पूंजीगत खर्च में पौने तीन लाख करोड़ रुपये वृद्धि की राशि वित्त मंत्री ने कैसे जुटाई
रूरल वॉयस ने जब बजट दस्तावेजों की पड़ताल की तो पता चला कि पूंजीगत खर्च में इतनी बड़ी बढ़ोतरी करने के लिए राशि कहां से आई। दरअसल, इतनी बड़ी राशि दूसरे मदों में कटौती के जरिये आई है। वो भी उन महत्वपूर्ण मदों में कटौती के जरिये जो इस देश की 65 फीसदी से ज्यादा आबादी को प्रभावित करती है।
केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने वित्त वर्ष 2023-24 का बजट पेश करते हुए आंकड़ों की बाजीगरी दिखाई है। अपने बजट भाषण में उन्होंने कहा था कि इस बार पूंजीगत खर्च को 10 लाख करोड़ रुपये के रिकॉर्ड स्तर पर लाया गया है। इसमें 33 फीसदी की बढ़ोतरी की गई है। बजट दस्तावेजों के मुताबिक, वित्त वर्ष 2022-23 में पूंजीगत खर्च के लिए 7,50,246 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था जिसे बाद में संशोधित कर 7,28,274 करोड़ रुपये कर दिया गया था। जबकि 2023-24 के पूंजीगत खर्च के लिए 10,00,961 करोड़ रुपये का बजटीय प्रावधान किया गया है यानी इसमें संशोधित अनुमान की तुलना में 2,72,687 करोड़ रुपये की बढ़ोतरी की गई है।
रूरल वॉयस ने जब बजट दस्तावेजों की पड़ताल की तो पता चला कि पूंजीगत खर्च में इतनी बड़ी बढ़ोतरी करने के लिए राशि कहां से आई। दरअसल, इतनी बड़ी राशि दूसरे मदों में कटौती के जरिये आई है। वो भी उन महत्वपूर्ण मदों में कटौती के जरिये जो इस देश की 65 फीसदी से ज्यादा आबादी को प्रभावित करती है। कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास से जुड़ी योजनाओं और उर्वरक एवं खाद्य सब्सिडी के बजटीय आवंटन में 2022-23 की तुलना में 2.5 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की कटौती की गई है। इनमें मनरेगा, पीएम कृषि सिंचाई, पीएम किसान सम्मान, फसल बीमा, ग्रामीण रोजगार, आत्मनिर्भर भारत रोजगार जैसी योजनाएं शामिल हैं। अगर यह मान भी लें कि कटौती के पीछे ठोस वजहें थीं तो भी क्या यह नहीं होना चाहिए कि इस राशि को कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास और ग्रामीण रोजगार पैदा करने की दूसरी योजनाओं पर खर्च किया जाना चाहिए या उनकी घोषणाएं होनी चाहिए, सहकार भारती के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. डी एन ठाकुर कहते हैं, “ऐसा बिल्कुल होना चाहिए। कृषि और ग्रामीण विकास संबंधी राशि को इन्हीं क्षेत्रों में खर्च किया जाना चाहिए। अगर किसी वजह से किसी योजना के बजटीय आवंटन में कटौती की जा रही है तो उस राशि को दूसरी योजनाओं के जरिये उसी क्षेत्र को दिया जाना चाहिए या फिर रूरल इन्फ्रास्ट्रक्चर को मजबूती देने के लिए पूंजीगत खर्च किया जाना चाहिए। एक डेडिकेटेड नेशनल रूरल एंड फार्म प्रोस्पेरिटी फंड (एनआरएफपीएफ) बनाकर कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाया जा सकता है।” हालांकि, उन्होंने उम्मीद जताई कि विकेंद्रीकृत भंडारण सुविधाओं की जो योजना सरकार ने इस बजट में बनाई है उस पर पूंजीगत खर्च के रूप में इस राशि का इस्तेमाल किया जाए।
कृषि और ग्रामीण विकास के बजटीय आवंटन में भारी कटौती और पूंजीगत खर्च में भारी बढ़ोतरी के बारे में जब रूरल वॉयस ने ऑल इंडिया किसान महासभा के महासचिव और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के राष्ट्रीय सचिव अतुल कुमार अंजान से पूछा तो उन्होंने कहा, “यह बजट आम आदमी और रूरल इंडिया के खिलाफ है। यह कॉरपोरेट को तमाम सुविधाएं देने वाला बजट है। यह सरकार तो रूरल इंडिया के खिलाफ है ही, अर्बन इंडिया को इसलिए देती है कि ये लोग शहर में माहौल बनाते हैं ताकि चुनाव जीता जा सके। मैं पूरी तरह से इस बजट को मोदी सरकार की कॉरपोरेट घरानों के प्रति सेवा का प्रतीक मानता हूं।” किसान नेता और राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन के संयोजक वी एम सिंह ने कहा कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी का इंतजार था जिसकी घोषणा नहीं हुई। इससे हमें निराशा हुई है।
भारतीय किसान यूनियन (बीकेयू) के राष्ट्रीय महासचिव युद्धवीर सिंह ने कहा, “पिछले साल के मुकाबले इस साल कृषि क्षेत्र के लिए करीब 4 फीसदी कम आवंटन किया गया है। ग्रामीण और कृषि विकास की योजनाओं के बजटीय आवंटन में कटौती का पैसा और फर्टिलाइजर सब्सिडी से बचा पैसा किसानों के कल्याण की दूसरी योजनाओं या ग्रामीण क्षेत्र के विकास की दूसरी योजनाओं पर खर्च किया जाना चाहिए था। गांवों में कास्तकारों के साथ दस्तकार भी रहते हैं। उनकी योजनाओं पर किया जाता मगर ऐसा नहीं किया गया। इससे ग्रामीण युवाओं का रोजगार के लिए शहरों की ओर पलायन और बढ़ेगा। गांव से शहरों में पलायन इसलिए बढ़ रहा है कि आप लगातार ग्रामीण क्षेत्र को नजरअंदाज कर रहे हैं, उसकी सुध नहीं ले रहे हैं। मनरेगा में कटौती कर दी गई, किसान सम्मान निधि योजना से ढाई करोड़ किसानों को निकाल दिया गया। पिछली बार की तुलना में इस बार कृषि कर्ज को बढ़ाकर 20 लाख करोड़ रुपये कर दिया गया है। आप क्या चाहते हैं कि किसान हमेशा सिर्फ कर्ज लेता रहे, उसकी आमदनी भी तो सुनिश्चित होनी चाहिए। जो किसान कर्ज नहीं चुका पाएगा उसकी तो जमीन नीलाम होंगी। हम कर्ज नहीं बल्कि फसल की कीमत मांग रहे हैं। हमारी आय कैसे बढ़े, खेती फायदे का सौदा कैसे हो, हम अपने परिवार का भरण पोषण अपनी आमदनी से करें न कि कर्जे से करें। किसान क्रेडिट कार्ड (केसीसी) के जरिये कर्ज का ज्यादा प्रावधान करने का ट्रेंड बन गया है। कर्ज देने की बात तो करते हैं लेकिन आमदनी की बात नहीं करते। जो प्रोसेसिंग यूनिट्स हैं उसे शहरों में लगा रहे हैं। गांव को तो सिर्फ कच्चे माल का केंद्र बना रखा है। वहां से फसल पैदा कराओ और शहर ले जाकर उसका प्रोसेसिंग करो। यही नहीं प्रोसेसिंग यूनिट्स को एग्रीकल्चर में डाल दिया जाता है, जबकि पैसा इंडस्ट्री को जाता है और गिना जाता है एग्रीकल्चर में।”
उन्होंने कहा कि बजट में प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने की बात कही गई है। वहीं दूसरी तरफ सरकार जीएम सरसों को मंजूरी दे रही है जो पूरी तरह से अप्राकृतिक है और प्राकृतिक खेती के ठीक विपरीत है। ये तो विरोधाभासी है। हम चाहते थे कि एग्रीकल्चर रिसर्च के लिए ज्यादा पैसा दिया जाए, जो नहीं दिया गया। एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटीज को अभी जो आवंटन किया जा रहा है उसमें से ज्यादातर तो सैलरी पर ही खर्च हो जाता है। रिसर्च के नाम पर एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटीज में कुछ नया नहीं हो रहा है। यह बहुत ही निराशाजनक बजट है। इसमें कहीं किसानों की सुध नहीं ली गई है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) के किसान संगठन भारतीय किसान संघ के अध्यक्ष बद्री नारायण चौधरी रूरल वॉयस के साथ बातचीत में कृषि एवं ग्रामीण विकास योजनाओं के बजटीय आवंटन में की गई कटौती और पूंजीगत खर्च में की गई बढ़ोतरी को दूसरे नजरिये से देखते हैं। उनका कहना है कि केंद्रीय योजनाओं को राज्यों द्वारा लागू किया जाता है और उनमें दोनों को अपना-अपना हिस्सा देना होता। अगर योजनाओं का पूरा खर्च नहीं हो पाता है तो अगले बजट में पिछले साल के खर्च के आधार पर आवंटन किया जाता है। जो राज्य खर्च नहीं कर पाते हैं उनके आवंटन में ही कटौती होती है। साथ ही उनसे यह भी कहा जाता है कि अगर पूरा खर्च हो जाए तो आवंटन में संशोधन कर दिया जाएगा जो नवंबर में होता है। जहां तक मनरेगा के आवंटन में कटौती की बात है तो सभी जानते हैं कि उसमें कैसे काम होता है। ठेकेदार जेसीबी मशीन से मिट्टी भरवाता है और जॉब कार्डधारक को कुछ पैसे दे देता है। बाकी बची राशि की बंदरबाट ठेकेदार, सरपंच, ग्राम प्रधान और अधिकारियों के बीच हो जाती है। योजनाओं में चोरियों से सरकार परेशान है और उस पर अंकुश लगाने की तमाम कोशिश कर रही है। इसके अलावा ग्रामीण युवाओं को खेती-बाड़ी से निकाल कर दूसरे रोजगार में लगाना चाहती है क्योंकि जमीन की जोत घटती जा रही है और परिवार बढ़ते जा रहे हैं जिससे खेती पर बोझ बढ़ता जा रहा है।
उनके मुताबकि, पूंजीगत खर्च में हाईवे और एक्सप्रेस-वे बनाने जैसी इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है। ये परियोजनाएं ग्रामीण इलाकों को ही लाभान्वित करती हैं। अब जो हाईवे और एक्सप्रेस-वे बन रहे हैं उन्हें पुरानी सड़कों की बजाय नए ग्रामीण इलाकों से निकाला जा रहा है। जो पूंजीगत खर्च हो रहे हैं वो ज्यादातर ग्रामीण आधारित हैं और उनसे ग्रामीण इलाकों का ही विकास हो रहा है।