क्या डब्ल्यूटीओ की पहली महिला प्रमुख वैश्विक कृषि सब्सिडी में भेदभाव को समाप्त कर सकेंगी
डॉ. नगोजी ओकोंजो इवेला विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की पहली महिला महानिदेशक हैं और अफ्रीका से आती हैं। वह ऐसे समय में इस पद पर बैठी हैं जब ज्यादातर देशों, खासकर विकासशील जगत को अपनी अर्थव्यवस्थाओं में सुधार के लिए विश्व बाजार से मदद की जरूरत है। सवाल है कि क्या डेवलपमेंट इकोनॉमिस्ट रह चुकीं डॉ. इवेला विश्व व्यापार प्रणाली में व्याप्त असमानता को खत्म करने के डब्ल्यूटीओ के मौलिक लक्ष्य को हासिल करने में मदद करेंगी?
अमेरिका के ट्रंप प्रशासन के हठ के चलते महीनों के गतिरोध के बाद डॉ. नगोजी ओकोंजो इवेला विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की महानिदेशक नियुक्त की गईं। वह न सिर्फ डब्ल्यूटीओ की पहली महिला एग्जीक्यूटिव प्रमुख हैं, बल्कि इस पद पर बैठने वाली अफ्रीका महाद्वीप से आने वाली पहली शख्सीयत हैं। वह ऐसे समय इस पद पर बैठी हैं जब ज्यादातर देशों, खासकर विकासशील जगत को अपनी अर्थव्यवस्थाओं में सुधार के लिए विश्व बाजार से मदद की जरूरत है। सवाल है कि क्या डेवलपमेंट इकोनॉमिस्ट रह चुकीं डॉ. इवेला विश्व व्यापार प्रणाली में व्याप्त असमानता को खत्म करने के डब्ल्यूटीओ के मौलिक लक्ष्य को हासिल करने में मदद करेंगी?
डब्ल्यूटीओ के तहत जितने भी समझौते हुए हैं उनमें कृषि समझौता (एओए) सबसे अधिक असमान है। हालांकि अनेक विकासशील देशों में कामकाजी वर्ग का बड़ा हिस्सा कृषि पर निर्भर है, इसके बावजूद कृषि उत्पादों के विश्व बाजार में अमेरिका और यूरोपियन यूनियन के सदस्य देशों का बोलबाला है। इस विकृत और प्रतिकूल परिस्थिति के कारण ही डब्ल्यूटीओ के दो सबसे मजबूत सदस्य अपने यहां कृषि व्यवसाय को भारी-भरकम सब्सिडी दे रहे हैं।
डब्ल्यूटीओ के कृषि समझौते का मकसद प्रतिबंधों और विकृतियों को दूर कर विश्व कृषि व्यापार को अनुशासित और पूर्वानुमान योग्य बनाना था। इसका उद्देश्य ढांचागत सरप्लस में भी सुधार करना था ताकि विश्व कृषि बाजार में अनिश्चितता, असंतुलन और अस्थिरता कम की जा सके। खास तौर से कृषि सब्सिडी के मामले में इस समझौते से उम्मीद की जा रही थी कि यह सभी प्रत्यक्ष और परोक्ष सब्सिडी को, तथा कृषि व्यापार को प्रभावित करने वाले सभी तौर-तरीकों को नियंत्रित करके एक प्रतिस्पर्धी माहौल बनाएगा। लेकिन 1992 में जब अमेरिका और यूरोपियन यूनियन ने आपसी मतभेदों को भुलाकर ब्लेयर हाउस समझौते पर मुहर लगाई, तो उन्होंने यह सुनिश्चित कर लिया था कि उनके अपने कृषि क्षेत्र को पर्याप्त सब्सिडी जारी रहे।
डब्ल्यूटीओ के कृषि समझौते में सब्सिडी को इस तरह निर्धारित किया गया है कि अमेरिका और यूरोपियन यूनियन की तरफ से दी जाने वाली सब्सिडी, इससे जुड़े सख्त नियमों के दायरे से बाहर चली गई हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिका में अतीत में दिया जाने वाला प्रत्यक्ष आय समर्थन, जो यूरोपियन यूनियन में इस समय सब्सिडी का बड़ा रूप है, और जो तथाकथित ग्रीन बॉक्स का हिस्सा माना जाता है, उस पर खर्च की कोई सीमा नहीं है। इसी तरह, अमेरिका में कमजोर वर्ग को फूड स्टांप और ऐसी अन्य योजनाओं के जरिए दशकों से चल रही खाद्य वितरण व्यवस्था पर भी खर्च की कोई सीमा नहीं है। यूरोपियन यूनियन में जारी प्रोडक्शन लिमिटिंग प्रोग्राम जिसमें सप्लाई मैनेजमेंट के लिए मदद दी जाती है, वह भी कृषि समझौते में निर्धारित खर्च के दायरे से बाहर है।
इसकी तुलना में भारत में परिस्थिति विपरीत है। यहां सरकार कृषि क्षेत्र के लिए मुख्य रूप से दो तरीके से सब्सिडी देती है। पहला इनपुट सब्सिडी और दूसरा प्रशासित मूल्य समर्थन जिसे न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) कहा जाता है। यह दोनों सब्सिडी डब्ल्यूटीओ के कृषि समझौते में निर्धारित खर्च की सीमा में आती हैं। भारत किसी भी वर्ष कृषि उत्पादन के कुल मूल्य के 10 फीसदी से अधिक रकम की सब्सिडी नहीं दे सकता है। हालांकि कम आय वाले या संसाधनहीन उत्पादकों को दी जाने वाली कृषि इनपुट सब्सिडी को इस खर्च की सीमा से बाहर रखने का प्रावधान है। इस प्रावधान के तहत भारत सरकार ने डब्ल्यूटीओ में बताया है कि यहां 99.43 फीसदी खेत कम आय वाले और संसाधनहीन किसान (10 हेक्टेयर या उससे कम) जोतते हैं। इस लिहाज से देखा जाए तो सब्सिडी पर खर्च की सीमा का फिलहाल भारत पर असर नहीं होना चाहिए। लेकिन विश्व कृषि बाजार के बड़े खिलाड़ियों, जिनमें अमेरिका, यूरोपियन यूनियन और ऑस्ट्रेलिया भी शामिल हैं, इतनी बड़ी संख्या में किसानों को कम आय वाला और संसाधनहीन बताने पर सवाल करते हैं। भारत सरकार पर डब्ल्यूटीओ में कृषि पर होने वाली भावी वार्ताओं में इस परिभाषा को बदलने के लिए काफी दबाव रहेगा।
सब्सिडी पर डब्ल्यूटीओ के नियमों में सबसे बुरी बात प्रशासित मूल्य समर्थन यानी एमएसपी में सब्सिडी की गणना का तरीका है। हर साल विभिन्न फसलों के लिए जो एमएसपी की घोषणा की जाती है, उसकी तुलना 1986-88 के अंतरराष्ट्रीय मूल्यों के साथ होती है, जिसे संदर्भ मूल्य माना जाता है। डब्ल्यूटीओ का कृषि समझौता 1995 में लागू होने के तत्काल बाद से ही भारत और अन्य विकासशील देश इस पर सवाल उठा रहे हैं। इन देशों का कहना है कि मौजूदा मूल्य की तुलना तीन दशक पुराने संदर्भ मूल्य से करना कतई उचित नहीं है। इन देशों का कहना है कि प्रशासित मूल्य व्यवस्था का असर मापने का तरीका पूरी तरह गलत है।
शुरू में कई वर्षों तक भारत सरकार डब्ल्यूटीओ को फसलों का एमएसपी अमेरिकी डॉलर में रिपोर्ट करती थी। इसलिए इस गलत तरीके का भारत पर कोई असर नहीं होता था। डॉलर की तुलना में रुपए की कीमत में लगातार गिरावट से चावल को छोड़कर अन्य सभी फसलों का एमएसपी हाल के वर्षों तक बाहरी संदर्भ मूल्य से नीचे ही रहता था। लेकिन 2018-19 में गेहूं को छोड़कर सभी कमोडिटी का एमएसपी बाहरी संदर्भ मूल्य से अधिक हो गया। हालांकि कृषि सब्सिडी पर खर्च की जाने वाली कुल रकम अभी तक निर्धारित 10 फीसदी की सीमा से कम ही है, लेकिन जल्दी ही यह है उस सीमा को पार कर सकती है।
कृषि समझौते में सब्सिडी के मामले में एक और बड़ा असंतुलन घरेलू खाद्य मदद योजनाओं के रूप में है। इसमें भारत जैसे विकासशील देशों के हितों के आकलन में दोहरा मानदंड अपनाया जाता है। जैसा कि पहले बताया गया है, अमेरिका और यूरोपियन यूनियन में जारी घरेलू खाद्य मदद योजनाएं डब्ल्यूटीओ के कृषि समझौते में सब्सिडी के प्रावधान से बाहर हैं। लेकिन भारत की सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) उसके दायरे में आती है, जबकि पीडीएस देश में कमजोर वर्ग को सस्ता खाद्य मुहैया कराने का तरीका है।
भारत के मामले में यह फर्क इसलिए है क्योंकि अनाजों का सरकार के स्तर पर भंडारण करना कृषि समझौते के दायरे में आता है और भारत का पीडीएस सरकारी भंडारण व्यवस्था से ही चलता है। समझौते में कहा गया है कि अगर सरकार अनाज का भंडारण करती है तो डब्ल्यूटीओ के सदस्य देश प्रशासित मूल्य (एमएसपी) पर अनाज खरीद और बेच सकते हैं। लेकिन अगर इस अनाज का बिक्री मूल्य, खरीद मूल्य से कम हुआ तो उस अंतर को सब्सिडी बिल में शुमार किया जाएगा। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो सरकार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत कमजोर वर्ग के लोगों को जो सस्ता अनाज उपलब्ध कराती है, वह सब्सिडी की गणना में शामिल होता है। जैसा कि पहले बताया गया है, किसी वर्ष दी जाने वाली कृषि सब्सिडी उस वर्ष के कृषि उत्पादन के मूल्य के 10 फीसदी से अधिक नहीं हो सकती है। सरकार ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत खर्च के लिए 2021-22 में 2.42 लाख करोड़ रुपए का प्रावधान किया है। यह कृषि उत्पादन के मूल्य के 10 फीसदी से अधिक हो जाएगा। यानी भारत को समाज कल्याण योजनाओं पर खर्च में जबरन कटौती करनी पड़ेगी।
2015 में डब्ल्यूटीओ के सदस्य देश भारत को अस्थायी रूप से मोहलत देने पर सहमत हुए थे। तब तय हुआ था कि अस्थायी क्लॉज के तहत भारत पर राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत खर्च घटाने का दबाव नहीं होगा। डब्ल्यूटीओ को भारत के मामले में इस समस्या का स्थायी समाधान निकालना था, ताकि कमजोर वर्ग के लोगों को सस्ता अनाज उपलब्ध कराया जा सके, लेकिन इस दिशा में कोई पहल नहीं की गई है।
इसमें संदेह नहीं कि डब्ल्यूटीओ के कृषि समझौते में सब्सिडी की व्यवस्था में असंतुलन समय के साथ बढ़ता गया है। विकासशील देश इसके विकृत प्रावधानों में बदलाव के लिए कई बार प्रयास कर चुके हैं, लेकिन हर बार विकसित देशों ने उस पर वीटो लगा दिया। इसलिए जब एक अफ्रीकी महिला डब्ल्यूटीओ की महानिदेशक नियुक्त हुईं, तब यह उम्मीद बढ़ गई कि यह संगठन विकासशील जगत की आवश्यकताओं को बेहतर समझेगा। लेकिन इवेला की शुरुआती प्रतिक्रियाएं इन उम्मीदों पर पानी फेरने वाली हैं। उनके एजेंडे में विकसित देशों का एजेंडा ही प्रमुख रूप से शामिल है। विकासशील देश डब्ल्यूटीओ के जिन नियमों, खासकर कृषि समझौते से जुड़े नियमों में सुधार की मांग वर्षों से कर रहे हैं, वह उनकी प्राथमिकता में नहीं दिखता है। ऐसे में डब्ल्यूटीओ में विकासशील देशों की चुनौतियां अब ज्यादा कठिन जान पड़ती हैं।
(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज के सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज एंड प्लानिंग में प्रोफेसर हैं)