खेती को कानूनों में बांधने की बजाय पर्यावरण संतुलन बनाये रखना ज्यादा जरूरी
किसानी प्राकृतिक नियमो के अनुसार होती है न की मानव द्वारा अपनी सुविधा के अनुसार बनाये गए नियमो के अनुसार यानी ठेके पर खेती पर, जिसमे पूरी तरह से संकर व् आनुवंशिक रूप से संशोधित बीज,, रासायनिक खाद, आदि का प्रयोग किया जाएगा। इससे पूरी की पूरी खाद्य श्रंखला प्रवाभित होगी, जो की जैव विवधता के साथ साथ हवा, पानी, मिटटी को भी नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगी।
कृषि बिलो को लेकर जिस तरह देश के किसान संगठन आंदोलन कर रहे है इसको लेकर जब बुंदेलखंड के किसानो से बात की गयी तो बाँदा, हमीरपुर, महोबा, चित्रकूट, झाँसी, ललितपुर आदि शहरो के किसानो का कहना है कि किसानी धरती पर संतुलन रखने एवं किसानो की समृद्धि का सबसे अच्छा माध्यम है अर्थात किसानी का सीधा सम्बन्ध जीवन से है, क्योंकि खेती व्यापार नहीं एक उद्द्यम है। इसलिए खेती को आर्थिक विकास के लिए कानूनों में कैद करना गलत है। क्योंकि किसानी प्राकृतिक नियमो के अनुसार होती है न की मानव द्वारा अपनी सुविधा के अनुसार बनाये गए नियमो के अनुसार यानी ठेके पर खेती पर, जिसमे पूरी तरह से संकर व् आनुवंशिक रूप से संशोधित बीज,, रासायनिक खाद, आदि का प्रयोग किया जाएगा। इससे पूरी की पूरी खाद्य श्रंखला प्रवाभित होगी, जो की जैव विवधता के साथ साथ हवा, पानी, मिटटी को भी नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगी।
ये किसान आंदोलन सिर्फ कृषि से जुड़ा हुआ नहीं है बल्कि ये पर्यावरणीय, सामाजिक और प्रत्येक प्रकार की समृद्धि के संतुलन से जुड़ा हुआ है |अगर ये संतुलन प्राप्त हो जाएगा तो विश्व से आतंकवाद, अमीरी - गरीबी की खाई, अपराध इत्यादि भी ख़त्म हो जायेगे। अगर सरकार को किसानी की समृद्धि के लिए नियम ही बनाना है तो आज जो वैश्विक समस्याएं है उनको ध्यान में रखकर कानून व् नियम बनाये जाए ताकि खेती एक सम्पूर्ण समाधान का एक माध्यम बन सके। जैसा की किसान हज़ारो बर्षो से करता आ रहा है। कृषि विशेषज्ञों व् किसानो के अनुसार खेती को सिर्फ आर्थिक उन्नत्ति का जरिया बनाना बहुत घातक सिद्ध होगा क्योंकि खेती सिर्फ अनाज ही नहीं बल्कि स्वस्थ मिटटी, जैव विविधता, के साथ आम लोगो व् किसानो की ख़ुशी का स्तर भी संतुलित रखती है | यही कारण रहा है कि जब तक खेती में बाहरी हस्तक्षेप नहीं रहा तब तक देश का किसान खुशहाल रहा यानी किसान ने कभी आत्महत्या नहीं की ।
बुंदेलखंड में इन बिलो के विरोध में किसान ही नहीं महिला किसानो द्वारा इनका सबसे बड़ा विरोध चिंगारी संगठन के बैनर तले नरैनी तहसील बाँदा उत्तर प्रदेश में हो रहा है। महिला किसानो का कहना है कि कानूनों में महिला किसान के अधिकार भी शामिल किये जाए। इसमें ५० गाँवो की महिला किसान पैदल मार्च बाँदा और फिर दिल्ली के लिए करेगी। क्योंकि इन महिला किसानो का मनाना है कि ये कृषि बिल बंधुआ मजदूरी का दूसरा रूप है।
हालाँकि बहुत से किसानो का कहना है कि प्रधानमंत्री जी गलती कर सकते है लेकिन उनके मन में किसी तरह का कोई खोट नहीं है। अतः ये तीनो कृषि बिलो से आने वाले समय में बहुत फायदा होगा। जो किसान दुसरे राज्य की सीमा से पास रहते है उनका कहना है कि किसान अब कही भी अपना उत्पाद बेच सकता है इससे किसानो को उचित दाम मिल सकेगा। ठेके पर खेती के लिए किसानो का कहना है कि हम पहले से ही खेती बटाई पर देते रहे है जो की एक तरह की कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग ही है।
भारत में ५० प्रतिशत से ज्यादा लोग कृषि पर निर्भर है इसलिए कृषि को एक सम्पूर्ण समाधान के रूप में यानी जिस कृषि विधि में जल, ऊर्जा, मिटटी का स्वास्थ, जैव विविधता, ताप में संतुलन स्थापित हो ऐसी कृषि ही हर तरह की समृद्धि प्राप्त की जा सकती है। कृषि को कभी भी आर्थिक विकास का माध्यम नहीं बनाना चाहिए क्योंकि खेती हमेशा समृद्धि का परिचायक रही है। यह देखा गया है कि अगर कृषि को जैव विविधता के साथ सह-अस्तित्व के आधार पर किया जाय तो कृषि करने वाले किसानो की खुशी का स्तर भी अच्छा पाया गया है। कृषि को लॉ ऑफ़ रिटर्न ( वापसी के कानून) पर आधारित होना चाहिए। कृषि एक सर्कुलर अर्थव्यवस्था है, जो समाज के भीतर प्रकृति और एकजुटता के चक्र पर आधारित है।
स्टेनली जॉनसन, ब्रिटिश प्रधान मंत्री बोरिस जॉनसन के पिता का भी यही कहना है कि खेती को पर्यावरण को स्वस्थ रखने के लिए पुराने जमाने के तरीकों पर वापस जाने की जरूरत ह। सर अल्बर्ट हॉवर्ड, जिन्हें 1905 में भारतीय कृषि में सुधार के लिए ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा भारत भेजा गया था उन्होंने कृषि के ऊपर एक किताब एग्रीकल्चर टेस्टामेंट (एक कृषि वसीयतनामा) में लिखा की भारत में कृषि इतने बेहतर तरीके से की जाती है कि भारत के किसानो को उन्होंने अपना प्रोफेसर बना लिया। इसलिए कृषि को आर्थिक विकास के रूप में देखना देश की जैव विविधता, जलवायु, स्वास्थ आदि से खिलवाड़ करना होगा।
कृषि औद्योगीकरण की प्रक्रिया के दौरान हमारा खाद्य आधार 10,000 से 10 प्रजातियों पर निर्भर हो चूका है। केवल तीन पौधों की प्रजातियां - चावल, मक्का और गेहूं से मनुष्यों द्वारा प्राप्त लगभग 60 प्रतिशत कैलोरी का योगदान करते हैं। कृषि पूरी तरह से प्रकृति के नियमो पर निर्भर है। इसलिए कृषि को कानूनों में जकड़ना प्रकृति के नियमो को झुठलाना होगा। यही कारण है कि "नेचर क्लाइमेट चेंज" में प्रकाशित एक नए अध्ययन में पाया गया कि जलवायु परिवर्तन से पृथ्वी के उष्णकटिबंधीय वर्षा बेल्ट को उन क्षेत्रों में असमान रूप से शिफ्ट हो जाएगा जो दुनिया के लगभग दो-तिहाई हिस्से को कवर करते हैं। जिससे अरबों लोगों के लिए पर्यावरण सुरक्षा और खाद्य सुरक्षा को संभावित खतरा है। अतः किसानी को आर्थिक दृष्टिकोण से केवल न देखा जाय। हरित क्रांति का परिणाम हमारे सामने पंजाब में कैंसर ट्रैन के रूप में है। इसके अलावा हरित क्रांति आने के पश्चात देखते ही देखते गाँव के पेट की खेती सेठ की खेती में बदल गई और गांव पूरी तरह बाजार पर निर्भर हो गए। परिणाम यह हुआ कि इस नई यंत्राधारित सेठ की खेती ने गाँव के उद्द्मियो को शहर आश्रित बना दिया। यही कारण है कि गाँव के उन उद्द्मियो की निर्मित वस्तुए आज चलन से बाहर हो जाने के कारण पुरावशेष का रूप ग्रहण कर रही हैं।
किसानी सिर्फ खाद और बीज का खेत में डालना ही नहीं है बल्कि खेती का उत्पादन पूरी तरह से प्रकृति पर निर्भर करता है। जैसा की हम देख रहे है कि हिमालय में ग्लेशियर पिघलने और जलवायु परिवर्तन द्वारा लाए गए उत्तरी क्षेत्रों में बर्फ के आवरण के नुकसान से वातावरण अन्य क्षेत्रों की तुलना में तेजी से गर्म होगा,इससे इस हीटिंग की ओर बारिश की बेल्ट में बदलाव होगा। शोधकर्ताओं के अनुसार अगला कदम अधिक विशेष रूप से यह पता लगाना है कि इन परिवर्तनों का प्राकृतिक आपदाओं, बुनियादी ढांचे और पारिस्थितिकी प्रणालियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, और नीति और प्रबंधन में क्या बदलाव किए जाने की आवश्यकता है। इसलिए आज कि जरूरत सिर्फ कृषि कानूनों में बदलाव से कुछ नहीं होगा जरूरत है हम सबको ऐसी कृषि प्रणाली अपनाने की जिससे जो आज की वैश्विक समस्याएं है उनका भी निराकरण हो सके। कृषि ही एक ऐसा माध्यम है जिससे हम सम्पूर्ण समाधान पा सकते है। क्योंकि कृषि से ही पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक संतुलन पाया जा सकता है। वैसे भी आजकल पूरी दुनिया में रोम सविधान के अनुसार इकोसाइड को एक अंतर्राष्ट्रीय अपराध घोषित करने के लिए बुद्धिजीवी आंदोलन रत है। किसानो की आमदनी बढ़ाने के लिए हमको एक ऐसे कानून की जरूरत है जिसमे आम लोग और इस धरती की हिफाजत प्रथम हो। तभी किसानो की आमदनी बढ़ सकती है नहीं तो प्रकृति को केंद्र में न रखकर अगर कोई भी कानून कृषि व् किसानो के विकास के लिए बनाये जायेगे तो किसान जैसा आज भी प्रकृति की मार को सहता है और कभी टूट कर आत्हत्या तक कर लेता है ये बरक़रार रहेगा। ठेके पर खेती जैसे कानून किसानो को रासायनिक खाद, कीटनाशक व् संकर बीज के उपयोग के लिए कंपनियों द्वारा बाध्य होंगे जिससे जैव विविधता के साथ साथ कृषि भूमि का, पशु पछी एवं मानव का स्वास्थ प्रभावित होगा। बेहतर होगा अगर सरकार भारतीय दर्शन को ध्यान में रखकर कृषि कानून बनाये जिसमे सह अस्तिव्त एवं वसुधैव कुटुंबकम के सिंद्धांत लागु हो। अगर इन सिंद्धान्तो के साथ पूरे विश्व में नियम व् कानून लागु होंगे तो आर्थिक असमानता, आंतकवाद, अमीरी गरीबी के बीच का अंतर, कोरोना जैसी महामारी, जलवायु परिवर्तन, बाढ़ सुखाड़, महिलाओं में असुरक्षा की भावना आदि समस्याओं से छुटकारा मिल सकेगा और यही आज के समय की मांग है। नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब भारत में भी बिल गेट्स जैसे उद्योगपति जो की आज अमेरिका के सबसे बड़े कृषि भूमि (242,000 एकड़ ) के मालिक है भारत में भी इस तरह के व्यवसायी तैयार होंगे यानी भारत, जहा सबसे ज्यादा छोटे किसान है, ये मजदूर हो जायेगे या फिर भूमिहीन होंगे। अतः आज जरूरत है, मानवीय खेती को विकसित करने की जो की कभी भारत की अर्थ व्यवस्था की रीढ़ हुआ करती थी, एवं देश का किसान समृद्ध था।
खेती को प्रति एकड़ उत्पादन, व् अर्थ के रूप में मापना किसानी जैसे पवित्र काम को हेय दृष्टि से देखना होगा। किसानी की अगर तुलना करनी है तो स्वास्थ्य, जैवविविधता प्रति एकड़ से करना चाहिए। वैसे किसानी की सम्मान जनक तुलना प्रति एकड़ सह अस्तिव्त के साथ करनी चाहिए ताकि हमको समुच्चय रूप में कृषि भूमि की कीमत उसकी उदारता के साथ पता चलेगी। यही कारण है कि कृषि भूमि का उदार व्यवहार कानूनों में नहीं बाँधा जा सकता है।
(लेखक पर्यावरणविद हैे और बुंदेलखंड क्षेत्र में कार्यरत हैं, यह लेखक के अपने विचार हैं )