मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में घटी नौकरियां, कृषि पर निर्भर लोगों की तादाद 45.5% पर पहुंची
नियोजित श्रम शक्ति में मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की हिस्सेदारी 12.1 फीसदी से घटकर 11.6 फीसदी रह गई है। इसका सीधा मतलब यह है कि कोविड के दौरान जिस तरह से लोगों की नौकरियां गईं और ग्रामीण इलाके के कामगार जीवन-यापन के लिए कृषि क्षेत्र की ओर फिर से मुड़ने के लिए मजबूर हुए उसका असर अभी पूरी तरह से कम नहीं हुआ है।
मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में रोजगार बढ़ाने की सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद ऐसा होता दिख नहीं रहा है। खासकर कोविड के बाद सरकार जिस तरह से दावा करती रही है कि नौकरियां बढ़ी है मगर राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) और राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) द्वारा हाल ही में जारी किए गए आंकड़ें सरकार के इन दावों के उलट हैं। आंकड़े बता रहे हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक परिवर्तन लाने में मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की भूमिका पूरी तरह से कारगर साबित नहीं हो रही है। अभी भी कृषि क्षेत्र पर कामगारों की निर्भरता सबसे ज्यादा है।
एनएसएसओ की 2021-22 (जुलाई-जून) की वार्षिक आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) की ताजा रिपोर्ट बताती है कि देश की नियोजित श्रम शक्ति में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी 45.5 फीसदी है। यह 2020-21 के 46.5 फीसदी से भले ही एक फीसदी कम है लेकिन कोविड से पहले 2018-19 के 42.5 फीसदी के निचले स्तर से अभी भी तीन फीसदी अधिक है। जबकि नियोजित श्रम शक्ति में मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की हिस्सेदारी 12.1 फीसदी से घटकर 11.6 फीसदी रह गई है। इसका सीधा मतलब यह है कि कोविड के दौरान जिस तरह से लोगों की नौकरियां गईं और ग्रामीण इलाके के कामगार जीवन-यापन के लिए कृषि क्षेत्र की ओर फिर से मुड़ने के लिए मजबूर हुए उसका असर अभी पूरी तरह से कम नहीं हुआ है।
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ लेबर इकोनॉमिक्स रिसर्च (पूर्व में इंस्टीट्यूट ऑफ अप्लाइड मैनपावर रिसर्च) के पूर्व महानिदेशक डॉ. संतोष मेहरोत्रा ने रूरल वॉयस को बताया, “2020 में कोविड के दौरान 4.5 करोड़ लोगों का कृषि क्षेत्र में रिवर्स माइग्रेशन हुआ था। उसके बाद 2021 में कोविड की दूसरी लहर में 80 लाख अतिरिक्त कामगार कृषि क्षेत्र से जुड़े। इसके अलावा हर साल नौकरियों की तलाश करने वाले 50-60 लाख नए युवा रोजगार बाजार में जुड़ते चले जाते हैं। ये संख्या हर साल बढ़ती जा रही है, जबकि उस अनुपात में नई नौकरियां नहीं बढ़ रही है जिसकी वजह से अप्रत्याशित तौर पर बेरोजगारी बढ़ी है। इससे ग्रामीण इलाकों पर रोजगार का दबाव बढ़ा है। ग्रामीण क्षेत्र पर दबाव बढ़ने से कृषि क्षेत्र में महिला कामगारों की संख्या में वृद्धि हुई है, खासकर उन महिलाओं की संख्या बढ़ी है जो खेती में परिवार का साथ दे रही हैं और उन्हें उनके श्रम के बदले कोई भुगतान नहीं होता है।”
मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में नौकरियां घटने के बारे में पूछने पर डॉ. मेहरोत्रा का कहना है, “मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में सबसे ज्यादा नौकरियां असंगठित क्षेत्र में हैं। मैन्युफैक्चरिंग में 50 फीसदी से भी ज्यादा रोजगार सिर्फ पांच क्षेत्र देता हैं। इनमें फूड प्रोसेसिंग, टेक्टाइल्स, गारमेंट्स, लकड़ी एवं फर्नीचर और चमड़ा एवं जूता निर्माण उद्योग शामिल हैं। इन पांच उद्योगों में असंगठित क्षेत्र की बहुतायत है इसलिए इनमें रोजगार ज्यादा है। इन्हीं क्षेत्रों में गिरावट आई है इसलिए रोजगार घटे हैं। श्रमिक आधारित एमएसएमई (सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग) क्षेत्र ज्यादातर रोजगार पैदा करने वाले क्षेत्र हैं लेकिन सरकार की नीतियों से एमएसएमई को नुकसान हो रहा है जिस वजह से भी नौकरियों में कमी आई है।”
पिछले वर्षों की पीएलएफएस रिपोर्ट (जिसे 2011-12 तक 'रोजगार और बेरोजगारी' सर्वेक्षण भी कहा जाता था) बताती है कि लंबी अवधि में कुल कार्यबल में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी में सबसे ज्यादा गिरावट 1993-94 से लेकर 2018-19 में आई थी। इसमें भी 2004-05 से 2011-12 में गिरावट की रफ्तार सबसे तेज रही और इस दौरान करीब 10 फीसदी की कमी आई। इसका मतलब यह हुआ कि इन वर्षों के दौरान नौकरियों में काफी इजाफा हुआ जिसकी वजह से कृषि क्षेत्र पर निर्भरता घटी। आंकड़ों के मुताबिक, 1993-94 में कृषि क्षेत्र पर निर्भर रहने वाले कामगार 64.6 फीसदी थे जो 2018-19 में घटकर 42.5 फीसदी रह गए। 2004-05 में कृषि क्षेत्र पर निर्भरता 58.5 फीसदी थी जो 2011-12 में करीब 10 फीसदी घटकर 48.9 फीसदी पर आ गई। देश के इतिहास में पहली बार इन सात सालों में खेती में लगे कार्यबल में इतनी बड़ी गिरावट आई थी। इस दौरान खेतिहर कामगारों की संख्या 26.86 करोड़ से घटकर 23.19 करोड़ रह गई थी यानी 3.67 करोड़ की कमी दर्ज की गई थी। जबकि मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में कार्यरत श्रम शक्ति का हिस्सा बढ़कर 12.6 फीसदी पर पहुंच गया था।
जानेमाने अर्थशास्त्री और जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर डॉ. अरुण कुमार ने रूरल वॉयस से कहा, “मैन्युफैक्चरिंग में रोजगार घटने की वजह यह है कि असंगठित क्षेत्र को संगठित क्षेत्र में तब्दील करने की नीति से सूक्ष्म और लघु उद्योग घटता जा रहा है। यही उद्योग सबसे ज्यादा रोजगार देते हैं। इसके अलावा डिजिटाइजेशन और फार्मूलाइजेशन से भी माइक्रो और स्मॉल सेक्टर सिकुड़ता जा रहा है। इससे संगठित क्षेत्र की ओर मांग हस्तांरित हो गई है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है ट्रेड सेक्टर। ट्रेड में ई-कॉमर्स 30-40 फीसदी बढ़ रहा है, जबकि अर्थव्यवस्था स्थिर है। माइक्रो और स्मॉल सेक्टर से मांग ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म की ओर हस्तांतरित हो रही है। जहां रोजगार ज्यादा पैदा होता है उसे हम घटाते जा रहे हैं और जहां कम नौकरियां हैं उसे बढ़ाने पर हमारा फोकस है। इससे नौकरियां नहीं बढ़ेंगी। अगर रोजगार बढ़ाना है तो सूक्ष्म और लघु उद्योगों को बढ़ावा देना जरूरी है। पीएलआई (प्रोडक्शन लिंक्ड इन्सेंटिव) स्कीम से उन्हीं सेक्टर को बढ़ावा दिया जा रहा है जहां रोजगार कम हैं। संगठित क्षेत्र में जब नौकरियां नहीं बढ़ेंगी तो ग्रामीण इलाके के लोग कृषि क्षेत्र में ही रोजगार तलाशेंगे। जीवन-यापन के लिए कृषि क्षेत्र में काम करना उनकी मजबूरी है क्योंकि वो कहीं और जा नहीं सकते।”
एनएसएसओ के आंकड़े बताते हैं कि 2011-12 के बाद से अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक परिवर्तन की रफ्तार धीमी हो गई। इस वजह से रोजगार में कृषि की हिस्सेदारी घट नहीं रही है। वास्तव में 2018-19 के बाद यह फिर से बढ़ने लगी है। दूसरे शब्दों में कहें तो संरचनात्मक परिवर्तन रुक गया है। खेतों से कारखानों में ज्यादा श्रम हस्तांतरण नहीं हो रहा है। मौजूदा समय में कृषि के बाद सबसे ज्यादा रोजगार निर्माण (कंस्ट्रक्शन) क्षेत्र और कम वेतन वाली सेवाओं में मिल रहा है। इनकी हिस्सेदारी मैन्युफैक्चरिंग से आगे निकल गई है। निर्माण क्षेत्र अब कृषि के बाद दूसरा सबसे बड़ा नियोक्ता बन गया है। पांच साल पहले यह चौथे नंबर पर था। तब दूसरे नंबर पर मैन्युफैक्चरिंग था जो अब चौथे नंबर पर पहुंच गया है। व्यापार, होटल और रेस्तरां क्षेत्र अब रोजगार देने के मामले में तीसरे नंबर पर बरकरार है।