कृषि को टिकाऊ बनाने के लिए व्यवहारिक मॉडल की जरूरत, त्वरित राहत कारगर नहीं
सरकार और प्रधानमंत्री की ओर से आश्वासन मिलने के बावजूद किसान अपनी मांग से एक कदम भी पीछे हटने से इनकार कर चुके हैं। वे पूरी तरह इन कानूनों का खात्मा चाहते हैं।
इस साल पारित किए गए तीन कृषि कानूनों को वापस करवाने के लिए देश के अलग-अलग हिस्सों के हज़ारों किसान करीब महीने भर से धरने पर बैठे हुए हैं। इनका नेतृत्व मोटे तौर पर पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के किसानों का है जो तीनों कानूनों- कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) अधिनियम, 2020 (एफपीटीसी), कीमत आश्वासन एवं कृषि सेवाओं पर करार (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) अधिनियम, 2020 (एफएपीएएफएस) और आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, 2020- को वापस लेने की मांग कर रहे हैं। इन कानूनों की घोषणा लॉकडाउन के दौरान की गयी और बाद में इन्हें अध्यादेश के रूप में लाया गया तथा किसी भी हितधारक से परामर्श के बगैर इन्हें पारित कर दिया गया। न तो किसानों से कोई राय मशविरा किया गया और न ही संसद के दोनों सदनों में विपक्ष की जतायी आपत्तियों को संज्ञान में लिया गया।
सरकार और प्रधानमंत्री की ओर से आश्वासन मिलने के बावजूद किसान अपनी मांग से एक कदम भी पीछे हटने से इनकार कर चुके हैं। वे पूरी तरह इन कानूनों का खात्मा चाहते हैं। अपनी इस मांग से किसानों के नुमाइंदे पूरी तरह मुतमईन हैं क्योंकि वे इन कानूनों को कृषि बाजार में महज निजी क्षेत्र के प्रवेश के एक रास्ते के रूप में नहीं देखते, बल्कि देश में खेती-किसानी के समूचे ढांचे पर एक सुनियोजित हमला मानते हैं। निजी कॉरपोरेट क्षेत्र के साथ इन किसानों के पिछले अनुभवों को देखते हुए इनका संघर्ष भले जायज़ जान पड़े, लेकिन मांगों की संकुचित प्रकृति और विरोधरत किसानों का क्षेत्रीय संकेंद्रण यह धारणा पैदा करती है कि केवल अमीर और जमींदार किसान ही विरोधरत हैं। यह आलोचना एक हद तक जायज भी है।
इसमें हालांकि ध्यान देने वाली बात यह भी है कि भले यह विरोध प्रदर्शन एक जगह पर केंद्रित हो, लेकिन किसान तो देश भर में तकरीबन हर राज्य में विरोध कर रहे हैं। पिछले चार वर्षो में तमिलनाडु, महाराष्ट्र, राजस्थान, छत्तीसंगढ़, कर्नाटक और तेलंगाना आदि के किसानों ने भीषण विरोध प्रदर्शन किए हैं। मध्यप्रदेश में प्रदर्शन कर रहे किसानों पर तो पुलिस ने गोली ही चला दी थी जिसमें पांच किसानों की मौत हो गयी थी। दूसरे राज्यों में भी किसानों का असंतोष बढ़ा है। ज्यादातर राज्यों में किसानों की आम मांग कर्जमाफी या सरकारी खरीद से जुड़ी है। इन तमाम विरोध प्रदर्शनों के बीच जो एक बात समान रूप से मौजूद है, वह घाटे का सौदा बनती खेती से उपजा असंतोष है।
वैसे तो हमेशा से ही खेती जोखिम का पेशा रही है, खासकर 1991 में लाए गए आर्थिक सुधारों के बाद से जोखिम लगातार बढ़ा है, लेकिन बीते दस वर्षों के दौरान संकट और सघन हुआ है। 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधामंत्री बनने के बाद से हालात और बिगड़े। अतीत की सरकारों ने ऐसे असंतोष से निपटने के लिए पीएम-किसान के तहत कर्जमाफी और नकद हस्तांतरण जैसे तरीके अपनाये, लेकिन इनसे किसानों की आय में कोई बेहतरी नहीं हुई। नतीजतन, तमाम प्रयासों के बावजूद किसानों की आय पर अब भी दबाव कायम है।
समस्या केवल किसान समूहों की तात्कालिक मांगों से जुड़ी हुई नहीं है, जिन्हें किसी न किसी रूप में राहत की दरकार है, फिर चाहे वह कर्जमाफी हो, नकद हस्तांतरण हो, कानूनों की वापसी हो या फिर न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी। समस्या सरकार की ओर से दिए जा रहे समाधानों में है। ज्यादातर सरकारें, चाहे वे राज्यों की हो या केंद्र की, कर्जमाफी और और नकद हस्तांतरण को खुशी-खुशी लागू कर देती हैं। ज्यादातर सरकारों ने किसी न किसी रूप में कर्जमाफी को लागू किया है और तेलंगाना, ओडिशा सहित केंद्र ने नकद हस्तांतरण भी किया है। ऐसी तमाम मांगें या समाधान हालांकि केवल लक्षण का उपचार साबित होते हैं, उस मर्ज का नहीं जो कृषि संकट के मूल में है। बहस इस बात पर होनी चाहिए कि आखिर किसान कर्ज के जाल में क्यों फंस जाता है और उत्पाद की खरीद के लिए उसे राज्य के ऊपर क्यों निर्भर रहना पड़ता है।
असल मसला कृषि की बदलती हुई प्रकृति और राज्य, किसान व निजी क्षेत्र के बीच बदलते हुए संबंधों का स्वरूप है। न केवल कृषि के तरीके में बदलाव आया है बल्कि कृषि क्षेत्र में संगठित उत्पादन की प्रकृति भी बदली है। इसमें सबसे बड़ा बदलाव फसल उगाने का बदलता पैटर्न है। आज सत्तर या अस्सी के दशक के मुकाबले अखाद्य फसलें कहीं ज्यादा बड़े पैमाने पर उपजायी जाती हैं। इनमें एक हिस्सा तो कपास इत्यादि नकदी फसलों का है। दूसरा बदलाव बागवानी को अपनाए जाने के रूप में दिखा है जहां फल व सब्जियां बड़े पैमाने पर उगायी जा रही हैं। इससे हमारे सामने दो चुनौतियां खड़ी होती हैं। पहला, सब्जी, फल सहित ज्यादातर नकदी फसलें निजी व्यापार के रास्ते बाजारों पर निर्भर हैं। दूसरी चुनौती इन फसलों से जुड़ी अधिरचना की है जिसमें भंडारण से लेकर परिवहन आदि की सुविधाएं शामिल होती हैं। इनके साथ ही एक और रुझान कर्ज के आधार पर बढ़ते यांत्रिकीकरण का है। यांत्रिकीकरण ने कृषि के मौद्रिकीकरण में योगदान दिया है। तीस चालीस साल पहले के मुकाबले आज की तारीख में कृषि में न केवल ज्यादा लागत पूंजी की दरकार है बल्कि व्यापार का बड़े हिस्से का भी पूंजीकरण हो चुका है। परिणाम यह हुआ है कि ज्यादातर छोटे और सीमांत किसान जिनके पास खुद की बचत नहीं है, वे पूंजी के लिए कर्ज पर निर्भर होते गए हैं। इसी के चक्कर में वे कर्ज नहीं चुका पाते और कर्जमाफी की मांग उठती है।
किसानों के घाटे में रहने की बुनियादी वजह हालांकि लागत का बढ़ता मूल्य है जो उत्पादों के खरीद मूल्य के मुकाबले ज्यादा तेजी से बढ़ा है। विभिन्न लागत मदों में सरकारी सब्सिडी के खत्म हो जाने के कारण यह रुझान और तेज हुआ है। मसलन, 2020 में पोषक तत्व आधारित सब्सिडी व्यवस्था के आने के बाद से खाद के दाम बहुत तेजी से बढ़े। यही हाल बिजली और डीज़ल का है जहां सरकार ने डीजल के लिए सब्सिडी खत्म कर दी है और कई राज्यों में बिजली पर भी सब्सिडी अब नहीं मिलती। इसके समानांतर कृषि में लगने वाली ऊर्जा लागत बढ़ी है और भूजल स्तर नीचे गया है, लिहाजा पैदावार को बढ़ाने के लिए अब ज्यादा बिजली की जरूरत पड़ रही है।
ये सब कुछ तो अपेक्षित था, लेकिन हालात को बिगाड़ने का काम किया है सरकारी नीतियों ने, जिसे किसानों की आय से ज्यादा महंगाई की चिंता है। आयात-निर्यात शुल्क से लेकर आवश्यक जिंस अधिनियम तक के दुरुपयोग के रास्ते सरकार ने कृषि जिंसों में मूल्य वृद्धि को लगातार थामने की दखलंदाजी की है। पिछले छह साल के दौरान खाद्यान्न कीमतें सबसे कम बढ़ी हैं लेकिन कृषि की लागत महंगी होती गयी है। नतीजतन, समूचा व्यापार संतुलन इस अवधि में कृषि क्षेत्र के खिलाफ चला गया है।
कृषि अब सरकारी आवंटन के लिहाज से प्राथमिकता वाला क्षेत्र नहीं रहा। बीती तमाम सरकारों ने इस क्षेत्र को अव्यवहार्य बनाने का ही काम किया है। खेती किसानी को टिकाऊ और व्यवहार्य बनाने के लिए 1991 से सरकारों द्वारा अपनाये गए आर्थिक मॉडल पर सवाल खड़ा करने की जरूरत है। इसके लिए न केवल सभी राज्यों में, बल्कि सभी मुद्दों पर भी किसानों को एकजुटता बनानी होगी। बिहार, बंगाल और असम के किसानों के लिए मंडी और एमएसपी का मुद्दा बमुश्किल कोई मायने नहीं रखता क्योंकि इन राज्यों में एपीएमसी तंत्र निष्क्रिय है। बावजूद इसके, मोटे तौर पर उनके मुद्दे भी वही हैं। यही हाल कर्जमाफी का है जो केवल लक्षण को देखता है, जबकि लगातार हो रहे घाटे के चलते कृषि क्षेत्र जिस संकट की अवस्था में पहुंच चुका है उसे कर्जमाफी से दुरुस्त नहीं किया जा सकता। यह समय की मांग है कि सभी किसान यूनियनें एक साथ आएं और सभी राज्यों के किसानों की ओर से उनकी मांगों को कायदे से सूत्रबद्ध करें। ऐसा तभी मुमकिन होगा जब इक्कीसवीं सदी में भारतीय कृषि के समक्ष खड़ी चुनौतियों पर एक व्यापक समझ कायम होगी।
(लेखक जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज के सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज एंड प्लानिंग में प्रोफेसर हैं)