एजेंडा फॉर रूरल इंडियाः नए ग्रामीण भारत की आकांक्षाएं
रूरल वॉयस (रूरल वर्ल्ड का सहयोगी प्रकाशन) और सॉक्रेटस (गैर सरकारी संगठन) ने यह असाधारण कार्य किया है। यह ग्रामीण क्षेत्रों में गया, वहां लोगों की बातें सुनीं। इसने भारत के अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले पांच केंद्रों में लोगों की आकांक्षाओं को समझने का प्रयास किया। संक्षेप में कहें, तो यह प्रयास बहुसंख्यक भारतीयों की चिंताओं, प्राथमिकताओं और आकांक्षाओं के साथ भविष्य के दृष्टिकोण का खाका प्रस्तुत करता है। सरकार और नीति निर्माताओं के लिए यह ग्रामीण विकास को नया स्वरूप देने और आकांक्षी ग्रामीण भारत की समस्याओं के समाधान का एक टेम्पलेट भी मुहैया कराता है।
रूरल वॉयस (रूरल वर्ल्ड का सहयोगी प्रकाशन) और सॉक्रेटस (गैर सरकारी संगठन) ने यह असाधारण कार्य किया है। यह ग्रामीण क्षेत्रों में गया, वहां लोगों की बातें सुनीं। इसने भारत के अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले पांच केंद्रों में लोगों की आकांक्षाओं को समझने का प्रयास किया। संक्षेप में कहें, तो यह प्रयास बहुसंख्यक भारतीयों की चिंताओं, प्राथमिकताओं और आकांक्षाओं के साथ भविष्य के दृष्टिकोण का खाका प्रस्तुत करता है। सरकार और नीति निर्माताओं के लिए यह ग्रामीण विकास को नया स्वरूप देने और आकांक्षी ग्रामीण भारत की समस्याओं के समाधान का एक टेम्पलेट भी मुहैया कराता है।
आयोजकों ने विकास, जलवायु और पर्यावरण तथा राजनीतिक-आर्थिक के अलग-अलग शीर्षकों के तहत मुद्दों को रेखांकित किया है। फिर भी, साझा तौर पर जो मुद्दे सामने आते हैं, वे हैं: अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों में लोग उर्वरकों और कीटनाशकों का कम उपयोग करना चाहते हैं, बाजार तक बेहतर पहुंच के साथ उपज की अच्छी कीमत चाहते हैं, मानव-पशु संघर्ष का समाधान चाहते हैं- विशेष रूप से आवारा पशुओं के संदर्भ में, बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य पर फोकस के साथ पर्यावरण की रक्षा के लिए अधिक प्रयास चाहते हैं।
हालांकि इन मुद्दों को विभिन्न मंचों पर अनेक बार उठाया गया है, यह संभवतः पहली बार है कि उन्हें एक ठोस, एक्शन योग्य प्रारूप में रखा गया है। ग्रामीण भारत की आम शिकायत है कि चुनावों में किए जाने वाले बड़े-बड़े वादों पर अमल नहीं होता है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि ग्रामीण भारत नेताओं और उनके चुनावी वादों से निराश है। उन्हें एहसास होने लगा है कि चुनावी वादे तो बस जुमले हैं। यदि ग्रामीण भारत को समृद्ध, स्वस्थ और शांतिपूर्ण बनाना है तो इस धारणा को बदलना होगा। सरकार से लोगों के निराश होने का परिणाम समाज में अशांति हो सकती है और उग्रवाद का मार्ग प्रशस्त हो सकता है जो देश के समग्र विकास के लिए हानिकारक है।
ग्रामीण भारत को अवरुद्ध करने वाली इनमें से अधिकांश समस्याओं से सरकार अवगत है। उसने मनरेगा, स्वच्छ भारत, ग्रामीण पेयजल मिशन (जल शक्ति), ग्रामीण विद्युतीकरण, पीएम किसान, आकांक्षी जिला (अब ब्लॉक) कार्यक्रम, मध्याह्न भोजन, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, आईसीडीएस जैसी योजनाओं के माध्यम से समय-समय पर इन समस्याओं का समाधान करने का प्रयास किया है। इन योजनाओं का उद्देश्य ग्रामीण भारतीयों की आय और जीवन में सुधार है। अधिकांश योजनाओं के सकारात्मक परिणाम रहे हैं। हालांकि, आकांक्षी ग्रामीण भारत गरीबों के जीवन में सुधार लाने वाले ऐसे कार्यक्रमों से अधिक और तेज नतीजों की उम्मीद करता है। इस लिहाज से देखा जाए तो कुछ योजनाओं को एकीकृत करने और गांव तथा ब्लॉक स्तर पर प्रयासों को साथ लाने के लिए नए दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
ग्रामीण विकास मंत्रालय अपने गठन के बाद से ही ग्रामीण विकास और गरीबी दूर करने के कार्यक्रम तैयार और कार्यान्वित कर रहा है। इस मद में वह काफी व्यय भी करता है। इनमें आईआरडीपी और इसके बाद के अवतार मनरेगा, पीएमजीएसवाई जैसे कुछ प्रमुख कार्यक्रम शामिल हैं। स्वास्थ्य, पेयजल और स्वच्छता, कृषि, पशुपालन, डेयरी और मत्स्य पालन, पंचायती राज, जल संसाधन जैसे अन्य मंत्रालयों के भी कई प्रमुख कार्यक्रम ग्रामीण भारत के लिए हैं, जिन्हें संबंधित मंत्रालय संचालित करते हैं। इन्हें जिला और ब्लॉक स्तरों पर लागू किया जाता है। इन कार्यक्रमों को लागू करने वाली संबंधित एजेंसियों द्वारा केंद्रीय और राज्य स्तर पर इनकी निगरानी की जाती है। लेकिन ऐसा लगता है कि ग्रामीण विकास मंत्रालय के पास सभी ग्रामीण विकास कार्यक्रमों और ग्रामीण आबादी पर उनके प्रभाव की जानकारी नहीं है। व्यापक विकास के परिप्रेक्ष्य से नतीजों को मापना और प्रभावों का आकलन करना एक चुनौती बना हुआ है।
सरकार को चाहिए कि वह सभी ग्रामीण कार्यक्रमों की योजना बनाने और उनकी निगरानी में ग्रामीण विकास विभाग को बड़ी भूमिका दे। उसकी भूमिका नीति आयोग के लगभग समानांतर हो। कार्यक्रमों को ब्लॉक और जिला स्तर पर लागू करने की जिम्मेदारी भी उसी के पास हो। इसके लिए ग्रामीण विकास मंत्रालय में योजना बनाने के साथ उनकी निगरानी कार्य समाहित करने की आवश्यकता है।
केंद्रीय मंत्रालयों में मंत्री और सचिव स्तर पर शासन के पद-क्रम की प्रकृति को देखते हुए, इसके लिए ग्रामीण विकास मंत्रालय में एक अलग तरह की समन्वय अथॉरिटी की आवश्यकता है। पारंपरिक समन्वय समिति या मंत्रियों के अधिकार प्राप्त समूह से परिणाम मिलने की संभावना नहीं है। संबंधित मंत्रालय राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के अनुसार कार्यक्रम डिजाइन करने के लिए स्वतंत्र रहें, लेकिन कार्यान्वयन और परिणामों की निगरानी की जिम्मेदारी नई समन्वय अथॉरिटी को सौंपी जानी चाहिए। राज्य स्तर पर भी ऐसी ही अथॉरिटी बनाई जानी चाहिए।
अधिकांश केंद्रीय कार्यक्रमों का प्रभावी कार्यान्वयन राज्य और जिला स्तर के प्रशासन पर निर्भर करता है। विकास के अधिकांश कार्यक्रमों के कार्यान्वयन में जिला प्रमुख प्रशासनिक इकाई बन गया है। लेकिन जिला कलेक्टर की व्यवस्था अब भी पुराने राजस्व और कानून-व्यवस्था सिस्टम की तर्ज पर चल रही है। जिला स्तर पर जिला विकास आयुक्त और जिला परिषद प्रणाली गठित करने के प्रयोगों के वांछित परिणाम नहीं मिले हैं। राज्य सरकारें अपनी भूमिका और अधिकारों को किसी जिला स्तरीय संस्था को सौंपने में झिझकती रही हैं, चाहे वह निर्वाचित हो या अन्य। एक-दो राज्यों को छोड़कर, जिला स्तरीय पंचायती राज (जिला परिषद) प्रयोग को कोई खास सफलता नहीं मिली है।
आधुनिक समय में प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में होने वाली प्रगति विकास को आगे बढ़ा रही है। इसके साथ निजी क्षेत्र की भागीदारी का महत्व भी बढ़ा है। इसे देखते हुए जिला स्तर पर शासन के मॉडल को इसके दायरे, इसकी शक्तियों और जिम्मेदारियों के संदर्भ में एक नया स्वरूप देने की आवश्यकता है। योजना बनाना निर्वाचित प्रतिनिधियों की जिम्मेदारी होनी चाहिए, कार्यान्वयन की जिम्मेदारी कार्यपालिका की ही होनी चाहिए। विकास की निगरानी अलग ढंग से हो और योजनाओं में ही उनमें सुधार की गुंजाइश होनी चाहिए। जिला कलेक्टर कार्यालय कामकाज के मौजूदा मानदंडों के साथ आकांक्षी भारत की चुनौतियों को पूरा करने में सक्षम नहीं होगा। इस कार्यालय को व्यापक तौर पर रीडिजाइन करने और मजबूत बनाने की जरूरत है। जिला कलेक्टर की मदद के लिए युवा और कुशल तकनीक वाले प्रोफेशनल होने चाहिए। कलेक्टर को कई नियमित समितियों और बैठकों से भी मुक्त किया जाना चाहिए जो उसके कामकाज पर असर डालती हैं। यदि सार्थक ग्रामीण विकास हासिल करना है तो जिला कलेक्टर की भूमिका और कार्यों को तत्काल नए सिरे से डिजाइन करने की आवश्यकता है।
खंड विकास कार्यालय ग्रामीण विकास का आधार है। तत्कालीन योजना आयोग के सामुदायिक विकास एजेंडे में इसकी कल्पना की गई थी। सभी प्रशासनिक कार्यालयों में यह संभवतः सबसे अधिक समीक्षा, पर्यवेक्षण और निगरानी किया जाने वाला कार्यालय है। कौशल और सपोर्ट सिस्टम को देखते हुए इस कार्यालय से अपेक्षाएं बहुत अधिक हैं। ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं कि दिए गए टार्गेट को हासिल करना प्राथमिकता बन जाती है, चाहे वह टारगेट जो भी हो।
कार्यान्वयन के पद-क्रम में खंड विकास अधिकारी (बीडीओ) कार्यों और जिम्मेदारियों के मामले में सबसे महत्वपूर्ण होता है, लेकिन कौशल और सपोर्ट सिस्टम के लिहाज से उसकी स्थिति शायद सबसे कमजोर होती है। केंद्र और राज्य सरकारों ने इस कमी को दूर करने के लिए अक्सर अपर्याप्त और तदर्थ प्रयास ही किए हैं। उन्होंने खंड विकास कार्यालय के काम के ढांचे को रीडिजाइन करने का कोई गंभीर प्रयास नहीं किया है। उन्होंने अधिकारियों को कामकाज की प्रक्रिया या प्रौद्योगिकी के मामले में प्रशिक्षण देने में पर्याप्त निवेश भी नहीं किया है। आज का खंड विकास कार्यालय भविष्य का कार्यालय होने के बजाय अतीत का प्रतिनिधित्व करता है।
जिन राज्यों ने 73वें संविधान संशोधन की परिकल्पना के अनुसार पंचायतों को अधिक काम और जिम्मेदारियां सौंपी हैं, उनके परिणाम उन राज्यों की तुलना में बेहतर रहे हैं जो पंचायतों को सशक्त बनाने में धीमे थे। कई राज्यों ने तो पंचायतों को किसी तरह की स्किल या वित्तीय शक्ति दिए बिना सिर्फ कागजों पर अधिकार दे दिए। तेज ग्रामीण विकास हासिल करने के लिए उठाए जाने वाले सबसे महत्वपूर्ण कदमों में से एक है- उपलब्ध सर्वोत्तम तकनीकी सहायता के साथ स्थानीय रूप से उपयुक्त योजनाओं को डिजाइनिंग, प्लानिंग और कार्यान्वित करने के लिए पंचायतों को सशक्त बनाना। वित्त आयोग के अनुदान के बावजूद राज्य पंचायतों को संसाधन आवंटित करने और उन्हें बेहतर परिणाम प्राप्त करने के लिए मदद करने में असमर्थ रहे हैं। यह स्थिति ग्रामीण विकास के लिए अभिशाप है। कम समय में ग्रामीण परिदृश्य बदलने के लिए पांच साल का निवेश कार्यक्रम पहला कदम है। इसमें कौशल विकास, प्रौद्योगिकी उन्नयन, मैनेजमेंट ओरिएंटेशन, रिपोर्टिंग और मॉनिटरिंग सिस्टम, अधिक राशि का हस्तांतरण और इसके उपयोग के लिए निरंतर मार्गदर्शन शामिल होना चाहिए।
बेशक, राष्ट्रीय स्तर पर नीतिगत मुद्दे हैं जिन पर ध्यान देने की जरूरत है। इनमें कृषि, पशुधन और मत्स्य पालन, रासायनिक उर्वरकों के लिए इन्सेंटिव, प्राकृतिक और जैविक खेती को बढ़ावा, ग्रामीण बाजारों को शहरी मांग केंद्रों से जोड़ना, कृषि उपज के प्रसंस्करण के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में निवेश, ग्रामीण बुनियादी ढांचे में निवेश तथा जलवायु और पर्यावरण से संबंधित नीतियां शामिल हैं।
किसी भी जन-हितैषी और जन-केंद्रित योजना का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा विभिन्न स्तर पर लोगों की बातों को ध्यान से सुनने की सरकार की क्षमता है। रूरल वॉयस और सॉक्रेटस का यह प्रयास ग्रामीण भारत की समस्याओं और आकांक्षाओं को समझने की दिशा में एक छोटा लेकिन महत्वपूर्ण कदम है। सरकार को सलाह होगी कि वह समस्याओं और आकांक्षाओं को समझने तथा लोगों के अनुकूल नीतियों को डिजाइन करने में लोगों की आवाज सुनने के लिए ऐसे अनौपचारिक प्लेटफॉर्मों का उपयोग करे।
(लेखक खाद्य एवं कृषि मंत्रालय, भारत सरकार के पूर्व सचिव और एनडीडीबी के पूर्व चेयरमैन हैं)