विभिन्न देशों के संरक्षणवादी रवैये से वैश्विक कृषि व्यापार में बढ़ रही मुश्किल
वैश्विक कृषि व्यापार को इन दिनों महंगाई समेत कई जटिलताओं का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि अधिकतर देश अपनी घरेलू आपूर्ति सुधारने और घरेलू बाजार में कीमतों पर नियंत्रण रखने के लिए संरक्षणवादी तरीके अपना रहे हैं। तुर्की द्वारा गेहूं के आयात पर प्रतिबंध और भारत के गैर-बासमती चावल के निर्यात पर प्रतिबंध जैसे कदमों के साथ विभिन्न देशों ने टैरिफ और कड़े सैनिटरी और फाइटोसैनिटरी नियमों तक की कार्रवाई की हैं।
वैश्विक कृषि व्यापार को इन दिनों महंगाई समेत कई जटिलताओं का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि अधिकतर देश अपनी घरेलू आपूर्ति सुधारने और घरेलू बाजार में कीमतों पर नियंत्रण रखने के लिए संरक्षणवादी तरीके अपना रहे हैं। तुर्की द्वारा गेहूं के आयात पर प्रतिबंध और भारत के गैर-बासमती चावल के निर्यात पर प्रतिबंध जैसे कदमों के साथ विभिन्न देशों ने टैरिफ और कड़े सैनिटरी और फाइटोसैनिटरी नियमों तक की कार्रवाई की हैं। वैश्विक पत्रिका वर्ल्ड ग्रेन ने अपने अगस्त 2024 के अंक में प्रकाशित सुसान रीडी की एक रिपोर्ट में यह कहा है।
बहुपक्षीय समझौतों की जगह द्विपक्षीय और क्षेत्रीय नीतियां ले रही हैं, जिसके परिणामस्वरूप देश अलग-अलग दिशाओं में जा रहे हैं। रिपोर्ट में राबो बैंक के एक्जीक्यूटिव प्रेसिडेंट स्टीफन निकोलसन ने कहा है, "मुझे अपने करियर में संरक्षणवादी रवैये का इतना गंभीर दौर याद नहीं है। ऐसे कदम केवल व्यापार को जटिल बनाते हैं। इससे कुछ देशों को नुकसान पहुंचता है और दूसरों को लाभ।"
यह संरक्षणवादी रवैया कई वजहों से पैदा हो रहा है। इनमें कोविड-19 महामारी के कारण आपूर्ति श्रृंखला में आए व्यवधान, बढ़ती मुद्रास्फीति, भू-राजनीतिक तनाव, वैश्वीकरण का विरोध और इस साल उन देशों में होने वाले चुनावों के साथ राजनीतिक अनिश्चितता शामिल है, जहां दुनिया की लगभग आधी आबादी रहती है। निकोलसन कहते हैं, "कृषि में, यह तब तक ठीक है जब तक कि कुछ गलत न हो जाए, जैसे कि आपूर्ति में व्यवधान। उसके बाद मूल्य में अधिक उतार-चढ़ाव होते हैं। सप्लाई चेन महंगी होने के कारण दाम बढ़ते हैं सो अलग।"
कोबैंक में अनाज और तिलहन के प्रमुख अर्थशास्त्री टैनर एमके ने इस रिपोर्ट में कहा, "हालांकि संरक्षणवादी उपायों के कारण अलग-अलग देशों में अलग हैं, लेकिन कोविड-19 महामारी के कारण आपूर्ति श्रृंखला में आए झटके सहित कुछ समान कारण भी हैं। किसी भी विपरीत परिस्थिति के लिए इन्वेंट्री बनाए रखने की कोशिश हो रही है।"
भारत का उल्लेख करते हुए निकोलसन ने कहा, "इसने गैर-बासमती सफेद चावल के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया और बाद में पारबॉयल्ड चावल के निर्यात पर 20% शुल्क लगाया। वर्तमान में, भारत चावल निर्यात की समीक्षा कर रहा है और गेहूं पर 40% आयात शुल्क हटाने पर भी विचार कर रहा है।"
एमके ने कहा, "भारत सस्ते वैश्विक गेहूं की कीमतों का लाभ उठाकर अपना सरकारी भंडार बढ़ाना चाहता है। लेकिन यह इस बात का भी संकेत है कि भारत शायद निर्यात प्रतिबंधों पर आगे नहीं बढ़ने वाला है। अभी उन्हें मौसम संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है और खाद्य मुद्रास्फीति अब भी एक समस्या है।"
रिपोर्ट में कहा गया है कि फरवरी 2022 में रूस के यूक्रेन पर आक्रमण जैसे भू-राजनीतिक मुद्दों ने व्यापार का माहौल बिगाड़ा है। यूरोपीय संघ के प्रतिबंध इस हमले का प्रत्यक्ष परिणाम थे। इस वजह से अनाज व्यापार का मार्ग बदलना पड़ा। बड़ी मात्रा में अनाज पोलैंड, स्लोवाकिया, हंगरी और रोमानिया में जमा हो हो गया, जिससे दाम घट गए और स्थानीय किसानों को नुकसान पहुंचा। तुर्की भी अपने किसानों को कम कीमतों से बचाने की कोशिश कर रहा है, क्योंकि लगातार दो रूसी गेहूं की फसलें रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई हैं।
दूसरी तरफ, सप्लाई चेन बदलने से अनाज की लागत बढ़ गई है। जैसा कि एमके कहते हैं, "भारत के चावल निर्यात प्रतिबंध के बाद, कीमतों में 20% से अधिक की वृद्धि हुई, और अफ्रीकी देश, जो चावल के लिए भारत पर बहुत अधिक निर्भर थे, नए आपूर्तिकर्ता खोजने के लिए संघर्ष कर रहे थे। मेडागास्कर के चावल आयात में 2023 में 44% की गिरावट आई, जबकि प्रतिबंध के बाद केन्या चावल आयात कर ही नहीं सका। इससे पहले, उसने लगभग 70% यानी 817,000 टन चावल का आयात भारत से किया था।"
निकोलसन ने कहा कि अल्पावधि में संरक्षणवादी उपायों से अपेक्षित लक्ष्य तो प्राप्त हो सकते हैं, लेकिन दीर्घावधि में यह अनपेक्षित परिणामों को जन्म दे सकता है। आपको लग सकता है कि आपने फिलहाल समस्या का समाधान कर दिया है, लेकिन वास्तविकता यह है कि यह दीर्घावधि में नुकसान पहुंचाने वाला है। उन्होंने कहा, "यदि आप किसी घरेलू क्षेत्र को बचाने का प्रयास करते हैं, तो दीर्घावधि में दूसरे देशों को यह लग सकता है कि यह कम कीमत पर बेचने वाला या विश्वसनीय उत्पादक नहीं है, क्योंकि यह सरकारी नीति द्वारा समर्थित है और यह बदल सकता है।"
निकोलसन ने कहा कि 1970 के दशक में प्रतिबंधों के बाद कृषि के दृष्टिकोण से अमेरिका को एक विश्वसनीय आपूर्तिकर्ता का रुतबा हासिल करने में काफी समय लगा। 2018-20 के अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध के बाद सोयाबीन निर्यात के साथ भी यही हुआ है। निकोलसन ने कहा कि पिछले 40 वर्षों में अमेरिका का कृषि निर्यात में हिस्सा 60% से गिरकर 21% हो गया है। यह आंशिक रूप से ब्राजील, रूस और यूक्रेन जैसे देशों के साथ बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण हुआ है। टैरिफ और प्रतिशोधात्मक कार्रवाइयों ने भी इसमें बड़ी भूमिका निभाई है।