कृषि खाद्य प्रणाली से होता है 31% उत्सर्जन, नेट जीरो लक्ष्य के लिए इसे कम करना जरूरीः वर्ल्ड बैंक रिपोर्ट
बड़ी आबादी के कारण भारत की कृषि खाद्य प्रणाली दुनिया में सबसे अधिक ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन करने वालों में एक है। कृषि खाद्य प्रणाली से ग्रीन हाउस गैस का सबसे अधिक उत्सर्जन करने वाले देशों में चीन और ब्राजील के बाद तीसरे स्थान पर भारत है। उसके बाद अमेरिका और इंडोनेशिया हैं।
ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को सीमित करने में अभी तक कृषि खाद्य प्रणाली को लक्ष्य नहीं बनाया गया है, जबकि नेट जीरो उत्सर्जन हासिल करने और ग्लोबल वार्मिंग को सीमित करने के लिए ऐसा करना जरूरी है। वैश्विक स्तर पर कृषि खाद्य प्रणाली 31 प्रतिशत उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है। भारत के कुल उत्सर्जन में कृषि खाद्य प्रणाली का योगदान 34.1 प्रतिशत, ब्राजील में 84.9 प्रतिशत, चीन में 17 प्रतिशत, बांग्लादेश में 55.1 प्रतिशत और रूस में 21.4 प्रतिशत है।
बड़ी आबादी के कारण भारत की कृषि खाद्य प्रणाली दुनिया में सबसे अधिक ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन करने वालों में एक है। कृषि खाद्य प्रणाली से ग्रीन हाउस गैस का सबसे अधिक उत्सर्जन करने वाले देशों में चीन और ब्राजील के बाद तीसरे स्थान पर भारत है। उसके बाद अमेरिका और इंडोनेशिया हैं।
वर्ल्ड बैंक की ‘रेसिपी फॉर ए लिवेबल प्लैनेटः एचीविंग नेट जीरो एमिशंस इन द एग्री फूड सिस्टम’ रिपोर्ट में यह बात कही गई है। इसमें उन उपायों की भी पहचान की गई है जिनसे वैश्विक खाद्य सुरक्षा को बनाए रखते हुए और कमजोर समूहों के लिए उचित परिवर्तन सुनिश्चित करते हुए कम खर्च में नेट जीरो उत्सर्जन को हासिल किया जा सकता है। इसमें कहा गया है कि उत्सर्जन के सबसे बड़े स्रोतों और सबसे कम लागत वाले विकल्पों पर ध्यान केंद्रित करके विभिन्न देश कृषि खाद्य प्रणाली से निकलने वाले ग्रीन हाउस गैसों को वायुमंडल तक पहुंचने से रोकने में सक्षम होंगे।
रिपोर्ट में कहा गया है कि अभी तक उत्सर्जन कम करने के ज्यादातर प्रयास ऊर्जा, परिवहन और मैन्युफैक्चरिंग जैसे क्षेत्रों पर केंद्रित रहे हैं, जहां कुछ प्रमुख टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से उत्सर्जन कम करने में सफलता भी मिली है। लेकिन उत्सर्जन का स्तर अभी उस स्तर से बहुत दूर है जहां उन्हें जलवायु आपदा को रोकने के लिए होना चाहिए। जटिलता के कारण दुनिया ने कृषि-खाद्य प्रणाली उत्सर्जन का सामना करने से लंबे समय तक परहेज किया है। लेकिन वैज्ञानिकों के अनुसार, अब समय आ गया है कि कृषि और भोजन को उत्सर्जन कम करने के एजेंडे में सबसे ऊपर रखा जाए, वर्ना दुनिया भावी पीढ़ियों के रहने योग्य नहीं रह जाएगी।
यह रिपोर्ट कई कारणों से सामयिक है। आज वैश्विक कृषि खाद्य प्रणाली और इसके बढ़ते जलवायु प्रभाव के बारे में कुछ साल पहले की तुलना में कहीं अधिक जानकारी उपलब्ध है। यह भी स्पष्ट है कि 2050 तक वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए कृषि खाद्य प्रणाली से नेट जीरो उत्सर्जन की आवश्यकता होगी। इसकी तत्काल जरूरत के बावजूद जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) के तहत कृषि वार्ता रुकी हुई है, क्योंकि उत्सर्जन घटाने के मुद्दे पर विकसित और विकासशील देशों के बीच मतभेद हैं।
बिजली उत्पादन से अधिक उत्सर्जन वैश्विक कृषि खाद्य प्रणाली से
कृषि खाद्य प्रणाली से उत्सर्जन पहले की तुलना में काफी अधिक है। पिछली गणनाओं में अनुमान लगाया गया था कि कृषि, वानिकी और अन्य भूमि उपयोग (एएफओएलयू) से वैश्विक उत्सर्जन का लगभग पांचवां हिस्सा आता है। लेकिन उत्पादन से पहले और बाद के उत्सर्जन को शामिल करते हुए हाल के अध्ययनों से पता चलता है कि वैश्विक कृषि खाद्य प्रणाली 31 प्रतिशत उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है। इससे प्रति वर्ष औसतन 16 अरब मीट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड समकक्ष उत्पन्न होता है। तुलनात्मक रूप से देखें तो यह दुनिया में बिजली उत्पादन से होने वाले उत्सर्जन से 2.24 अरब टन या 14 प्रतिशत अधिक है। इसके बावजूद वैश्विक कृषि खाद्य प्रणाली से उत्सर्जन कम करने पर बहुत कम ध्यान दिया गया है। उदाहरण के लिए, पेरिस समझौते में शामिल केवल आधे देशों ने अपने राष्ट्रीय लक्ष्यों (नेशनली डिटरमाइंड कंट्रिब्यूशंस-एनडीसी) में कृषि-संबंधी लक्ष्यों को शामिल किया।
कृषि खाद्य प्रणाली में सबसे अधिक उत्सर्जन इन आठ प्रमुख क्षेत्रों से आता है- 1) पशुधन से संबंधित उत्सर्जन, 25.9 प्रतिशत; 2) वनों की कटाई या यूज में बदलाव, 18.4 प्रतिशत; (3) खाद्य प्रणाली में होने वाली बर्बादी, 7.9 प्रतिशत; (4) खाद्य पदार्थों का घरेलू उपभोग, 7.3 प्रतिशत; (5) उर्वरक उत्पादन और उपयोग, 6.9 प्रतिशत; (6) मिट्टी से संबंधित उत्सर्जन, 5.7 प्रतिशत; (7) खेत में ऊर्जा का उपयोग और उसकी आपूर्ति, 5.4 प्रतिशत और (8) चावल उत्पादन से निकलने वाला उत्सर्जन, 4.3 प्रतिशत।
रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया के 80 प्रतिशत उर्वरकों की खपत मध्य आय वाले देशों में होती है। शीर्ष पांच देशों में ब्राजील, चीन, भारत और इंडोनेशिया शामिल हैं। मध्य आय वाले देशों में प्रति हेक्टेयर औसतन 168 किलो उर्वरकों का प्रयोग होता है। उच्च आय वाले देशों में यह 141 किलो और निम्न आय वाले देशों में सिर्फ 12 किलो प्रति हेक्टेयर है। मध्य आय वाले देश सबसे बड़े उर्वरक उत्पादक भी हैं। चीन, भारत और रूस दुनिया का एक-तिहाई से ज्यादा नाइट्रोजन उर्वरक का उत्पादन करते हैं। कृषि खाद्य प्रणाली के उत्सर्जन में 6.4 प्रतिशत योगदान उर्वरकों का होता है। प्री-प्रोडक्शन चरण में ये उत्सर्जन का सबसे बड़ा स्रोत हैं।
कृषि खाद्य उत्सर्जन में मध्य आय वाले देशों का योगदान 68 प्रतिशत
मध्य आय वाले देश अभी और ऐतिहासिक रूप से सबसे अधिक कृषि खाद्य उत्सर्जन उत्पन्न करते रहे हैं, उच्च आय वाले देशों में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन सबसे अधिक है, और कम आय वाले देशों में उत्सर्जन वृद्धि की दर सबसे ज्यादा है। आज, वैश्विक कृषि खाद्य उत्सर्जन में मध्य आय वाले देशों का योगदान 68 प्रतिशत है, जबकि उच्च आय वालों का योगदान 21 प्रतिशत और कम आय वाले देशों का 11 प्रतिशत है। दुनिया में सबसे अधिक 108 देश मध्य आय वाले ही हैं। उच्च आय वाले देशों की संख्या 77 और निम्न आय वालों की 28 है।
उच्च आय वाले देशों में प्रति व्यक्ति अधिक उत्सर्जन मुख्य रूप से मांस और डेयरी की भारी खपत, खाद्य परिवहन, प्रसंस्करण, पैकेजिंग और खाद्य पदार्थों के नष्ट होने के कारण होता है। जनसंख्या वृद्धि दर कम होने से कृषि खाद्य उत्सर्जन में इन देशों की हिस्सेदारी में गिरावट आई है। ये देश कृषि से मैन्युफैक्चरिंग और सेवाओं में शिफ्ट हो गए हैं और वे मध्य तथा निम्न आय वाले देशों से खाद्य पदार्थ लेते हैं। उन्होंने खाद्य उत्पादकता और रिन्यूएबल एनर्जी में निवेश किया है।
कम आय वाले देश कृषि खाद्य प्रणाली से सबसे कम ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन करते हैं, लेकिन 1990 के दशक की शुरुआत से वहां वृद्धि दर सबसे अधिक है। मध्य आय वाले देशों की 12.3 प्रतिशत और उच्च आय वाले देशों की 3 प्रतिशत वृद्धि की तुलना में इन देशों के उत्सर्जन में 53 प्रतिशत वृद्धि हुई है।
गहराई से देखने पर पता चलता है कि कृषि खाद्य उत्सर्जन का बड़ा हिस्सा मुट्ठी भर देशों में केंद्रित है, जिनमें ज्यादातर मध्य आय वाले हैं। यह प्रवृत्ति जारी रहने की संभावना है क्योंकि ये देश उसी उत्सर्जन वाले विकास का अनुसरण कर रहे हैं जिसका पालन उच्च आय वाले देशों ने पहले किया था। फर्क सिर्फ इतना है कि इन मध्य आय वाले देशों की आबादी बहुत बड़ी है और बढ़ रही है।
ग्लोबल वार्मिंग 3.2 डिग्री तक पहुंचने का डर
पेरिस समझौते में तय हुआ था कि प्री-इंडस्ट्रियल समय की तुलना में ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखा जाएगा। तापमान इससे अधिक बढ़ने पर जोखिम वाले देशों को अधिक खतरा होगा। तापमान दो डिग्री से अधिक बढ़ने पर खाद्य संकट बढ़ेगा और विनाशकारी तूफानों की संख्या बढ़ेगी। डेढ़ डिग्री के लक्ष्य को हासिल करने के लिए जरूरी है कि हर साल 52 गीगा टन उत्सर्जन को 2050 तक शून्य पर लाया जाए। लेकिन 2020 में निर्धारित कदमों और उनमें कोई प्रगति नहीं होने के कारण अनुमान है कि वर्ष 2100 तक ग्लोबल वार्मिंग 3.2 डिग्री तक पहुंच जाएगी।
सालाना 52 गीगा टन उत्सर्जन में 16 गीगा टन कृषि खाद्य प्रणाली से आता है। नए शोध से पता चलता है कि दूसरे क्षेत्रों में सभी जीवाश्म ईंधन उत्सर्जन को समाप्त कर दिया जाए, तो भी अकेले कृषि खाद्य प्रणाली से होने वाला उत्सर्जन ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा से आगे ले जाने के लिए पर्याप्त होगा। यहां तक कि इससे तापमान 2.0 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। पेरिस समझौते के मुताबिक 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को पूरा करने के लिए 2050 तक कृषि खाद्य प्रणाली से उत्सर्जन (16 गीगाटन सालाना) को शून्य करना होगा।
उत्सर्जन कम करने के लिए फाइनेंस की कमी
रिपोर्ट के मुताबिक कृषि खाद्य प्रणाली में उत्सर्जन कम करने के लिए वित्तपोषण की बड़ी कमी है। वैसे तो पिछले एक दशक में क्लाइमेट फाइनेंस लगभग दोगुना हुआ है, लेकिन उत्सर्जन कम करने (मिटिगेशन) और अनुकूलन (एडेप्टेशन) के लिए कुल फाइनेंसिंग की तुलना में कृषि खाद्य प्रणाली को उपलब्ध राशि सिर्फ 4.3 प्रतिशत यानी 28.5 अरब डॉलर है।
उत्सर्जन कम करने के लिए 2019-20 में तो केवल 14.4 अरब डॉलर राशि उपलब्ध कराई गई जो कुल क्लाइमेट फाइनेंस का 2.2 प्रतिशत था। अधिकांश क्लाइमेट फाइनेंस अन्य क्षेत्रों के लिए होता है। रिन्यूएबल एनर्जी को तो फाइनेंसिंग का 51 प्रतिशत और लो-कार्बन परिवहन को 26 प्रतिशत प्राप्त होता है। रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि 2030 तक वर्तमान खाद्य प्रणाली उत्सर्जन को आधा करने के लिए वार्षिक निवेश 18 गुना बढ़ाकर 260 अरब डॉलर करने की आवश्यकता है।
कृषि खाद्य प्रणाली में बदलाव से खाद्य सुरक्षा को खतरा
कम उत्सर्जन वाली कृषि-खाद्य प्रणाली को अपनाने में सावधानी की जरूरत है। कुछ अध्ययनों में अनुमान लगाया गया है कि कृषि खाद्य प्रणाली में सुधार सावधानी से नहीं किया गया तो कृषि उत्पादन कम हो सकता है और खाद्य कीमतें बढ़ सकती हैं। उदाहरण के लिए, उर्वरक इस्तेमाल कम करने या जैविक खेती अपनाने से उत्सर्जन 15 प्रतिशत कम होगा, लेकिन इससे कृषि उत्पादन में 5 प्रतिशत की कमी हो सकती है और दुनिया में खाद्य कीमतें 13 प्रतिशत बढ़ सकती हैं। स्वस्थ आहार 10 प्रतिशत महंगा हो सकता है। दूसरे अध्ययन तो और निराशाजनक हैं। उनमें अनुमान लगाया गया है कि वनरोपण से 2050 तक चार करोड़ लोगों की खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है। इन वजहों से नेट जीरो कृषि खाद्य प्रणाली को अपनाने का राजनीतिक विरोध संभव है।
कृषि खाद्य प्रणाली की ग्लोबल प्रकृति से खाद्य कीमतों में अस्थिरता भी आती है। उदाहरण के लिए 2019 के बाद से 12.2 करोड़ लोगों को भूख का सामना करना पड़ा क्योंकि कोविड-19 के कारण आपूर्ति श्रृंखला में व्यवधान उत्पन्न हुआ। कारणों में मौसम की मार और यूक्रेन पर रूस का हमला भी शामिल है। कम उत्सर्जन वाली कृषि में निवेश करने और खाद्य तथा भूमि उपयोग में बदलाव करने से 2030 में 4.3 लाख करोड़ डॉलर का स्वास्थ्य, आर्थिक और पर्यावरणीय लाभ हो सकता है।
शाकाहार कम करता है उत्सर्जन
भारत के लोगों का शाकाहार उत्सर्जन को कम भी करता है। भारत में दुनिया के किसी भी अन्य देश की तुलना में अधिक शाकाहारी हैं। भारत की जनसंख्या अमेरिका का लगभग चार गुना है, फिर भी यहां का उत्सर्जन अमेरिका से केवल 30 प्रतिशत अधिक है। ऐसा इसलिए क्योंकि प्रति व्यक्ति उत्सर्जन वैश्विक औसत से बहुत कम है। शाकाहार के अलावा इसका एक अन्य प्रमुख कारण गरीबी और कुपोषण है। आबादी का बड़ा हिस्सा अधिक उपभोग कर ही नहीं सकता है।
इससे एक विरोधाभास पैदा होता है। दुनिया के अधिकांश हिस्से में आहार में बदलाव से उत्सर्जन में कमी आएगी, लेकिन भारत में इस तरह के बदलाव से उत्सर्जन में थोड़ी वृद्धि होगी। भारत के कृषि खाद्य प्रणाली उत्सर्जन का 60 प्रतिशत हिस्सा फार्म गेट से आता है। भारत का पशुधन क्षेत्र भी बहुत अक्षम है। यहां दूध और मीट दोनों की प्रति यूनिट उत्सर्जन तीव्रता (इंटेंसिटी) दुनिया में सबसे अधिक है। इसके विपरीत, भारत के चावल उत्पादन की उत्सर्जन तीव्रता सबसे कम है। लेकिन चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा चावल उत्पादक होने के कारण यहां इससे कुल उत्सर्जन अधिक है। भारत में फार्म-गेट उत्सर्जन तो सबसे अधिक है ही, यहां उत्पादन से पहले और बाद का उत्सर्जन भी तेजी से बढ़ रहा है।
कृषि खाद्य प्रणाली से उत्सर्जन का समाधान
रिपोर्ट के अनुसार, भारत में सिंचाई में इस्तेमाल होने वाले 88 लाख डीजल पंपों में से एक-चौथाई की जगह सौर ऊर्जा से चलने वाले पंप लगाए जाएं तो हर साल 115 लाख टन उत्सर्जन घटाया जा सकता है। सौर ऊर्जा चालित सिंचाई 1970 के दशक से चल रही है और भारत में इसे तेजी से अपनाया जा रहा है। दिसंबर 2020 तक भारत में 2.72 लाख सौर ऊर्जा चालित सिंचाई प्रणाली शुरू की जा चुकी थी।
कृषि क्षेत्र में चीन में 48 प्रतिशत और भारत में 63 प्रतिशत मिटिगेशन की संभावना कार्बन सीक्वेस्ट्रेशन में है। मिट्टी में ऑर्गेनिक कार्बन सीक्वेस्ट्रेशन की संभावना सबसे अधिक मध्य आय वाले देशों में है। भारत के साथ मेक्सिको में फसलों में पोषक तत्वों का प्रयोग बेहतर करने के लिए प्रिसीजन पोषण प्रबंधन का तरीका अपनाया जा रहा है। इससे खाद्य सुरक्षा प्रभावित हुए बिना उर्वरकों का बेहतर इस्तेमाल हो रहा है।
इन कदमों के बावजूद इस दिशा में कदम धीमा है। रिपोर्ट के अनुसार, नीतियों पर राजनीति हावी रहती है। भारत और बांग्लादेश में खाद्य सुरक्षा लगभग पूरी तरह चावल पर निर्भर है। यहां सरकारें चावल उत्पादन के लिए पानी, उर्वरक, कीटनाशक और बिजली पर सब्सिडी देती है। इसे खत्म करने के कदमों का जबरदस्त विरोध होता रहा है और राजनीतिक नेताओं में किसानों का वोट पाने की होड़ रहती है।