उत्तराखंड में इंसान और खेती दोनों के पीछे पड़े जंगली जानवर
जंगली जानवरों से फसल बर्बादी के ज्यादातर मामले तो बिना रिपोर्ट के ही रह जाते हैं। खासकर पहाड़ी क्षेत्रों में जहां बंदर खेती को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं, वहां से विभाग के पास बहुत कम शिकायतें आई हैं।
- देहरादून से संजीव कंडवाल
उत्तराखंड में जंगली जानवर खेती को बड़ा नुकसान पहुंचा रहे हैं। जानवरों के खौफ से लोग खेतीबाड़ी छोड़ने को मजबूर है और जो लोग खेती कर रहे हैं उनकी फसलें जंगली जानवर बर्बाद कर देते हैं। उत्तराखंड वन विभाग के आंकड़े बताते हैं कि राज्य का कोई भी हिस्सा जंगली जानवरों के लिहाज से खेती के लिए सुरक्षित नहीं है। विभाग के पास साल 2021 से 2023 तक खेती को नुकसान की सर्वाधिक 1028 शिकायतें हरिद्वार फॉरेस्ट डिविजन से आई हैं। इसके बाद तराई पश्चिम से 426 और देहरादून डिविजन से 250 शिकायतें आई हैं, इसके बाद क्रमश: कार्बेट, तराई केंद्रीय, भूमि संरक्षण कालसी, तराई पूर्वी और लैंसडाउन डिविजन से शिकायतें आई हैं।
अधिकारी मानते हैं कि ये वो मामले हैं, जिसमें लोग मुआवजा मांगने सामने आए हैं। जंगली जानवरों से फसल बर्बादी के ज्यादातर मामले तो बिना रिपोर्ट के ही रह जाते हैं। खासकर पहाड़ी क्षेत्रों में जहां बंदर खेती को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं, वहां से विभाग के पास बहुत कम शिकायतें आई हैं। इसकी प्रमुख वजह यह है कि नुकसान की भरपाई मामूली होती है, जबकि इसके लिए लंबी प्रक्रिया से गुजरना होता है। मुआवजा सामान्य तौर पर जनहानि और पशुहानि के मामले में ही मिल पाता है।
मानव वन्यजीव संघर्ष की घटनाएं
वर्ष घायल मृतक
2022 325 82
2023 325 66
2024 165 38
स्रोत: पलायन आयोग, उत्तराखंड
(नोट- 2024 की घटनाएं 15 अगस्त तक की हैं)
उत्तराखंड राज्य का कुल 63 प्रतिशत भूभाग वन क्षेत्र के रूप में चिन्हित है। पर्वतीय जिलों में सीढ़ीदार खेत वैसे ही खेती-किसानी को बहुत चुनौतीपूर्ण बना देते हैं। इस कारण राज्य के पास कृषि योग्य भूमि महज 11.65 प्रतिशत ही बचती है। यह जमीन भी मुख्य रूप से तीन मैदानी मैदानी जिलों में उपलब्ध है, लेकिन इन मैदानी जिलों में हाल के वर्ष में पहाड़ी जिलों के साथ ही राज्य के बाहर से भी बड़ी संख्या में आबादी बसी है, इस कारण उत्तराखंड में कृषि योग्य भूमि लगातार घट रही है। राज्य गठन के बाद से कृषि योग्य भूमि का क्षेत्र लगभग 1.49 लाख हेक्टेयर घट चुका है।
लेकिन इससे बड़ी चुनौती राज्य के सामने बची खुची खेती को जंगली जानवरों से बचाने की आन पड़ी है। प्रदेश के मैदानी क्षेत्रों में हाथी, नील गाय और पर्वतीय क्षेत्रों में बंदर और जंगली सुअर फसलों को बर्बाद कर रहे हैं। इस कारण किसान खेतीबाड़ी छोड़ कर आजीविका के लिए दूसरे विकल्प तलाशने को मजबूर हो रहे हैं।
उत्तराखंड में वन क्षेत्र अधिक होने के साथ-साथ जंगली जानवरों की संख्या भी अधिक है। प्रदेश में वन्य जीवों के संरक्षण के लिए 6 नेशनल पार्क और 7 वाइल्ड लाइफ सेंचुरी के अलावा कई संरक्षित क्षेत्र हैं जिनके आसपास कृषि और आबादी वाले क्षेत्र हैं। मानव-वन्यजीव संघर्ष प्रदेश में पुरानी समस्या है जिससे खेती को नुकसान के मामले भी बढ़ते जा रहे हैं।
ग्राम्य विकास एवं पलायन निवारण आयोग ने जानवरों से लोगों के साथ-साथ खेती-बाड़ी को होते नुकसान को राज्य में तेज होते पलायन के प्रमुख कारणों में से एक माना है। इसके अलावा कमजोर शिक्षा व्यवस्था को भी पलायन की वजह के रूप में चिन्हित करते हुए, आयोग इसके लिए विशेष सिफारिशें करने जा रहा है। जंगली जानवरों से खेती को हो रहे नुकसान पर पलायन आयोग एक रिपोर्ट तैयार कर रहा है।
ग्राम्य विकास एवं पलायन निवारण आयोग के उपाध्यक्ष डॉ. एसएस नेगी का कहना है कि पहाड़ में पलायन के पीछे जंगली जानवरों का प्रकोप एक अहम कारण सामने आया है। हमने वन विभाग से आंकड़े मांगकर अध्ययन किया है। इस समस्या का निदान कैसे हो सकता है, इसके लिए दूसरे राज्यों का भी अध्ययन किया जा रहा है। बिहार ने नीलगायों से बचाव और दिल्ली ने बंदरों को पकड़ने के मामले में उल्लेखनीय सफलता हासिल की है, इस मॉडल को यहां भी अपनाया जा सकता है। जल्द रिपोर्ट सीएम को सौंपी जाएगी।
जंगली जानवरों द्वारा खेती को नुकसान की घटनाएं
जानवर घटनाएं
हाथी 1998
जंगली सूअर 145
सांभर 14
नीलगाय 07
बंदर 12
हिरन 34
लंगूर 15
स्रोत: पलायन आयोग, उत्तराखंड
(नोट- 2024 की घटनाएं 15 अगस्त तक की हैं)
खेती छोड़कर बकरीपालन
पौड़ी जिले का यमकेश्वर ब्लॉक राजाजी राष्ट्रीय पार्क से सटा हुआ है। इस कारण यहां जगंली जानवरों की समस्या कुछ ज्यादा ही है। इसी ब्लॉक में खेड़ा मल्ला गांव के किसान दिनेश कुकरेती बताते हैं कि कुछ साल पहले तक गांव में बचे खुचे परिवार धान, गेंहू, मंडुवा, झंगोरा, उड़द, मसूर, चौलाई जैसी फसल लगा ते थे, लेकिन पलायन के कारण अब ज्यादातर खेत बंजर हो गए हैं, इस कारण जंगली जानवर गांव के और करीब आ गए हैं, नतीजा फसल की रखवाली मुश्किल काम हो गया है। कुछ समय पहले तक गांव में मोर की समस्या नहीं थी, लेकिन अब मोर घर के आगे की सब्जी भी चट कर जा रहे हैं। इसके बजाय ग्रामीणों ने अब फसल के बजाय बकरी पालन शुरू कर दिया है। हालांकि बकरियों को भी गुलदार का खतरा रहता है, लेकिन बकरियों की रखवाली दिन में चार पांच घंटे जंगल ले जाते समय ही करनी है। यह काम खेती की 24 घंटे की रखवाली के मुकाबले आसान है। इसलिए गांव में 90 प्रतिशत खेत अब बंजर हो चुके हैं।
विभाग कई, पुख्ता योजना नहीं
जंगली जानवरों से फसलों की बर्बादी और खेती का उजड़ना वन विभाग के साथ-साथ कृषि, उद्यान, ग्राम्य विकास जैसे कई विभागों के दायरे में आता है लेकिन किसी भी विभाग के पास इस समस्या के समाधान के लिए कोई पुख्ता योजना नहीं है।
उत्तराखंड के कृषि एवं उद्यान मंत्री गणेश जोशी का कहना है कि जंगली जानवर मैदान से लेकर पहाड़ तक खेती को व्यापक नुकसान पहुंचा रहे हैं। हम इसके लिए किसानों को वैकल्पिक खेती का प्रयोग करने के साथ ही तारबाड़ में भी मदद कर रहे हैं। वन विभाग, उरेडा जैसी संस्थाएं इस दिशा में मिलकर काम कर रही हैं।
लिविंग विद लैपर्ड
मानव वन्यजीव संघर्ष को लेकर भी उत्तराखंड लगातार सुर्खियों में बना रहता है। इसमें पहाड़ी क्षेत्र में गुलदार और मैदानी क्षेत्रों में हाथी का आंतक प्रमुख है। इस रक्षाबंधन के दिन पौड़ी रिखणीखाल विकासखंड के गुठेरना ग्राम पंचायत के कोटा खंड गांव में गुलदार ने ठीक रक्षाबंधन के दिन पांच साल के एक बच्चे को आंगन से उठा लिया। बच्चा अपनी मां के साथ राखी मनाने अपने ननिहाल आया हुआ था। बाद में बच्चे का शव एक किमी दूर मिला।
उत्तराखंड के एडिशनल पीसीसीएफ (वाइल्ड लाइफ) उत्तराखंड डॉ. विवेक पांडेय के मुताबिक, मानव-वन्य जीव संघर्ष रोकने के साथ ही खेती को होने वाले नुकसान को रोकने के लिए कई विभाग मिलकर काम कर रहे हैं। साथ ही लिविंग विद लैपर्ड प्रोग्राम को भी बढ़ाया जा रहा है। इस कार्यक्रम के तहत ग्रामीणों को लैपर्ड की हकीकत को स्वीकार करते हुए, अपनी दिनचर्या में इसके अनुसार बदलाव करने को कहा जा रहा है।
गुलदार के आंतक के कारण पहाड़ में जिलाधिकारी रात्रिकालीन कर्फ्यू लगा रहे हैं, साथ ही कई बार हफ्तों तक स्कूल बंद रहना आम बात है। इस साल के शुरुआत में तो श्रीनगर जैसे प्रमुख शहर में कई दिनों तक रात्रिकालीप कर्फ्यू लागू करना पड़ा।