इलेक्ट्रिक कारें कैसे पैदा करेंगी डीएपी का संकट
फसलों की बुवाई के समय उपयोग होने वाले सबसे अहम उर्वरक, डाई अमोनियम फॉस्फेट (डीएपी) के कच्चे माल फॉस्फोरिक एसिड का एक नया दावेदार खड़ा हो गया है। इससे डीएपी के लिए लगभग पूरी तरह आयात पर निर्भर भारत जैसे देशों की मुश्किलें बढ़ सकती हैं।
फसलों की बुवाई के समय उपयोग होने वाले सबसे अहम उर्वरक, डाई अमोनियम फॉस्फेट (डीएपी) के कच्चे माल फॉस्फोरिक एसिड का एक नया दावेदार खड़ा हो गया है। इससे डीएपी के लिए लगभग पूरी तरह आयात पर निर्भर भारत जैसे देशों की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। दिलचस्प बात यह है कि इस नये दावेदार को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार सब्सिडी भी दे रही है। वह दावेदार है इलेक्ट्रिक वाहन यानी ईवी।
दुनिया की बड़ी इलेक्ट्रिक वाहन निर्माता कंपनी टेस्ला से लेकर चीन की बड़ी ईवी कंपनियों ने कार बैटरी के लिए फॉस्फोरिक एसिड का इस्तेमाल बढ़ा दिया है। पिछले एक साल में चीनी कंपनियों द्वारा ईवी में इस्तेमाल की गई दो-तिहाई बैटरी लिथियम ऑयन फॉस्फेट (एलएफपी) बैटरी थीं। इनमें पी के लिए फॉस्फोरस का इस्तेमाल किया गया है। साल 2023 में इलेक्ट्रिव व्हीकल्स की वैश्विक कैपेसिटी की 40 फीसदी बैटरियों की आपूर्ति एलएफपी बैटरियों की हुई, जबकि 2020 में यह संख्या मात्र छह फीसदी थी। निकल आधारित एनएमसी और एनसीए बैटरियों के लिए जरूरी निकल और कोबाल्ट जैसे महंगे और कम उपलब्धता वाले कच्चे माल के मुकाबले फॉस्फोरस की कीमत कम होने के चलते आने वाले दिनों में बैटरी उत्पादन में इसका उपयोग बढ़ेगा।
भारत के लिए चिंता की बात यह है कि उर्वरक के तौर पर यूरिया के बाद देश में सबसे अधिक खपत डीएपी की ही होती है। पौधों की जड़ों को मजबूती देने के लिए फसल की बुवाई के समय ही डीएपी का उपयोग किया जाता है। डीएपी में 46 फीसदी फॉस्फोरस होता है। रॉक फॉस्फेट और सफ्यूरिक एसिड से फॉस्फोरिक एसिड तैयार किया जाता है। इससे तैयार फॉस्फोरिक एसिड को अमोनिया के साथ रिएक्ट कर डीएपी तैयार होता है। डीएपी के अलावा बाकी फॉस्फोरिक कॉम्पलेक्स उर्वरकों के लिए फॉस्फोरस इसी से लिया जाता है।
एलएफपी, एनएमसी और एनसीए तीनों लिथियम ऑयन बैटरी होती हैं। एलएफपी में कैथोड के लिए आयरन फॉस्फेट का इस्तेमाल होता है जबकि बाकी दोनों में निकेल, मैग्नीज, कोबाल्ट और अल्यूमिनियम ऑक्साइड का इस्तेमाल कैथोड यानी पॉजिटिव इलेक्ट्रोड के लिए किया जाता है। निकल आधारित बैटरियों की जगह निकल आयरन फॉस्फेट आधारित बैटरियों की हिस्सेदारी बढ़ती जा रही है।
ईवी के बढ़ते बाजार और इसमें फॉस्फोरस आधारित बैटरियों के बढ़ते उपयोग का भारत पर क्या असर होगा, इसे समझने के लिए कुछ आंकड़ों पर ध्यान देने की जरूरत है। भारत में डीएपी की सालाना खपत 105 से 110 लाख टन है। इसमें आधा से अधिक डीएपी चीन, सऊदी अरब, मोरक्को, रूस और कुछ दूसरे देशों से आयात किया जाता है। डीएपी के कच्चे माल फॉस्फोरिक एसिड का आयात जॉर्डन, मोरक्को, ट्यूनिशिया और सेनेगल से होता है। वहीं रॉक फॉस्फेट का आयात मोरक्को, टोगो, अल्जीरिया, मिश्र, जॉर्डन और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) से होता है।
साल 2022-23 में भारत ने 5.56 अरब डॉलर का 67 लाख टन डीएपी, 3.62 अरब डॉलर का 27 लाख टन फॉस्फोरिक एसिड और 89.13 करोड़ डॉलर का 39 लाख टन रॉक फॉस्फेट आयात किया था। इस तरह डीएपी और उसके कच्चे माल के आयात पर भारत ने करीब दस अरब डॉलर खर्च किये थे। मर्चेंट ग्रेड पी में 52 से 54 फीसदी पी होता है, लेकिन बैटरियों में इस्तेमाल करने के लिए इसकी शुद्धथा काफी अधिक होती है।
चीन में जिस तरह से इसका उपयोग बैटरियों के लिए बढ़ा है और साल 2023 में दो-तिहाई बैटरी फॉस्फोरस आधारित थीं, उसके चलते यह संभावना बन रही है कि चीन लंबे समय तक डीएपी का बड़ा निर्यातक नहीं रहेगा। अभी वहां से हर साल 50 लाख टन डीएपी का निर्यात होता है। साल 2023 में भारत ने 17 लाख टन डीएपी का आयात चीन से किया था जो मोरक्को और रूस के बाद सबसे अधिक है।
अमेरिका और यूरोप में इलेक्ट्रिक व्हीकल्स में एलएफपी बैटरियों की हिस्सेदारी अभी 10 फीसदी से कम है। एनएमसी और एनसीए बैटरी में उपयोग होने वाले क्रिटिकल मिनरल कोबाल्ट का दुनिया भर में रिजर्व करीब 1.1 करोड़ टन है, उसमें से 60 लाख टन रिजर्व डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगों में है। कोबाल्ट इन बैटरियों की अधिक लागत का बड़ा कारण है। आने वाले दिनों में अमेरिका और यूरोप में भी एलएफपी बैटरियों की हिस्सेदारी बढ़ेगी क्योंकि दुनिया में रॉक फॉस्फेट का रिजर्व 74 अरब टन और आयरन का 190 अरब टन है। कीमत के अलावा एलएफपी बैटरियों की लाइफ ज्यादा है और यह अधिक सुरक्षित भी मानी जाती हैं। ऐसे में अगर ईवी कंपनियां एलएफपी की तरफ जाती हैं तो भारत के लिए डीएपी की उपलब्धता का संकट पैदा हो सकता है।
चालू साल में अप्रैल से अगस्त 2024 के बीच भारत में 15.9 लाख टन डीएपी का आयात हुआ, जो इसी अवधि के पिछले साल के 32.5 लाख टन डीएपी आयात से 51 फीसदी कम है। इसकी बड़ी वजह चीन द्वारा निर्यात पर रोक लगाना और कीमतों का बढ़ना रहा है।
फिलहाल चीन एलएफपी बैटरियों का बड़े पैमाने पर उत्पादन कर रहा है। वहीं मोरक्को में एलएफपी कैथोड मैटीरियल बनाने और ईवी बैटरी उत्पादन इकाइयों के लिए निवेशकों का रुझान बढ़ गया है। मोरक्को में 50 अरब टन रॉक फॉस्फेट रिजर्व है जो दुनिया के रॉक फॉस्फेट रिजर्व का करीब 68 फीसदी है। भारत में केवल 310 लाख टन फॉस्फेट रिजर्व है और हम सालाना 15 लाख टन का उत्पादन करते हैं। ऐसे में डीएपी जैसे अहम फसल न्यूट्रिएंट के लिए हम मोरक्को के ओसीपी ग्रुप, रूस के फॉसएग्रो और सऊदी अरब के साबिक व मादेन पर निर्भर हैं।
आने वाले समय के लिए लगभग पूरी तरह डीएपी आयात पर निर्भर भारत जैसे देश को डीएपी की उपलब्धता बनाये रखने के लिए रणनीति बनानी होगी। जिन देशों में रॉक फॉस्फेट के रिजर्व हैं उनके साथ आपूर्ति के दीर्घकालिक समझौते किये जाएं तो संभावित मुश्किल को कम किया जा सकेगा। ऐसे देशों में मोरक्को, ट्यूनिशिया, जॉर्डन और सेनेगल शामिल हैं।
रबी सीजन में कम हो सकती है डीएपी की उपलब्धता
किसानों को रबी सीजन में डीएपी की उपलब्धता को लेकर कुछ मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। अक्तूबर से आलू, सरसों और चना के लिए डीएपी की मांग शुरू होगी। उसके बाद नवंबर- दिसंबर में गेहूं के लिए डीएपी की मांग आयेगी। अगर आयात नहीं बढ़ता तो कुछ मुश्किल होगी। चालू खरीफ सीजन में डीएपी की बिक्री में 20.5 फीसदी गिरावट दर्ज की गई है जबकि मानसून बेहतर था। अप्रैल से अगस्त 2024 के दौरान 38.4 लाख टन डीएपी का बिक्री हुई जबकि पिछले साल इसी अवधि में 48.3 लाख टन डीएपी की बिक्री हुई थी। हालांकि इस दौरान डीएपी की जगह एनपीके के कंबिनेशन वाले दूसरे कॉम्प्लेक्स उर्वरकों की बिक्री अधिक हुई है।
डीएपी के आयात में कमी की बड़ी वजह इसकी आयात लागत बढ़ना है। वैश्विक बाजार में डीएपी की कीमत 620 डॉलर प्रति टन को पार कर गई है। घरेलू बाजार में इसकी अधिकतम खुदरा कीमत (एमआरपी) 27000 रुपये प्रति टन है। सरकार डीएपी पर 21676 रुपये प्रति टन की सब्सिडी देती है। इसके साथ ही 1700 रुपये औसत रेल ढुलाई खर्च का भुगतान किया जाता है। वहीं 20 अगस्त को 3500 रुपये प्रति टन की अतिरिक्त सब्सिडी देने की सूचना कंपनियों को दी गई है। हालांकि उद्योग सूत्रों का कहना है कि उर्वरक मंत्रालय द्वारा इस संबंध में अभी तक कोई अधिसूचना जारी नहीं की गई है।
कुल मिलाकर कंपनियों को डीएपी पर 53876 रुपये प्रति टन की आय होती है। वहीं 620 डॉलर प्रति टन की आयातित कीमत के साथ इस पर पांच फीसदी सीमा शुल्क, बैगिंग, ढुलाई, बीमा और डीलर मार्जिन समेत सारे खर्च मिलाकर कुल 61000 रुपये प्रति टन की लागत आती है। ऐसे में कंपनियों की एक टन डीएपी की बिक्री पर लागत के मुकाबले 7100 रुपये का घाटा हो रहा है। उद्योग सूत्रों का कहना है कि कंपनियों और सरकार की कोशिश है कि कॉम्प्लेक्स उर्वरकों की खपत बढ़ाकर डीएपी पर निर्भरता कम की जाए। पिछले दिनों राजस्थान के अधिकारियों ने किसानों को बाकयदा इसके लिए एडवाइजरी भी जारी की थी।