विश्व पर्यावरण दिवस: आर्थिक विकास के लिए ईकोसाइड - मानव जीवन भी खतरे में

आर्थिक विकास की तुलना में अर्थशास्त्रियों ने समृद्धि को पूरी तरह से परिभाषित नहीं किया | क्योंकि, आजकल एक शब्द, सतत विकास, नीति निर्माताओं के शब्दकोष में मुख्य रूप से सम्मलित है। अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों के सतत विकास के लेखा जोखा में कही न कही ऐसे शब्द उपयोग में लाये जाते है, जिसमे पेड़ पोधो, जानवरो एवं मानवीय जीवन को बिकाऊ बना दिया है

विश्व पर्यावरण दिवस: आर्थिक विकास के लिए ईकोसाइड - मानव जीवन भी खतरे में
फोटो- दीक्षांत यादव

 

जिस तरह से धरती की हालत इंसानों की वजह से खराब हो रही है, उससे लगता है, कि इंसान ज्यादा दिन धरती पर रह नहीं पाएंगे| कुछ सदियों में धरती की हालत इतनी खराब हो जाएगी, कि लोगों को स्पेस में जाकर रहना पड़ेगा | सबसे बड़ा खतरा तकनीकी आपदा का है| ये तकनीकी आपदा जलवायु परिवर्तन से जुड़ी होगी | इसके अलावा दो बड़े खतरे हैं, इंसानों द्वारा विकसित महामारी और देशों के बीच युद्ध| इन सबको लेकर सकारात्मक रूप से काम नहीं किया गया तो इंसानों को धरती खुद खत्म कर देगी या फिर वह अपने आप को नष्ट कर देगी | यह भी हो सकता है कि इंसानी गतिविधियों की वजह से धरती पर इतना अत्याचार हो कि वह खुद ही नष्ट होने लगे|

आर्थिक विकास की तुलना में अर्थशास्त्रियों ने समृद्धि को पूरी तरह से परिभाषित नहीं किया | आजकल एक शब्द, सतत विकास, नीति निर्माताओं के शब्दकोष में मुख्य रूप से सम्मलित है। अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों के सतत विकास के लेखा जोखा में कहीं न कहीं ऐसे शब्द उपयोग में लाये जाते है, जिसमें पेड़ पौधों, जानवरों एवं मानवीय जीवन को बिकाऊ बना दिया है। जो व्यवस्था दुनिया को स्थायी समृद्धि देती है, उसको नकार कर,अर्थशास्त्री, नीति निर्माता, विश्व के शीर्ष स्तर के नेता  पूरी तरह विनाश पर आधारित अर्थव्यवस्था पर ध्यान देते हैं। यही कारण है, कि मौजूदा महामारी के दौरान दिए गए आर्थिक प्रोत्साहनों ने बड़े अमीरों को और ज्यादा अमीर किया है  क्योंकि अधिकतर धन वित्तीय मंडियों में जाता है, जहां से यह अत्यंत धनाढ्य वर्ग के खजाने में पहुंच जाता है। अनुमान है कि इस अवधि में विश्व के चोटी के अमीरों की कुल धन-दौलत में हज़ारों करोड़ डॉलर का इजाफा हुआ है। यानी इस अर्थव्यवस्था के विकास मॉडल में गरीबों के स्तर में कोई सुधार हुआ हो इसका कोई प्रमाण नहीं दिखता है | इसका कारण औद्योगिक घरानो की आय पूरी तरह से उन प्राकृतिक संसाधनों के दोहन पर निर्भर है जिनसे गरीब आदमी इन प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के साथ अपनी रोज़ी रोटी को जुटा पाता है। आज पूरे विश्व में धरती को लूटने की होड़ लगी हुई है। बिल गेट्स से लेकर अडानी, अंबानी सबकी निगाह देश की जैवविविधता को लूट कर कैसे अपना साम्राज्य स्थापित किया जाय इस पर है। इसीलिए कृषि से लेकर खनिज, पानी यहां तक की बिल गेट्स ने तो सूर्य धरती पर आने वाली सूर्य की रोशनी तक के रोकने का प्लान बना कर रखा है। किसानों की आमदनी बढ़ाने के नाम पर औद्योगिक कृषि के माध्यम से आनुवंशिक रूप से संशोधित बीज, रसायन आदि के कारण किसान आत्महत्या करने पर मजबूर है। 2005 से 10 साल की अवधि में भारत में किसान की आत्महत्या दर 1.4  और 1.8 प्रति 100,000 कुल जनसंख्या के बीच थी। 2017 और 2018 के आंकड़ों में प्रतिदिन औसतन १० से अधिक आत्महत्याएं दिखाई गईं। जबकि जो किसान प्रकृति पर आधारित खेती कर रहे है, उनकी संख्या नगण्य है। आज बिल गेट्स अमेरिका में सबसे ज्यादा कृषि भूमि के मालिक है। यह सब क्या दर्शाता है, कि आने वाले समय में आम जनता को बिल गेट्स से खाने के लिए अनाज उनके मनमाने मूल्य पर खरीदना होगा। कुल मिलाकर आम जन का पूरा पैसा ऐसे ही उद्योगपतियों की जेब में जाएगा | 

कुछ इसी तरह का हाल बड़े उद्योगों सीमेंट, स्टील, एल्युमीनियम, पेट्रोलियम आदि  का है | भारत में 89 तरह के खनिज पदार्थों का उत्पादन होता है, जिसमे 4 खनिज ईंधन, 11 धातु, 52 गैर धातु, 22 लघु खनिज है। इसमें 30 से 40 फीसदी आयरन, 20 से 30 फीसदी एलुमिना, इसी तरह लाइम स्टोन, क्रोमाइट, कोयला आदि का भी कुछ हिस्सा निर्यात किया जाता है। इसका मतलब देश के खनिज के साथ साथ जल, जंगल और जमीन को भी बेचा जाता है।

2014 में, कॉन्स्टैंज़ा और वैज्ञानिकों के एक अलग समूह ने पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के वैश्विक मूल्य का अनुमान 125 ट्रिलियन  डॉलर और 145 ट्रिलियन डॉलर प्रति वर्ष के बीच लगाया था। उन्होंने यह भी पाया कि पारिस्थितिक तंत्र सेवाएं "वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद के रूप में मानव कल्याण के लिए दोगुने से अधिक" का योगदान करती हैं। इसके अलावा 1997 से 2011 तक पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के नुकसान का अनुमान लगभग 20 ट्रिलियन डॉलर प्रति वर्ष आँका गया था । इन आकड़ों से स्पष्ट है कि उद्योगपतियों ने जीवन का मूल्य कागजी मुद्रा के लिए कितना और किस तरह से निर्धारित किया है।

प्रकृति के द्वारा प्रदत्त संसाधनों पर सबका सामान हक़ होना चाहिए।  लेकिन ऐसा न होकर कुछ चुनिंदा लोगों को ही लाइसेंस प्रक्रिया के अंतर्गत अधिकार प्राप्त है। पारिस्थितिक सम्पदा की लूट के कारण ही विश्व में गरीबी और अमीरी के बीच अंतर बढ़ता जा रहा है। ऑक्सफैम की ‘इन्क्युवैलिटी वायरस रिपोर्टका खुलासा है, कि महामारी के दौरान भारत के खरबपतियों की दौलत में 35 फीसदी का इजाफा हुआ है। यानी आबादी के शीर्ष एक फीकदी भाग के पास निचले स्तर पर आने वाले 95.3 करोड़ लोगों के धन के बराबर है। यह धन उन गरीब व आदिवासियों के जीवन का मूल्य हैं | जिसको उद्योगपतियों ने सरकारों की नीतियों के कारण इकठ्ठा कर लिया है। स्पष्ट है कि वर्तमान आर्थिक विकास का मॉडल सिर्फ प्रकृति का दोहन करके गरीबो की रोटी उनके मुंह से छीनकर उनको मौत के मुंह में धकलने के लिए बना है |

पृथ्वी पर जीवन को संरक्षित करने के लिए इस वर्ष विश्व पर्यावरण दिवस 2021 का विषय "पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली" है। इस थीम के अंतर्गत पेड़ उगाना, शहर को हरा-भरा करना, नदियों की सफाई करना  शामिल है। इस अवसर पर संयुक्त राष्ट्र पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली 2021- 2030 दशक के औपचारिक शुभारंभ भी करेगा। पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली तभी संभव है जब तक हम पूरी तरह से अपनी जरूरतों के लिए प्रकृति द्वारा दिए गए संसाधनों पर निर्भर नहीं होते क्योंकि कार चाहे पेट्रोल या बिजली से चले पर्यावरण को नुकसान दोनों से होना है। अगर देखा जाय तो बिजली उत्पादन में पर्यावरण को नुकसान कहीं ज्यादा है। इसलिए बिजली या बैटरी से चलने वाले वाहन पर्यावरण हितैषी हो ही नहीं सकते। यही कारण है कि केवल खाद्य उत्पादक/खाद्य की खोज करने वाले समाज ही पृथ्वी पर पर्यावरण हितैषी व टिकाऊ थे। इस तरह का समाज केवल शारीरिक कार्य पर निर्भर था।

आज आर्थिक विकास के कारण, प्रकृति के संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय संघ (इंटरनेशनल यूनियन फॉर कन्जर्वेशन  ऑफ़ नेचर) के अनुसार दुनिया भर में 37,400 प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर हैं। इसमें स्तनधारी 26 फीसदी, उभयचर 41 फीसदी, पछी 14 फीसदी, कोनिफर 34 फीसदी शामिल हैं। इसका मात्र एक कारण मानवीय जीवन के लिए इनके महत्व को अनदेखा कर देना है। अतः हमको अब धरती पर रहने वाले प्रत्येक जीव की रक्षा के लिए कार्य करने होंगे इसके लिए सहअस्तिव्त के विचारों को अर्थ यानी कागज़ की मुद्रा से ज्यादा महत्व देना होगा ।  हर एक प्रजाति धरती की कुल प्रजातियों के जीवन व भाग्य का परोक्ष व अपरोक्ष रूप से निर्धारण करती है। इसके लिए जंगलों और जैवविविधता को बचाने के लिए संरक्षित क्षेत्र घोषित करना ही काफी  नहीं होगा | बल्कि मानवीय आधार पर इनको मानव जीवन के बराबर का दर्ज़ा देना होगा।

इस आर्थिक दौड़ के समय कुछ लोग ऐसे भी है | जो धरती पर जीवन को सर्वश्रेष्ठ मानते है। उन्ही में एक, जादव पेयांग, जिनको फारेस्ट मेन ऑफ़ इंडिया के नाम से जाना जाता है, उन्होंने अकेले 1360 एकड़ में वन्य जीवों को बचाने के लिए जंगल लगाया | जिसमे हाथी, टाइगर, हिरन व अन्य तरह के तमाम पंछी रहते हैं। लेकिन देश में इनको कोई नहीं जानता, जबकि जिन लोगों ने देश में धरती की कोख पाताल तक खाली कर दी , उनको हर कोई जानता है। यह आज की अर्थव्यवस्था का मॉडल ही है, जिसने धरती लूटने वालों को विश्व का परोपकारी माना है।

जंगली जानवरों और पौधों की प्रजातियों ही नहीं है , जिनका जीवन बाजार में है। मानव जीवन भी एक आर्थिक समीकरण का हिस्सा है। जीवमंडल में रहने वाली सभी प्रजातियों एक आर्थिक संसाधन नहीं हैं जिसे मौद्रिक मूल्य दिया जाए। जीवन कोई वस्तु नहीं है। एक आर्थिक संसाधन के रूप में जीवमंडल की बात करना भी अतार्किक है। हम पृथ्वी पर एक जीवमंडल के भीतर रहते हैं जिसने हमें बनाया है और हमारी जीवन समर्थन प्रणाली प्रदान करता है, जिसके बिना मनुष्य जीवधारियों में प्रथम स्थान पर नहीं होता |

यदि वर्तमान विकास की प्रक्रिया के अंतर्गत हम जैवविविधता को ऐसे ही नष्ट करते रहे, तब मानव प्रजाति भी  विलुप्त हो जाएगी। वैसे भी हमको यह ध्यान रखना चाहिए कि प्रकृति को मानव की आवश्यकता नहीं होती है। हमारा अस्तित्व प्रकृति पर निर्भर करता है, इसलिए हमको इसकी आवश्यकता है। अतः विकास ऐसा हो, जिससे जीवमंडल सुरक्षित बना रहे |

(गुंजन मिश्रा, पर्यावरणविद हैं , भारत में ईकोसाइड के मेंबर हैं और बुंदेलखंड उनका कार्यक्षेत्र है। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं )

Subscribe here to get interesting stuff and updates!