स्वच्छ जल का लोगों की पहुंच में होना जरूरी, लेकिन हर घर जल मिशन की सस्टेनेबिलिटी बड़ी चुनौती
हर घर जल में सस्टेनेबिलिटी का मुद्दा 2024 के बाद भी बना रहेगा। अगर जलापूर्ति व्यवस्था लागू करने के पुराने अनुभवों को नहीं दोहराना है तो उसके लिए पंचायतों को अधिकार देना और उन्हें जवाबदेह बनाना जरूरी है। सही मायने में देखा जाए तो ये संस्थान है नियम कायदे के बीच उलझे रह जाते हैं। पेयजल की सस्टेनेबिलिटी के लिए पंचायतों को संस्थागत रूप देना जरूरी है ताकि वे स्थानीय सरकार के रूप में उभर सकें
हिंदुस्तान टाइम्स ने 20 अगस्त को प्रधानमंत्री की यह घोषणा प्रकाशित की कि 52 फ़ीसदी ग्रामीण आबादी को उनके घर में सुरक्षित नल का जल मिल रहा है। यह स्वागत योग्य है लेकिन पेयजल की आपूर्ति पर दीर्घकालीन नजरिए से विचार करने की जरूरत है। सुरक्षित पेयजल लोगों की बुनियादी और महत्वपूर्ण जरूरतों में एक है। कहा भी जाता है कि जल ही जीवन है। पृथ्वी पर मौजूद जन आबादी और मवेशियों की संख्या लें तो इन दोनों का 33 प्रतिशत भारत में रहते हैं जबकि सिर्फ 2 फ़ीसदी जमीन और 4 फ़ीसदी ताजा पानी ही भारत के पास है। नीचे दिए गए टेबल से पता चलता है कि दशक दर दशक समस्या गंभीर होती गई है। स्थिति की गंभीरता को समझने के लिए यह आंकड़ा काफी है- 1951 में प्रति व्यक्ति सालाना ताजे पानी की उपलब्धता 5177 घन मीटर थी और अगर यही ट्रेंड बना रहा तो यह उपलब्धता 2050 में सिर्फ 1140 घन मीटर रह जाएगी।
भारत में पेयजल की उपलब्धता
साल - प्रति व्यक्ति पेयजल उपलब्धता घन मीटर में
1951 - 5177
2011 - 1545
2019 - 1368
2025 - 1293
2050 - 1140
(स्रोत जल जीवन मिशन ऑपरेशनल गाइडलाइंस)
भूजल स्तर गिरने के कारण मांग और आपूर्ति के बीच का अंतर और अधिक बढ़ता जा रहा है। भूजल स्तर गिरने के कई कारण हैं- अत्यधिक दोहन, कम रिचार्ज, स्टोरेज क्षमता कम होना, जलवायु परिवर्तन के कारण असमान बारिश, जल प्रदूषण, जलापूर्ति व्यवस्था का खराब ऑपरेशन और मेंटेनेंस इत्यादि।
जल जीवन मिशन के तहत 2019 में यह निर्णय लिया गया था कि 2024 तक भारत के लगभग 19.2 करोड़ सभी ग्रामीण परिवारों को नल से जल की सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी। जब यह घोषणा हुई थी तब सिर्फ छठे हिस्से के बराबर घरों को नल से जल मिल रहा था। इस तरह बहुत ही कम समय में 52 फ़ीसदी घरों तक यह सुविधा पहुंच गई है। प्रधानमंत्री ने गोवा में एक वीडियो कांफ्रेंस के जरिए यह जानकारी दी। गोवा में 100% ग्रामीण परिवारों को नल से जल मिलने लगा है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अभी तक 8,65,000 यानी 84.2% सरकारी स्कूलों और 8,94,000 आंगनवाड़ी केंद्रों को नल से जल की सुविधा उपलब्ध कराई जा चुकी है।
झोपड़ियों और कच्चे घरों में रहने वालों के लिए यह सुविधा किसी लक्जरी की तरह है। लेकिन इस कार्यक्रम के तहत बाकी आधे घरों तक निर्धारित समय में इस सुविधा को पहुंचाना चुनौतीपूर्ण होगा क्योंकि भौगोलिक परिस्थितियां भी इसके आड़े आएंगी बाकी बचे 9.2 करोड़ घरों तक नल से जल कितने दिनों में उपलब्ध कराया जाता है, यह काफी हद तक राज्यों पर निर्भर करेगा क्योंकि इस योजना पर अमल राज्यों को ही करना है।
राज्यों की आर्थिक प्रतिबद्धता भी मायने रखती है। केंद्र सरकार ने इस मिशन के लिए 3.5 लाख करोड़ रुपए निर्धारित किए हैं। इस योजना के लिए केंद्र और राज्यों के बीच जो राशि का बंटवारा है वह बिना विधायिका वाले केंद्र शासित प्रदेशों के लिए 100%, विधायिका वाले केंद्र शासित प्रदेशों और उत्तर पूर्वी राज्यों के लिए 90ः10 और बाकी राज्यों के लिए 50ः50 का अनुपात है। 15वें वित्त आयोग में ग्रामीण स्थानीय निकायों के लिए पेयजल और स्वच्छता पर योजनाओं के लिए 26,900 करोड़ रुपए का अतिरिक्त फंड उपलब्ध कराया गया है। अध्ययनों से यह भी पता चला है कि सुरक्षित पेयजल उपलब्ध कराने से लोगों की सेहत पर फर्क पड़ा है। राष्ट्रीय रोग निवारण केंद्र के मुताबिक 2019 से 2021 के दौरान उन इलाकों में जहां स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराया गया है जल जनित बीमारियां 66 फीसदी कम हो गई हैं। इनकी संख्या 177 लाख से घटकर 59 लाख रह गई।
योजना की मौजूदा स्थिति को देखा जाए तो पता चलता है कि पंजाब, गुजरात, हिमाचल प्रदेश और बिहार में 90% कवरेज हो गई है। तेलंगाना, दादरा नागर हवेली, दमन और दीव भी लक्ष्य की तरफ बढ़ रहे हैं। लेकिन कुछ राज्यों में इसकी गति काफी धीमी है जिस पर ध्यान देने की जरूरत है। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश और झारखंड में अभी तक लक्ष्य का 25% भी हासिल नहीं किया जा सका है। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और राजस्थान उन 13 राज्यों में हैं जिन्हें फोकस राज्य के तौर पर चिन्हित किया गया है।
यह कोई नई व्यवस्था नहीं है क्योंकि राज्य सरकारों ने आजादी के बाद से ही ग्रामीण आबादी को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध कराने के लिए जलापूर्ति कार्यक्रम चलाए हैं। न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम के हिस्से के तौर पर केंद्र सरकार त्वरित ग्रामीण जलापूर्ति कार्यक्रम के तहत 1972 से राज्यों की मदद कर रही है। 2017 में ही पानी के महत्व को समझते हुए सेल्फ डेवलपमेंट गोल का एक लक्ष्य सभी घरों को सुरक्षित और पर्याप्त पेयजल उपलब्ध कराना था। इस लक्ष्य को 2030 तक हासिल किया जाना है।
प्रत्येक ग्रामीण परिवार तक नल से जल उपलब्ध कराना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। इस कार्य को करने के दौरान कुछ बातें ध्यान में आईं जिन्हें यहां साझा किया जा रहा है। यह बातें हैं- 1) पूंजी निर्माण और ऑपरेशन तथा मेंटेनेंस के लिए कम निवेश से जलापूर्ति सिस्टम अधूरा रह गया या काम नहीं कर सका। आमतौर पर खराब मेंटेनेंस के चलते पूरा निवेश बेकार हो जाता है। 2) कृषि के लिए भूजल का इस्तेमाल पहले ही बहुत ज्यादा हो रहा है। ऐसे में भूजल पर निर्भरता से उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती है। 3) जल की उपलब्धता बढ़ाने के लिए वाटर रीचार्ज, वर्षा जल का संचय, वाटर बॉडी में जल धारण की क्षमता बढ़ाना, गाद की सफाई करना इत्यादि जरूरी हैं जिनसे जलापूर्ति व्यवस्था लंबे समय तक चलती है। 4) अगर जलापूर्ति का आश्वासन हो तो उपभोक्ता भी पैसे देने के लिए तैयार हैं। 5) समुदाय को स्वामित्व दिए जाने से पूंजी निर्माण अधिक होता है और जलापूर्ति व्यवस्था का रखरखाव भी बेहतर होता है।
अबाधित जलापूर्ति को बनाए रखना
कंस्ट्रक्शन और ऑपरेशन तथा मेंटेनेंस के लिए इंजीनियरों, अधिकारियों, कांट्रैक्टर, पंचायती राज संस्थानों के निर्वाचित प्रतिनिधियों और श्रमिकों की बड़ी संख्या इस मिशन में शामिल है। यह सब मिलकर करीब 40 लाख किलोमीटर लंबी पाइपलाइन बिछा रहे हैं। ग्रामीण जलापूर्ति योजना के अनुभव से यह भी पता चलता है कि जलापूर्ति का बने रहना समुदाय के स्वामित्व पर निर्भर करता है। अगर समुदाय प्लानिंग उसे लागू करने, मैनेजमेंट ऑपरेशन और मेंटेनेंस में शामिल है तो व्यवस्था सुचारू रूप से चलती रहेगी। लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि क्या ग्रामीण अपने आप को समुदाय के तौर पर देखते हैं, क्या वह खुद को जलापूर्ति व्यवस्था के स्वामी के तौर पर मानते हैं। मेरे विचार से सब लोग तो ऐसा नहीं सोचते क्योंकि समुदाय और स्वामित्व को संस्थागत रूप नहीं दिया गया है। इस संदर्भ में 73वें संविधान संशोधन का उल्लेख किया जा सकता है जिसमें जलापूर्ति की चर्चा की गई है। लेकिन समस्या है कि गांव में किसका राज चलता है- लोगों का अथवा अधिकारी का? मेरा अनुभव कहता है कि वहां अफसर राज अधिक चलता है। गांव में समुदाय कहां है? हो सकता है पहले रहे हों लेकिन अब वह जाति और वर्ग में बैठे हुए हैं। इसलिए हमें लोगों की भागीदारी के लिए नए तौर-तरीके सोचने पड़ेंगे।
73वें संशोधन एक्ट में पंचायती राज संस्थानों को स्व सरकार संस्थान (आईएसजी) के तौर पर चिन्हित किया गया है। दूसरे शब्दों में पंचायत ही स्थानीय सरकारें हैं। इनकी संख्या करीब 2.5 लाख है जिनमें करीब 30 लाख सदस्य और चेयरपर्सन हैं। आईएसजी के रूप में पंचायतों को कम से कम तीन ‘एफ’ का पालन करना चाहिए। पहला, अच्छी तरह से परिभाषित फंक्शन यानी कार्य। दूसरा, उन कार्यों को पूरा करने के लिए पर्याप्त फंड। तीसरा, विभिन्न कार्यों की देखरेख के लिए पर्याप्त संख्या में फंक्शनरी यानी लोगों का होना। इन संस्थानों से आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय की योजना तैयार करने की भी उम्मीद की जाती है। संविधान की ग्यारहवीं अनुसूची में इनके लिए 29 विषयों का उल्लेख है। इस अनुसूची में पेयजल भी एक विषय है। दूसरे शब्दों में पंचायतें अपने स्तर पर सरकार हैं, लेकिन उनकी स्थिति क्या है? 2015-16 की एक डिवॉल्यूशन रिपोर्ट बताती है कि किसी भी राज्य अथवा केंद्र शासित प्रदेश में डिवॉल्यूशन यानी अधिकार देने के लक्ष्य को 73वां संविधान संशोधन लागू होने के ढाई दशक बाद भी 100% लागू नहीं किया गया है। पंचायतें आईएसजी के तौर पर वास्तव में कार्य कर सकें इसके लिए राजनीतिक नेतृत्व अथवा अफसरशाही की जरा भी रुचि नहीं दिखती है। केरल एकमात्र राज्य है जहां अधिकारों का डिवॉल्यूशन तीन चौथाई हुआ है। केरल के अलावा कर्नाटक, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, तेलंगाना, सिक्किम और पश्चिम बंगाल ही वे चुनिंदा राज्य हैं जहां यह लक्ष्य 50 फ़ीसदी तक पहुंचा है। राज्य सरकारों, केंद्र शासित प्रदेशों से पंचायतों को अधिकार, अथॉरिटी और जिम्मेदारी सौंपने के इस अध्ययन में पता चला कि सिवाय दक्षिणी राज्यों के पंचायतों का सशक्तीकरण राज्य सरकारों की प्राथमिकता में नहीं रहा है। अगर पंचायतों को संविधान में दिए गए अधिकार नहीं मिलेंगे तो हम उनसे यह कैसे उम्मीद करें कि वे स्थानीय स्तर पर स्वामित्व के विचार को लागू करेंगे। भारत के संघीय ढांचे में ग्राम स्तर पर स्वामित्व है ही नहीं, इसलिए सस्टेनेबिलिटी को हासिल करना मुश्किल है।
हर घर जल में सस्टेनेबिलिटी का मुद्दा 2024 के बाद भी बना रहेगा। अगर जलापूर्ति व्यवस्था लागू करने के पुराने अनुभवों को नहीं दोहराना है तो उसके लिए पंचायतों को अधिकार देना और उन्हें जवाबदेह बनाना जरूरी है। सही मायने में देखा जाए तो ये संस्थान है नियम कायदे के बीच उलझे रह जाते हैं। पेयजल की सस्टेनेबिलिटी के लिए पंचायतों को संस्थागत रूप देना जरूरी है ताकि वे स्थानीय सरकार के रूप में उभर सकें। ऐसा करने पर ही ग्रामीण यह समझेंगे कि जलापूर्ति व्यवस्था को चलाना और देखरेख करना उनकी जिम्मेदारी है। तो इस कार्य को कैसे किया जा सकता है? इसके लिए कुछ समितियां बनाई जा सकती हैं। कौन सी और कैसी समिति बने, कौन से लोग उनमें कार्य करेंगे और कौन नहीं, यह सब तय करने का जिम्मा पंचायतों पर ही छोड़ दिया जाना चाहिए।
(लेखक इंडियन इकोनॉमिक सर्विस के पूर्व अधिकारी और कर्प फाउंडेशन गाजियाबाद के अध्यक्ष हैं। उनसे mpal1661@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)