‘सरकारी मानदेय पाने वालों की कमेटी से किसान हित की उम्मीद बेमानी’
आज परिस्थितियां बदल गई हैं, सरकार की कलई पूरी तरह से खुल गई है। किसान समझने लगे हैं कि सही तथ्य यही है कि सरकार वास्तव में देश के किसानों को एमएसपी देना ही नहीं चाहती। क्योंकि इससे किसानों की अरबों-खरबों की उपज हर साल औने-पौने दामों में खरीद कर मोटा मुनाफा कमाने वाले और उनकी पार्टी को मोटा चंदा देने वाले वाले पसंदीदा व्यापारियों की तिजोरी पर अतिरिक्त भार पड़ेगा
हमारे प्राच्य वांग्मय में कृषि तथा कृषकों की बड़ी महिमा गाई गई है। पराशर नाम के एक महान ऋषि ने अपने ग्रंथ 'कृषि पराशर' में लिखा है,
"कृषिर्धन्या कृषिर्मेध्या जन्तूनां जीवनं कृषि।"
अर्थात कृषि धन और ज्ञान प्रदान करती है तथा कृषि ही मानव जीवन का आधार है। चाणक्य अर्थात कौटिल्य जिन्हें विष्णुगुप्त के रूप में भी पहचाना जाता है, के ग्रंथ अर्थशास्त्र में आर्थिक नीति, राज्य शिल्प और युद्ध नीति के साथ ही कृषि को राज्य की अर्थव्यवस्था की रीढ़ बताते हुए व्यवस्था दी गई है। इनके उद्धरण आज भी समाज को राह दिखाते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में भी जीवन कर्मों में कृषि को सर्वोच्च महत्ता देते हुए इसे प्रथम स्थान दिया गया है। शास्त्रों में कहा गया है, "कृषि मूलम जगत सर्वम"। खेती किसानी को लेकर हमारे देश में एक कहावत बड़ी मशहूर है, "उत्तम खेती मध्यम बान, अधम चाकरी भीख निदान।"
खेती किसानी की वर्तमान दुर्दशा तथा देश में किसानों की आए दिन हो रही आत्महत्याओं ने इस स्थापित कहावत के मायने एकदम उलट दिए हैं।
भारत सदैव कृषि प्रधान देश के रूप में जाना जाता रहा है। इस देश में किसानों को अन्नदाता का सम्मानित दर्जा दिया गया है। यह देश अगर विश्व में सोने की चिड़िया कहलाता था, तो वास्तव में इसके पीछे भी तत्कालीन सुदृढ़ खेती किसानी तथा आत्मनिर्भर किसानों की मजबूत ताकत ही थी। अब सवाल यह उठता है कि आखिर ऐसा क्या घटित हुआ, अथवा देश के नीति निर्माताओं ने या फिर किसानों ने ऐसे कौन से पाप किए कि किसान आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो रहे हैं। आखिर क्यों अन्नदाताओं के दुर्दिन खत्म होने का नाम नहीं ले रहे है ?
दरअसल, ज्यादातर खेती आज घाटे का सौदा बन गई है। किसान परिवारों की नई पीढ़ी अब खेती छोड़, इतर छोटे-मोटे रोजगार तलाशने शहरों की ओर दौड़ लगा रही है। ऐसा भी नहीं कि सरकारों ने खेती तथा किसानों की दशा सुधारने के लिए कोई प्रयास नहीं किया। साल दर साल अनेक योजनाएं बनीं पर सब भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गईं।
हाल के दिनों में तो देश के किसानों की दशा बेहद शोचनीय हो गई है। यह कहना अनुचित न होगा कि देश की खेती किसानी और बहुसंख्य किसान मानो आईसीयू में पड़े हैं। पिछले ढाई साल कोरोनावायरस और आंदोलन की भेंट चढ़ गए। हालांकि इन कठिन परिस्थितियों में भी किसानों ने खेती के पहिए को रुकने नहीं दिया और समूचा देश जब अपने घरों में दुबका हुआ था तब भी सबका पेट भरा। लेकिन मौसम की बेवफाइयों और कोरोना की बेहिसाब बंदिशों ने किसानों के खेत से लेकर बाजार के बीच हजारों कठिनाइयां पैदा कर दीं, जिनके कारण छोटे बड़े सभी किसानों ने भारी घाटा उठाया है।
देश की कृषि बाजार ने कभी किसानों की खून पसीने की कमाई के साथ न्याय नहीं किया और उनके उत्पादों का वाजिब मूल्य नहीं दिया। किसानों से बिना सलाह के लाए गए तीनों विवादास्पद कानूनों को नाराज किसानों के ऐतिहासिक लंबे आंदोलन के बाद सरकार ने बेमन से वापस तो ले लिया, पर पूरे मसले को सरकार ने अपनी हार जीत से जोड़ते हुए इसे अपनी नाक का सवाल बना लिया है। आंदोलन की वापसी के समय न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानून लाने के लिए कमेटी गठन की बात हुई थी। पर अन्य कई मौकों की तरह इस बार भी सरकार अपने वादे से सीधे पलट गई।
कृषि मंत्री ने तो हाल में एक बयान में यहां तक कह दिया कि किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानून लाने बाबत कभी कोई बात ही नहीं हुई थी, बल्कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था को और अधिक कारगर तथा पारदर्शी बनाने की बात की गई थी। कोई यह तो पूछे कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की आप की पूर्व व्यवस्था अगर कारगर और पारदर्शी नहीं थी तो आप लोगों ने आठ सालों में उसे बदला क्यों नहीं। अब अगर सरकार के नुमाइंदे ही वादों से पलट जाएं और सफेद झूठ बोलने लगें तो जनता बेचारी कहां जाए?
इन सबसे यह समझ में आ जाता है कि सरकार की मंशा किसी भी हालत में किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की नहीं है। वह तीनों कानूनों की वापसी पर अपनी हार को पचा नहीं पा रही है और बदला लेने के मूड में है। किसान संगठन भी सरकार की नीयत को लेकर शंकित हैं, इसीलिए नई कमेटी के गठन की घोषणा के साथ ही उसके स्वरूप को देखकर सरकार की मंशा को भांप गए। यही कारण है कि किसान हितों के लिए वास्तविक रूप से संघर्षशील सभी किसान संगठनों ने इस कमेटी से कन्नी काट लिया।
संयुक्त किसान मोर्चा में अन्य मुद्दों को लेकर भले ही मतभेद हों या ना हों लेकिन इसमें भाग न लेने को लेकर सभी संगठन एकजुट व एकमत नजर आए। देश के 40 से अधिक किसान संगठनों के राष्ट्रीय महासंघ आईफा ने तो एमएसपी पर गठित इस कमेटी को "शोकान्तिका नौटंकी" ही कह दिया। दरअसल सरकार की नीयत किसानों को एमएसपी देने की है ही नहीं। अगर सरकार की ऐसी मंशा होती, तो वह कमेटी का खेल खेलने के बजाय एमएसपी पर एक सक्षम कानून लेकर आती।
गौरतलब है कि हाल में ही सरकार ने एमएसपी पर कमेटी गठित की है। इस 29 सदस्यीय कमेटी में शामिल लगभग सभी सदस्य या तो सरकार में शामिल लोग हैं, या फिर सरकार के वेतन भोगी अधिकारी हैं, अथवा सरकारी मानसेवी लाभार्थी विशेषज्ञ हैं अथवा सत्तारूढ़ पार्टी के जेबी संगठनों के लोग हैं, अथवा सरकार के कृपा पात्र तथा लाभार्थी कंपनियों के लोग हैं।
इनका इतिहास देश के किसानों को भली-भांति पता है। इसलिए इनसे किसान हितों के बारे में ईमानदारी से सोचने की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। इस कमेटी में शामिल ज्यादातर लोग किसान आंदोलन के समय सरकारी पाले में खड़े होकर, आंदोलनकारी किसानों को भला बुरा कहते हुए कोसते रहते थे,और उन काले कानूनों को लेकर सरकार की तरफ से अधिवक्ता की तरह कार्य करते हुए सरकार का बचाव करते थे।
किसान संगठनों के जले घाव पर नमक छिड़कते हुए सरकार ने इस कमेटी का अध्यक्ष उन्हीं संजय अग्रवाल को बनाया है, जिनकी अगुवाई में उन तीनों कार्पोरेट परस्त कानूनों का ड्राफ्ट तैयार किया गया था। समझने वाली बात यह है कि आखिर जिनकी तनख्वाह या मानदेय सरकार देती है, भला उनसे किसान हित के लिए सरकार के खिलाफ जाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
एक और महत्वपूर्ण तथ्य है कि इस कमेटी को मूल लक्ष्य से विचलित करने के लिए नन्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ ही जैविक खेती, जीरो बजट जैसे विवादास्पद मुद्दों पर विचार के लिए भी अधिकृत किया है। इनका कोई हल कभी नहीं निकलने वाला। जीरो बजट खेती किसानों को बहकाने के लिए एक जुमला मात्र है। यह भी विचारणीय तथ्य है कि आज हर देश अपने कृषि सेक्टर को मजबूत बनाने के लिए खेती में जबरदस्त अल्पकालिक तथा दीर्घकालिक निवेश कर रहा है, जबकि हमारा कृषि प्रधान देश खेती में निवेश को हतोत्साहित करते हुए तथाकथित "जीरो बजट" का झुनझुना बजा रहा है।
अगर न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारण की बात करें तो माना जाता है कि "कृषि मूल्य लागत आयोग" अलग अलग फसलों की खेती में होने वाले सभी खर्चे जोड़कर उनकी लागत निकालता है। हालांकि उसका यह आकलन हमेशा वास्तविक कृषि लागत से काफी कम होता है, इसीलिए किसान को 'न्यूनतम समर्थन मूल्य' मिलने के बावजूद खेती में घाटा होता है।
समझने वाली बात यह है कि जब इस सरकारी "जीरो बजट" फार्मूले से खेती होगी, तब तो खेती की लागत ही जीरो होगी। कुल मिलाकर बिना एक टके लागत के खेती में थोड़ा बहुत जो भी उत्पादन हो वह किसान का सौ टका फायदा माना जाएगा। ना तो इस 'जीरो बजट' पर खेती होनी है, ना उससे कोई लाभ होना है, ना किसानों को सही समर्थन मूल्य देना है, ना ही इन मुद्दों पर कोई फैसला होना है।
दीवाल पर लिखी यह इबारत अब बड़े आराम से पढ़ने में आ रही है कि, इस कमेटी से ना तो किसानों को एमएसपी मिलनी है, और ना ही एमएसपी गारंटी कानून मिलना है। अब लाख टके का सवाल यह उठता है कि जब किसानों को न एमएसपी देना है ना ही एमएसपी गारंटी कानून देना है, तो भला इस कमेटी को गठित क्यों किया गया है? यह दरअसल आने वाले चुनावों के मद्देनजर देश के किसानों को भ्रमित करने हेतु सोच समझकर उठाया गया राजनैतिक रणनीतिक कदम है।
इस कदम के जरिए सरकार किसानों को यह संदेश देना चाहती है कि हमने तो एमएसपी के लिए कमेटी बना दी है, ये किसान संगठन तो मूर्ख, नासमझ और अड़ियल हैं जो आपके हित में बनाई गई इस कमेटी में भाग नहीं ले रहे। यानी कि देश के वास्तविक जुझारू किसान संगठनों को किसान समुदाय की नजरों में नीचे गिराने की यह एक सोची समझी साजिश है। सरकार को उम्मीद है कि इस भ्रम जाल में फंस कर शायद किसान उन्हें आंख मूंदकर वोट देंगे। पिछले कई मौकों पर सरकारों ने इस तरह किसानों के एकमुश्त वोट हासिल करके अपनी सरकारें भी बनाई हैं। इस बार भी सरकार देश के किसान समुदाय को मूर्ख बना रही है। किसानों की बुद्धिमानी और जागरूकता को लेकर सरकार का आकलन कितना सही या कितना गलत है यह तो आने वाले चुनाव ही बताएंगे।
आज परिस्थितियां बदल गई हैं, सरकार की कलई पूरी तरह से खुल गई है। किसान समझने लगे हैं कि सही तथ्य यही है कि सरकार वास्तव में देश के किसानों को एमएसपी देना ही नहीं चाहती। क्योंकि इससे किसानों की अरबों-खरबों की उपज हर साल औने-पौने दामों में खरीद कर मोटा मुनाफा कमाने वाले और उनकी पार्टी को मोटा चंदा देने वाले वाले पसंदीदा व्यापारियों की तिजोरी पर अतिरिक्त भार पड़ेगा ।
सरकार उन चुनिंदा व्यापारियों के खजाने की रक्षा हेतु कृत संकल्प प्रतीत होती है । आईफा तथा साथी किसान संगठनों ने तो सरकार से साफ कहा था, कि आप तो वैसे भी दिन प्रतिदिन नये नये क़ानून ला रहे ही हैं, तो किसानों पर कृपा कर एक कानून आप एमएसपी पर भी लेकर आ जाइये, जिसमें सीधे-सीधे उल्लेख हो कि किसानों के उत्पाद को न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत पर यदि कहीं भी कोई भी खरीदता है तो वह कानूनन जुर्म होगा।
इस मुद्दे पर सरकार लगातार यह सफेद झूठ बोलती है कि सरकार के पास इतना पैसा नहीं है कि वह सरकारों व किसानों का पूरा उत्पाद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद सके। हम तो यह कहते ही नहीं कि किसानों का सारा का सारा उत्पाद सरकार खरीदे। सरकार को जरूरत है तो खरीदे वरना एक दाना भी किसानों से न खरीदे। वैसे भी सरकार किसानों से जो भी खरीदी करती है, वह प्राय: समर्थन मूल्य पर ही करती है, इसलिए एमएसपी कानून लाने से सरकार पर कोई अतिरिक्त आर्थिक भार नहीं पड़ने वाला। हां सरकार को तो बस यही कानून लागू करना है कि जो भी कंपनी, संस्था अथवा व्यापारी किसानों का माल खरीदे, वह किसी भी हालत में न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर न की जाए। सीधी सी बात है कि तब व्यापारियों को किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य देना पड़ेगा, सरकारी खजाने से इसमें एक रुपया भी अतिरिक्त खर्चा नहीं होने वाला। हां व्यापारियों को जरूर अपनी थैली का मुंह किसानों के लिए थोड़ा सा और खोलना पड़ेगा।
लेकिन इस कमेटी के गठन से सरकार का किसान हितैषी मुखौटा अब पूरी तरह से गिर गया है । जाहिर है ये देश के किसानों की कीमत पर चुनिंदा बड़े व्यापारियों के हित रक्षा हेतु समर्पित हैं, और शायद इसीलिए यह नहीं चाहते कि इनके चहेते व्यापारियों की जेबें ढीली हों। इस कमेटी में किसान हितों के लिए ईमानदारी से सोचने वालों के लिए कोई जगह हो ही नहीं सकती।
रहीम ने लिखा है कि "कहु रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग?" सरकारी बाबुओं और सत्तारूढ़ दल के हितैषी संगठनों के लोगों से भरी हुई यह कमेटी केवल सरकार के चहेते व्यापारियों के हितों के बारे में ही सोच सकती है। वैसे भी हमारे देश में यह कहा जाता है कि जिस समस्या को हल ना करना हो उसके लिए आप एक कमेटी बना दो, फिर उस कमेटी ने क्या किया इसकी जांच के लिए एक और कमेटी बना दो, फिर उन दोनों कमेटियों के कार्यों के मूल्यांकन के लिए एक और कमेटी बना दो। यह कहना गलत नहीं होगा कि यह कमेटी केवल आगामी चुनावों में लाभ प्राप्त करने के लिए बनाई गई है।
न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग कोई नई मांग नहीं है। एमएसपी कानून को लेकर "आईफा" भी लंबे समय से लड़ाई लड़ रही है। विगत दिनों देश के लगभग 200 दिग्गज किसान नेताओं ने दिल्ली में लगातार बैठकें कीं। उन्होंने सभी कृषि उत्पादों पर एमएसपी कानून लाने के लिए "राष्ट्रीय एमएसपी गारंटी मोर्चा" का गठन किया गया है। ये देश के सभी राज्यों के गांव - गांव में एमएसपी गारंटी कानून के लिए "जनजागरण अभियान" चला रहे हैं।
इसी संदर्भ में आगामी 6 से 8 अक्टूबर को देश के सारे अग्रणी किसान नेता पुनः दिल्ली में इकट्ठे होने वाले हैं। इस तीन दिवसीय महासम्मेलन में देश के हर राज्य की खेती की दिशा दशा तथा "एमएसपी गारंटी मोर्चा" की राष्ट्रीय रूपरेखा तय कर दी जाएगी। इन तैयारियों को देखते हुए सरकार को अब यह समझना होगा कि सरकार के तनखैय्या कलाकारों की इस "शोकांतिका नौटंकी" कमेटी से किसान अब भरमाने वाले नहीं हैं। इससे पहले कि देश के किसानों की नाराज़गी विस्फोटक रूप ले, सरकार को आगे बढ़कर सार्थक पहल करनी चाहिए तथा देश के किसान संगठनों से चर्चा कर इस दिशा में तत्काल जरूरी ठोस कदम उठाना चाहिए। अपने उत्पादन का न्याय पूर्ण न्यूनतम समर्थन मूल्य प्राप्त करना किसानों का वाजिब हक है,और किसानों को उनका यह हक हर हाल में मिलना ही चाहिए।
बात-बात पर प्राचीन संस्कृति, प्राचीन ज्ञान तथा प्राच्य विद्वानों की उक्तियों की दुहाई देने वाली इस सरकार को कौटिल्य के अर्थशास्त्र के संस्कृत श्लोक के निहितार्थ भी समझने चाहिए, तथा अपने पसंदीदा धनकुबेरों को भी समझाना चाहिए ;
" अलबद्ध लाभार्थ, लब्ध परिरक्षणी "
अर्थात जो प्राप्त न हो उसे प्राप्त करना, जो प्राप्त हो गया उसे संरक्षित रखना और जो संरक्षित हो गया है उसे समानता के आधार पर बांटना शुरू करें। अब देखने वाली बात यह है कि प्राच्य संस्कृति तथा ज्ञान के संरक्षण संवर्धन के साथ ही उनके अनुकरण का दावा करने वाली यह सरकार , प्राचीन वांग्मयों में सदैव पूजित सम्मानित तथा रक्षित इस देश के अन्नदाता कृषक समुदाय के साथ उचित न्याय कब करती है।
(लेखक अखिल भारतीय किसान महासंघ आईफा के राष्ट्रीय संयोजक हैं, लेख में व्यक्त विचार उनके निजी विचार हैं )