रेशम उत्पादन के लिए एसकेयूएएसटी और सेरीकल्चर रिसर्च इंस्टीट्यूट के बीच समझौता
चीन के बाद भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा सिल्क उत्पादक है। लेकिन यहां मलबेरी सिल्क का ज्यादातर उत्पादन बाइवोल्टिन ब्रीड के बजाय क्रॉस ब्रीड से किया जाता है। बाइवोल्टिन सिल्क के क्षेत्र में उत्पादन बढ़ाने की काफी गुंजाइश है, खासकर जम्मू क्षेत्र में
एसकेयूएएसटी चट्टा कैंपस, जम्मू
जम्मू-कश्मीर में रेशम कीट पालन को बढ़ावा देने के लिए शेर-ए-कश्मीर यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर साइंसेज एंड टेक्नोलॉजी (एसकेयूएएसटी) और सेंट्रल सेरीकल्चर रिसर्च एंड ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट के बीच समझौता (एमओयू) हुआ है। पंपोर स्थित यह इंस्टीट्यूट केंद्रीय टेक्सटाइल मंत्रालय के सेंट्रल सिल्क बोर्ड के अधीन आता है।
एमओयू पर SKUAST के वाइस चांसलर प्रो. जे.पी. शर्मा और सेरीकल्चर इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर-इन-चार्ज डॉ. सरदार सिंह ने दस्तखत किए। इस मौके पर एसकेयूएएसटी के रिसर्च डायरेक्टर डॉ. प्रदीप वाली, एसोसिएट रिसर्च डायरेक्टर डॉ. महितल जामवाल, क्षेत्रीय सेरीकल्चर रिसर्च स्टेशन के वैज्ञानिक डॉ. संतोष कुमार मगदम और डॉ. विनोद सिंह भी मौजूद थे।
डॉ. सरदार सिंह ने जम्मू-कश्मीर में रेशम कीट पालन के इतिहास की जानकारी दी। उन्होंने कहा कि यह भारत में पारंपरिक रूप से रेशम कीट पालन करने वाले राज्यों में है। यह राज्य अच्छी क्वालिटी के ‘बाइवोल्टिन सिल्क’ उत्पादन के लिए जाना जाता है, जिसकी देश में कमी है।
चीन के बाद भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा सिल्क उत्पादक है। लेकिन यहां मलबेरी सिल्क का ज्यादातर उत्पादन बाइवोल्टिन ब्रीड के बजाय क्रॉस ब्रीड से किया जाता है। बाइवोल्टिन सिल्क के क्षेत्र में उत्पादन बढ़ाने की काफी गुंजाइश है, खासकर जम्मू क्षेत्र में।
उन्होंने बताया कि आज राज्य में करीब 27,000 परिवार रेशम कीट पालन से जुड़े हैं। इनमें से 19,000 जम्मू क्षेत्र में हैं। जम्मू-कश्मीर में हर साल लगभग सात लाख किलो सिल्क ककून का उत्पादन होता है, जबकि क्षमता 35 लाख किलो की है। उन्होंने बताया कि अन्य किसी भी नकदी फसल की तुलना में रेशम उत्पादन में कम समय लगता है। अच्छी क्वालिटी के सूखे ककून की कीमत 2000 रुपये प्रति किलो तक मिल सकती है।
इस मौके पर प्रो. जे.पी. शर्मा ने खेत में उभरते ट्रेंड और विभिन्न संस्थाओं के बीच सहयोग के महत्व के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि इस एमओयू को जल्दी ही जमीन पर उतारा जाएगा। समझौते के बाद दोनों संस्थान सूचनाएं साझा कर सकते हैं, मिलकर नई टेक्नोलॉजी विकसित कर सकते हैं, एक दूसरे की सुविधाओं का इस्तेमाल कर सकते हैं, शोधार्थियों को गाइड कर सकते हैं और किसानों की जरूरतें पूरी कर सकते हैं।