लोक सभा चुनाव में महंगाई, मंदिर और आरक्षण के बीच खो गया कृषि संकट
जीवीए में कृषि की हिस्सेदारी 18 फीसदी हो गई है। यानी देश की 45 फीसदी रोजगार हिस्सेदारी वाला क्षेत्र ग्रोथ के मामले में बाकी क्षेत्रों से पिछड़ रहा है। दिलचस्प बात यह है कि इसके बावजूद लोक सभा चुनावों में कृषि संकट एक बड़े मुद्दे के रूप में जगह नहीं बना पाया।
लोक सभा चुनाव 2024 के आखिरी चरण के मतदान से एक दिन पहले केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) ने 2023-24 के लिए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के प्रोविजनल आंकड़े जारी किये, जिसमें कृषि और सहयोगी क्षेत्र का ग्रास वैल्यू एडेड (जीवीए) केवल 1.4 फीसदी की दर से बढ़ा है। इसके विपरीत पूरी अर्थव्यवस्था के जीवीए की वृद्धि दर 7.2 फीसदी रही। जीवीए में कृषि की हिस्सेदारी 18 फीसदी हो गई है। यानी देश की 45 फीसदी रोजगार हिस्सेदारी वाला क्षेत्र ग्रोथ के मामले में बाकी क्षेत्रों से पिछड़ रहा है। दिलचस्प बात यह है कि इसके बावजूद लोक सभा चुनावों में कृषि संकट एक बड़े मुद्दे के रूप में जगह नहीं बना पाया।
असल में चुनाव में जहां भाजपा का फोकस मोदी की गारंटी, मंदिर, आरक्षण और करप्शन पर रहा, वहीं इंडिया गठबंधन और कांग्रेस सहित उसके बाकी घटक दल बेरोजगारी, महंगाई, आरक्षण और संविधान संशोधन व गरीबी को मुद्दा बना कर वोट लेने की कोशिश करते रहे। लेकिन कृषि संकट इन दोनों दावेदारों के मुद्दों के केंद्र में बहुत मजबूती से नहीं दिखा।
चुनावों में सत्तारूढ़ भाजपा ने मोदी की गारंटी को ही केंद्र में रखकर किसानों से वोट मांगे और उसमें प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि को जारी रखने पर जोर दिया। इसके अलावा पार्टी ने कोई बड़े बदलाव वाला वादा किसानों और कृषि क्षेत्र के लिए नहीं किया।
हालांकि कांग्रेस ने जरूर किसान न्याय के तहत न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी गारंटी देने, एमएसपी तय करने के लिए एम एस स्वामीनाथन फार्मूले को आधार बनाने और किसानों के कर्ज माफ करने जैसे वादे किये।
तीन कृषि कानूनों की वापसी के बाद किसान संगठनों ने आंदोलन तो समाप्त कर दिया, लेकिन एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग को उन्होंने हमेशा केंद्र में रखा। इसके लिए दिल्ली के रामलीला मैदान में चुनाव के पहले संयुक्त किसान मोर्चा ने रैली की। संयुक्त किसान मोर्चा (अराजनैतिक) ने पंजाब और हरियाणा के शंभू बार्डर पर मोर्चा जारी रखा हुआ है जिसमें एमएसपी की कानूनी गारंटी एक मुख्य मुद्दा है।
चुनावों को लेकर किसान संगठनों का रुख भी अलग-अलग रहा है। मसलन, सबसे अधिक लोक सभा सीट वाले राज्य उत्तर प्रदेश में किसान संगठनों ने केंद्र और राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा का चुनावों में खुलकर विरोध नहीं किया और मत के मामले में फैसला संगठन के लोगों के विवेक पर छोड़ दिया।
लेकिन हरियाणा और पंजाब में रुख इससे अलग दिखा। हरियाणा में भाजपा के उम्मीदवारों को ग्रामीण इलाकों में प्रचार में किसानों के विरोध के चलते मुश्किलें आईं और कई जगह वह गावों में प्रचार नहीं कर सके। पंजाब में यह विरोध हरियाणा से भी मुखर दिखा और वहां लगातार किसान संगठन भाजपा का विरोध करते रहे। यही नहीं, किसान संगठनों ने पंजाब में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभाओं का भी विरोध किया। इन दोनों राज्यों में किसान संगठनों ने भाजपा के विरोध में मत देने की अपील किसानों से की।
इसके अलावा महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में प्याज, गन्ना और कपास किसानों के मुद्दे चुनावों में चर्चा में आ सके। सरकार को चुनावों के बीच प्याज निर्यात पर प्रतिबंध हटाने का फैसला करना पड़ा ताकि इसके चलते हो रहे राजनीतिक नुकसान की भरपाई की जा सके।
केंद्र की मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार के 10 साल के कार्यकाल और उसके पूर्ववर्ती कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के 10 साल के कार्यकाल की बात करें तो कृषि क्षेत्र की स्थिति में बहुत बड़ा बदलाव नहीं दिखता है। यूपीए सरकार के दस साल में 2013-14 तक कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर 3.46 फीसदी रही थी और मोदी सरकार के दस साल में 2023-24 तक यह 3.69 फीसदी रही है। इसमें फसल उत्पादन की वृद्धि दर यूपीए के दौरान 3.39 फीसदी और मोदी सरकार के दौरान 1.98 फीसदी रही है।
हालांकि चुनावी शोर में भावनाएं और जल्दी पकड़ में आने वाले मुद्दे ही नारे और कैच वर्ड बनते हैं। ऐसे में कृषि संकट, कृषि कर्ज की समस्या, फसलों की कीमतें, कृषि शोध पर खर्च, बढ़ती लागत और घटती कमाई जैसे नीरस मुद्दों पर हवा नहीं बनती है और यही वजह है कि संकट के बावजूद कृषि संकट इन चुनावों में बड़ा केंद्रीय मुद्दा नहीं दिखा।