ों सालों पूर्व मिला था, उसी रूप में सुरक्षित व संरक्षित करना ही जलवायु प्रबंधन है। दूषित पर्यावरण को लगातार नजरंदाज करते रहना भूमंडल को धधकती आग में झोंक, भस्म कर देने वाले कदम माने जाएंगे।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पूरे संसार में महसूस किया जा रहा है। स्थानीय स्तर पर यदि इसके प्रभाव का आकलन किया जाए तो इस वर्ष व पूर्व के 2 वर्षों में सभी प्रकार की कृषि पर भारी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। वर्ष 2021 में खरीफ फसलो की बुवाई के बाद 40-50 दिन तक बारिश बिल्कुल नहीं हुई और इसके बाद फसल के पकने तक लगातार बारिश होती रही है। इसलिए फसलों के उगने के बाद और पकने तक फसलें बरबाद हुई। इसके विपरीत वर्ष 2022 में लगभग 25 जून से मध्य अगस्त तक लगातार वर्षा होती रही। फसलों के पौधों की संख्या बहुत अधिक हो गई जिस कारण निराई-गुड़ाई न होने के कारण फसलों को खरपतवार से भारी नुकसान हुआ। कीटों और बीमारियां का भारी प्रभाव रहा और उन पर नियंत्रण नहीं किया जा सका। यह वर्षा की अधिकता का प्रभाव था जिसके कारण क्षेत्रफल बढ़ा मगर उत्पादकता और उत्पादन की गुणवत्ता काफी प्रभावित हुई।
वर्ष 2023 में फरवरी-मार्च में असामयिक वर्षा और आंधी-तूफान का आना जलवायु परिवर्तन की एक बहुत बड़ी घटना थी जिसके कारण रबी की फसलें (गेहूं, सरसों और जीरा) काफी हद तक बर्बाद हुई। 10 मई तक मौसम ठंडा बना रहा और मध्य जुलाई तक लगभग 60% वर्षा हो चुकी थी। ये सारी वातावरणीय घटनाएं बिपरजॉय तूफान से प्रभावित थी जो कि जलवायु परिवर्तन का जीता जागता उदाहरण है। यही कारण है कि इस समय सब्जियों और फलों के दाम आसमान छू रहे हैं और इसका असर अन्य खाद्य पदार्थों पर बड़े स्तर पर पड़ रहा है।
यदि वायुमंडल प्रदूषण की बात करें तो परिणाम बहुत भयावह हैं, मानव जाति की जिंदगी व आर्थिक स्थिति को झकझोरने वाले हैं। वायुमंडल प्रदूषण का एक मुख्य कारण आग लगना है। उदाहरण के तौर पर ऑस्ट्रेलिया में लगी 2019-20 की भयंकर आग कैलिफोर्निया के आधे भाग के बराबर थी। साइंस पत्रिका में प्रकाशित लेख के अनुसार, आग के कारण वायु की गुणवत्ता पर पड़े प्रभाव के कारण अमेरिका में लगभग 4,000 लोगों की मृत्यु हर साल समय पूर्व हो जाती है। इस आग से करीब 36 अरब डॉलर की हानि सालाना आंकी गई है। कनाडा के अल्बर्टा में महीनों तक आग सुलगी रहती है जो पूर्वी अमेरिका की वायु को प्रदूषित कर देती है। कजाकिस्तान में भी खतरनाक आग लगने लगी है जिससे लगभग 60 हजार हेक्टेयर वन क्षेत्र बर्बाद हो गया है। ये आग पर्यावरण के लिए खतरे की घंटी है। पिछले दो दशकों में वन क्षेत्रों में दोगुना नुकसान हुआ है।
हमारा वायुमंडल सहज, शुद्ध व स्वच्छ वायु से परिपूर्ण रहता है। इसमें लगभग 78.9% नाइट्रोजन, 20.94% ऑक्सीजन, 0.93% आर्गन तथा सूक्ष्म मात्रा में बाकी गैसें (कार्बन डाई ऑक्साइड, कार्बन मोनो ऑक्साइड, सल्फर डाईऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, अमोनिया, नाइट्रस ऑक्साइड, हाइड्रोजन, मीथेन, हीलियम, जीनान, क्रिपटोन) पाई जाती हैं। इनका संतुलन बिगड़ना ही वायु प्रदूषण है। ज्वालामुखी का फटना, जंगलों की आग व वानस्पतिक अवषेशों का अपघटन वायु प्रदूषण के प्राकृतिक कारण हैं। वाहनों का धुआं, घरेलू गैस, खनन, वायुयान, परमाणु सयंत्र, परमाणु विस्फोट, भोपाल गैस कांड, चेर्नोबिल परमाणु दुर्घटना इत्यादि मानव जनित कारण हैं। वायु प्रदूषण तीन प्रकार के होते हैं।
दुनिया के अलग-अलग क्षेत्रों में लगी भयंकर आग के कारण बढ़ती भूमंडलीय गर्मी से अल-नीनो के खतरनाक परिणाम हमारे सामने हैं। अल-नीनो मानसून के बनने, इसकी गति व दिशा को प्रभावित करके कृषि उत्पादकता पर भारी प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है। फसलों की जैविक क्षमता घट रही है, कृषि व कृषि उद्योग अस्थिर हो रहे हैं। अकेले अल-नीनो के प्रभाव से अगली सदी तक दुनिया की अर्थव्यवस्था में लगभग 84 ट्रिलियन डॉलर की हानि का अनुमान है।
एक अनुमान के अनुसार, वायु प्रदूषण से दुनियाभर में सालाना 65-70 लाख मोतें होती हैं। पराली जलाने से दिल्ली-एनसीआर में दीवाली के आसपास दिन में अंधेरा छा जाता है। वायु प्रदूषण के कारण कार्बन डाई ऑक्साइड, कार्बन मोनो ऑक्साइड, मीथेन, हाइड्रोजन, सल्फाइड इत्यादि गैसों से व विषैले धूल के कणों से स्वांस संबंधी रोग लग जाते हैं। हम ऑक्सीजन के बिना तीन मिनट भी जीवित नहीं रह सकते हैं। यह सभी पदार्थों को जोड़ कर रखती है। अधिक तापमान व प्रदूषित वातवरण के कारण आंधी, तूफान, सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदा आती है और विषमता एवं आपदाओं को बढ़ावा मिलता है जिन्हें रोका नहीं जा सकता है।
क्या करें : ग्रीन हाउस गैसों का समयबद्ध तरीके से उत्सर्जन कम किया जाए। इसके लिए राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर की पहल की जाए। ऐसे उद्योग बंद किए जाएं और ऑक्सीजन उत्पन्न करने वाले उद्योगों को बढ़ावा दिया जाए। साथ ही आमजनों की भागीदारी भी सुनिश्चित की जाए।
कार्बन की खेती : साइंस मैग्जीन के अनुसार, वायु प्रदूषण से बचने के लिए कार्बन की खेती करने पर जोर दिया जाना चाहिए। इस कृषि प्रणाली में वायुमंडल से उत्सर्जित कार्बन डाई ऑक्साइड व दूसरी विषैली गैसों का उत्सर्जन घटाया जाता है। इस प्रणाली में कार्बन डाई ऑक्साइड को वातवरण से लेकर पादप भागों-पदार्थों तथा भूमि में कार्बनिक रूप में परिवर्तित कर संग्रहित किया जाता है। अमेरिकी प्रशासन जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिए कार्बन बैंक की योजना बना रहा है। यह एक बहुवर्षीय विस्तृत प्रणाली है। भारत का कृषि क्षेत्र कुल ग्रीन हाउस गैस की 14% हिस्सेदारी रखता है। हमारे देश में मुख्य कृषि उत्सर्जन पशु क्षेत्र (54.6%) व नाइट्रोजन उर्वरक (19%) के उपयोग से होता है। धान की खेती से ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन लगभग 32 करोड़ टन कार्बन डाई ऑक्साइड के बराबर होता है।
बांस की खेती : केंद्रीय सड़क एवं परिवहन मंत्रालय के अनुसार, बांस सबसे अधिक कार्बन डाई ऑक्साइड सोखता है, इसलिए बांसों को सड़क के दोनों ओर लगाया जाए तथा सड़क के पानी से बांसों को उगाया जा सकता है। बांसों के 3-6 सेंटीमीटर के टुकड़े कर बॉयलर में डाला जाए जिससे ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन रुकेगा। साथ ही कोयले का आयात रुक सकेगा और ग्रामीण रोजगार पैदा होंगे।
कचरा प्रबंधन : दिल्ली की रिंग रोड पर 20 लाख टन तथा अहमदाबाद की मुख्य सड़क पर 30 लाख टन कचरा डाल कर पर्यावरण की रक्षा की गई है।
बिजली, एथेनॉल, मीथेनॉल का वाहनों में प्रयोग : बस, ट्रक, कार, दोपहिया वाहनों को बिजली से चलाने की व्यवस्था 5 वर्ष में 100% पूरा करने की योजना है। एथेनॉल से चलने वाले वाहन व इसे डीजल- पेट्रोल में मिला कर उपयोग करने से ईंधन सस्ता होगा तथा वायु प्रदूषण पर नियंत्रण किया जा सकेगा।
मृदा क्षमता को बढ़ाना : मृदा, वायु प्रदूषण तथा कुल मिला कर जलवायु परीवर्तन को रोकने के लिए, सबसे उपयुक्त व आर्थिक उपाय है, मगर इसका उपयोग कम ही किया गया है। स्वस्थ मृदा को कार्बन सिंक का कुशल स्रोत जाना जाता है। हमें डिकार्बनिंग का स्तर बढ़ाने के लिए मृदा को कार्बन से लबालब रखना चाहिये। अंतरराष्ट्रीय अध्यन बताते हैं कि उपयुक्त भूमि प्रति वर्ष संसार के जीवांश-ईंधन उत्सर्जन का लगभग 25% घटाती है, मगर इसका उपयोग नहीं किया गया है।
ऑक्सीजन के उद्योग : यह सबसे महत्वपूर्ण सस्ता रास्ता है। जलवायु शुद्धिकरण करने, ऑक्सीजन पैदा करने के उद्योग लगाएं, कार्बन डाई ऑक्साइड की खपत बढ़ाने के उद्योग लगाने के लिए निरंतर वृक्ष लगाते रहें। हमें मुफ्त ऑक्सीजन वृक्षों से मिल जाती है। एक आदमी को प्रतिदिन 2100 रुपये की ऑक्सीजन चाहिये। हम 40,000 रुपये के एसी लगाने की बजाय 40 वृक्ष लगाएं। वृक्ष हमारे जैविक हथियार बन जलवायु परिवर्तन के रसायनिक हथियार से मुक्ति दिलाएंगे।
(डॉ. डी. कुमार , जोधपुर स्थित साउथ एशिया बॉयोटेक्नोलॉजी सेंटर के वैज्ञानिक सलाहकार हैं और भगीरथ चौधरी, सेंटर के फाउंडर डायरेक्टर हैं)