एफपीओः भारतीय किसानों के लिए एक महत्वपूर्ण संस्थान

भारत के कृषि परिदृश्य में छोटे और सीमांत किसान अधिक (86%) हैं। इनमें से अनेक किसान सीमित संसाधन और छोटी जोत के कारण मोलभाव करने की स्थिति में नहीं होते। इन समस्याओं के हल के लिए सरकार ने किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) के गठन को प्रोत्साहित किया है। ये संगठन बतौर कानूनी संस्था किसानों की बाजार तक पहुंच, संसाधनों की पूलिंग और मोलभाव की ताकत बढ़ाने के लिए काम करते हैं।

एफपीओः भारतीय किसानों के लिए एक महत्वपूर्ण संस्थान

भारत के कृषि परिदृश्य में छोटे और सीमांत किसान अधिक (86%) हैं। इनमें से अनेक किसान सीमित संसाधन और छोटी जोत के कारण मोलभाव करने की स्थिति में नहीं होते। इन समस्याओं के हल के लिए सरकार ने किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) के गठन को प्रोत्साहित किया है। ये संगठन बतौर कानूनी संस्था किसानों की बाजार तक पहुंच, संसाधनों की पूलिंग और मोलभाव की ताकत बढ़ाने के लिए काम करते हैं। हालांकि एफपीओ को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है जिससे उनकी क्षमता प्रभावित होती है। इस संक्षिप्त लेख में हम ऐसे ही कुछ पहलुओं को रेखांकित करने के साथ उनका प्रदर्शन सुधारने के लिए कुछ सुझाव दे रहे हैं।

पहले कुछ संदर्भ:
1.  किसान उत्पादक संगठन (एफपीओ) एक आर्थिक संस्था है जो सामाजिक परिवेश में कार्य करती है। इसका ढांचा ग्रामीण परिवेश की समुदाय-संचालित और सहकारी प्रकृति के भीतर काम करते हुए किसानों की आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने का है।

क.  एक आर्थिक इकाई के रूप में: एफपीओ कृषि उपज की सामूहिक खरीद, उत्पादन, प्रसंस्करण और मार्केटिंग पर फोकस करते हैं। संसाधनों को एकत्रित करके वे अपने सदस्य किसानों के लिए लाभप्रदता और सस्टेनेबिलिटी बढ़ाते हैं। व्यवसाय के रूप में कार्य करते हुए एफपीओ राजस्व अर्जित करते हैं और कुछ मामलों में सदस्य किसानों में लाभ का वितरण भी करते हैं। इससे ग्रामीण आर्थिक विकास में योगदान होता है तथा किसानों की आय और उत्पादकता बढ़ती है।

ख. सामाजिक परिवेश: एफपीओ ग्रामीण क्षेत्रों के सामाजिक ताने-बाने से जुड़े होते हैं और छोटे तथा सीमांत किसानों के सामूहिक कल्याण के लिए काम करते हैं। उनका उद्देश्य गरीबी कम करना, सस्टेनेबल कृषि को बढ़ावा देना और स्थानीय क्षमता को बढ़ाना है। एफपीओ सहयोग, साझा निर्णय लेने और सदस्यों के बीच आपसी मदद को बढ़ावा देते हैं और सस्टेनेबल कार्यों के लिए प्रशिक्षण देते हैं। इसके अतिरिक्त, एफपीओ स्थानीय स्तर पर अवसरों का सृजन करके ग्रामीण बेरोजगारी, लैंगिक असमानता और गांव से शहर की ओर पलायन जैसी सामाजिक चुनौतियों से निपटने में मदद करते हैं।

2.  एफपीओ और कोऑपरेटिव: एफपीओ और कोऑपरेटिव दोनों का साझा आधार सामूहिक खेती है, लेकिन उनके फोकस और उनकी संरचना में अंतर होता है। सहकारी संस्थान फसल ऋण, उधारी और कृषि इनपुट जैसे क्षेत्रों में मजबूत होते हैं, वहीं एफपीओ मूल्य संवर्धन, उत्पादों के विविधीकरण और एग्रीगेशन में विशेषज्ञता रखते हैं- अर्थात ऐसे क्षेत्रों में जहां सहकारी संस्थानों की उपस्थिति कम होती है। यह अंतर एफपीओ को प्रसंस्करण और विपणन जैसी आधुनिक कृषि आवश्यकताओं के लिए अधिक प्रासंगिक बनाता है। दूसरी तरफ, सहकारी संस्थान पारंपरिक कार्यों में बेहतर होते हैं।

3.  स्वयं सहायता समूह अनौपचारिक समूह होते हैं जबकि एफपीओ कानूनी संस्था: स्वयं सहायता समूह सामान्य तौर पर कानूनी संस्था नहीं होते। ये अनौपचारिक समूह होते हैं, जिन्हें उनके सदस्य बचत, उधारी या छोटे पैमाने पर उद्यमिता जैसे सामान्य वित्तीय या सामाजिक लक्ष्यों के लिए आपसी सहमति से बनाते हैं। हालांकि यदि स्वयं सहायता समूह अपनी संरचना को औपचारिक बनाना चाहें तो कानूनी मान्यता प्राप्त करने के तरीके हैं। दूसरी ओर, एफपीओ एक कानूनी संस्था के रूप में कंपनी अधिनियम, 2013 के तहत पंजीकृत होते हैं। कई राज्यों में स्वयं सहायता समूह के सदस्य मिलकर एफपीओ बना रहे हैं।
4.  एफपीओ के लिए वित्तीय मदद: केंद्र सरकार की 10,000 एफपीओ योजना के तहत प्रत्येक किसान उत्पादक संगठन को शुरुआती सेटअप लगाने, परिचालन व्यय और क्षमता निर्माण में मदद के लिए अच्छी खासी वित्तीय मदद मिलती है। इसमें शामिल हैंः
क.  प्रत्येक एफपीओ को शुरुआती सेटअप और परिचालन के लिए 18 लाख रुपये तक की राशि;
ख.  आसान ऋण के लिए 2 करोड़ रुपये तक की क्रेडिट गारंटी;
ग.  प्रत्येक स्वयं सहायता समूह सदस्य को 15,000 रुपये तक सीड कैपिटल (यदि लागू हो);
घ. उत्पादक संगठन प्रोत्साहन संस्थान (पीओपीआई) या क्लस्टर-आधारित व्यापार संगठन (सीबीबीओ) के माध्यम से प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण में मदद।

एफपीओ के पहले तीन साल तक कार्यालय का किराया और सीईओ का वेतन देने में भी मदद की जाती है। योजना के तहत सीईओ का वेतन सामान्यतः 25,000 रुपये प्रति माह के आसपास निर्धारित किया जाता है। यह क्षेत्र, एफपीओ का आकार और अन्य कारकों पर निर्भर करता है।

अवसर या चुनौतियां?
सितंबर 2024 तक लगभग 44,460 एफपीओ बनाए गए थे जिनका गठन 2003 से सितंबर 2024 के बीच (टीसीआई 2024) हुआ था। कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय के डेटा के अनुसार लगभग 40 प्रतिशत एफपीओ आज सक्रिय नहीं हैं। शेष 26,938 सक्रिय एफपीओ में से 42 प्रतिशत ने 2023 में अपने वित्तीय दस्तावेज प्रस्तुत नहीं किए। दूसरे शब्दों में कहें तो वर्तमान में केवल एक-तिहाई पंजीकृत एफपीओ सक्रिय हैं जो कंप्लायंस को पूरा कर रहे हैं। इसके पीछे कौन सी समस्याएं हो सकती हैं? क्या ये समस्याएं संरचनात्मक हैं या परिचालन से जुड़ी? बिहार, महाराष्ट्र, ओडिशा और मध्य प्रदेश में किए गए अध्ययन में हमने कुछ समस्याओं की पहचान की है:

1.  अनुदान-आधारित स्टार्टअप पर अत्यधिक जोर: अनेक एफपीओ, विशेष रूप से जो 10,000 एफपीओ योजना के तहत बनाए गए थे, एक सस्टेनेबल बिजनेस मॉडल बनाने के बजाय सरकार से अनुदान प्राप्त करने की दिशा में अधिक प्रेरित थे। शुरुआती वित्तीय सहायता के बाद आगे उन्हें बिना अतिरिक्त वित्तीय मदद के संचालन में संघर्ष करना पड़ता है। इसका असर उनके प्रदर्शन पर होता है और यहां तक कि बंद होने की नौबत आ जाती है। विडंबना यह है कि पुराने एफपीओ, जिन्होंने योजना लांच होने से पहले बिना अनुदान के संचालन शुरू किया था, उन्हें अच्छे कामकाज के बावजूद ऐसी कोई मदद नहीं मिलती है।

2. दीर्घकालिक दृष्टिकोण की कमी और कुप्रबंधन: अनेक नए एफपीओ उचित योजना, मार्केट रिसर्च या नेतृत्व प्रशिक्षण के बिना स्थापित किए गए थे, जिसके परिणामस्वरूप उनका प्रबंधन भी खराब हुआ। स्पष्ट रणनीति और तकनीकी विशेषज्ञता की कमी के कारण अक्सर उनका कामकाज विफल हो गया। कुछ एफपीओ आय सृजन वाला मॉडल विकसित करने में नाकाम रहे और अनुदानों पर ज्यादा निर्भर हो गए।

3.  गुणवत्ता के मुकाबले मात्रा पर ध्यान: सरकार के 10,000 एफपीओ स्थापित करने के लक्ष्य से गुणवत्ता के बजाय संख्या पर अधिक ध्यान केंद्रित किया गया। अनेक एफपीओ सिर्फ इस लक्ष्य को पूरा करने के उद्देश्य से बनाए गए। उनके पास न तो पर्याप्त सपोर्ट सिस्टम था, न ही सदस्यों की सहभागिता के लिए कोई योजना थी। इसके परिणामस्वरूप कामकाज की बुनियाद कमजोर रही।

4.  सस्टेनेबिलिटी की चुनौतियां: प्रारंभिक वित्तीय सहायता के बाद अनेक एफपीओ को बाजार तक पहुंच, मूल्य संवर्धन और एग्रीगेशन में कठिनाई होती है। बाजार के साथ मजबूत लिंकेज अथवा प्रसंस्करण और भंडारण के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचे के बिना अनेक एफपीओ प्रोडक्ट में विविधता नहीं ला पाते या लाभप्रदता में सुधार करने में नाकाम रहते हैं। इससे दीर्घकालिक सस्टेनेबिलिटी प्राप्त करना कठिन हो जाता है।
5.  पर्याप्त क्षमता निर्माण और प्रशिक्षण की कमी: अनेक एफपीओ के पास बिजनेस मैनेजमेंट, मार्केटिंग और संगठनात्मक कौशल में आवश्यक प्रशिक्षण की कमी होती है। एफपीओ के लिए उत्पादक संगठन प्रोत्साहन संस्थान (पीओपीआई) या क्लस्टर-आधारित व्यापार संगठन (सीबीबीओ) प्रशिक्षण में सहायता प्रदान तो करते हैं, लेकिन व्यावहारिक प्रयोग एक चुनौती बनी रहती है।

6.  सीमित बाजार पहुंच: अनेक एफपीओ के लिए एक महत्वपूर्ण बाधा विश्वसनीय बाजार तक पहुंच प्राप्त करना है। अक्सर वे कम कीमतों पर या बिचौलियों के माध्यम से उपज बेचते हैं। इससे वे अपने सदस्यों को बेहतर कीमत नहीं दिला पाते। इससे उनके विकास की संभावनाएं भी प्रभावित होती हैं।

7.  सदस्यों की अपर्याप्त सहभागिता: अनेक एफपीओ को सदस्यों की कम सहभागिता से जूझना पड़ता है। इससे निर्णय लेने में कठिनाई होती है और संगठनात्मक गतिविधियों के लिए भी पर्याप्त सहयोग नहीं मिलता है। सक्रिय भागीदारी के बिना योजनाओं को लागू करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है।

8.  रेगुलेटरी और प्रशासनिक चुनौतियां: जटिल प्रशासनिक आवश्यकताओं और कानूनी ढांचे का पालन करना विशेष रूप से सीमित प्रबंधन अनुभव वाले छोटे एफपीओ के लिए बोझ बन जाता है। इन बाधाओं के कारण अनेक एफपीओ सक्रिय नहीं रह पाते हैं।

9. इन्फ्रास्ट्रक्चर और लॉजिस्टिक की कमी: दूर-दराज के क्षेत्रों में भंडारण, परिवहन और प्रसंस्करण सुविधा जैसे बुनियादी ढांचे की कमी है। इससे एफपीओ की मूल्य संवर्धन, प्रोडक्ट को खराब होने से बचाने या लागत कम करने की क्षमता प्रभावित होती है।

10. नेतृत्व की चुनौतियां: किसी भी एफपीओ के सीईओ का कार्य कठिन होता है और अक्सर यह थकाऊ होता है। सीईओ के लिए 25,000 रुपये प्रतिमाह का मौजूदा वेतन ढांचा बहुत कम है। इससे किसी सक्षम व्यक्ति को आकर्षित करना या बनाए रखना मुश्किल होता है। इसका सीधा असर एफपीओ की क्षमता पर पड़ता है।


एफपीओ की क्षमता सुधारने के लिए कुछ नीतिगत सुझावः
1.  डिजिटल डिसीजन डैशबोर्ड बनाना: सभी एफपीओ के लिए एक राष्ट्रीय स्तर का रिपॉजिटरी स्थापित किया जा सकता है, जो संचालन क्षेत्र (फसल प्रकार, मछली पालन आदि), वित्तीय प्रदर्शन और सदस्यों की डेमोग्राफी जैसे प्रमुख डेटा को ट्रैक करे। इस डैशबोर्ड से सरकार और एफपीओ के बीच दो-तरफा संचार हो सकेगा। इससे प्रदर्शन की निगरानी, फीडबैक देने और सरकारी योजनाओं को अधिक प्रभावी रूप देने में मदद मिलेगी।

2.  एनालिटिक्स के माध्यम से एफपीओ को कस्टमाइज्ड मदद: एफपीओ का मूल्यांकन उनकी आयु, कुल कारोबार और प्रति सदस्य कारोबार के आधार पर किया जा सकता है। एनालिटिक्स यह निर्धारित कर सकेगा कि किस प्रकार की मदद (क्षमता निर्माण, क्रेडिट, बाजार लिंकेज) की जरूरत है। इससे लक्षित हस्तक्षेप किया जा सकेगा। जैसे, पुराने और कम कारोबार वाले एफपीओ के लिए बिजनेस डेवलपमेंट, नए और अधिक कारोबार वाले एफपीओ के लिए वित्तीय मदद।

3.  एफपीओ के लिए फोकस क्षेत्र: डैशबोर्ड से प्राप्त मेट्रिक्स की मदद से एफपीओ को भौगोलिक, कमोडिटी और नीतिगत फोकस (जैसे सस्टेनेबिलिटी, आय सृजन, क्लाइमेट रेजिलिएंस) के आधार पर श्रेणीबद्ध किया जा सकता है। इससे राज्य और राष्ट्रीय स्तर निर्णय लेने में मदद मिलेगी।

4.  एफपीओ सदस्य बनने के मानदंड की समीक्षा: स्थानीय कृषि जरूरतों के साथ तालमेल बिठाने के लिए प्रत्येक एफपीओ में सदस्य किसानों की न्यूनतम संख्या और हर ब्लॉक में एफपीओ की संख्या के मानकों पर पुनर्विचार करना जरूरी है। इसमें सदस्यों की संख्या से फोकस हटाकर भूमि आधारित मानदंडों पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए। प्रतिस्पर्धा और संचालन संबंधी समस्याओं से बचने के लिए ब्लॉक-स्तरीय डिस्ट्रीब्यूशन पर चर्चा को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

5.  पुरस्कार और इनाम की व्यवस्था: एफपीओ के लिए उत्पादकता, इनोवेशन और सामाजिक प्रभाव जैसे कारकों पर आधारित एक श्रेणीबद्ध पुरस्कार व्यवस्था उत्कृष्टता और श्रेष्ठ तौर-तरीके अपनाने को प्रोत्साहित कर सकती है। इससे छोटे और बड़े एफपीओ दोनों को प्रोत्साहन मिलेगा और निरंतर सुधार की संस्कृति पनपेगी।

6.  नेतृत्व की स्थिरता के लिए प्रोत्साहन: सीईओ और बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के लिए प्रतिस्पर्धी वेतन और प्रदर्शन आधारित प्रोत्साहन से एफपीओ प्रबंधन में नेतृत्व की स्थिरता और सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित होगी। वेतन संरचना की नियमित समीक्षा से एफपीओ की आवश्यकताओं और लक्ष्यों के साथ तालमेल बिठाया जा सकेगा।

इन संरचनात्मक और परिचालन संबंधी मुद्दों का समाधान निकालना एफपीओ को सस्टेनेबल और समृद्ध संगठन में बदलने के लिए महत्वपूर्ण है।

(श्वेता सैनी कृषि अर्थशास्त्री और आर्कस पॉलिसी रिसर्च की संस्थापक एवं सीईओ हैं। पुलकित खत्री कृषि अर्थशास्त्री और आर्कस पॉलिसी रिसर्च के लीड (लोकल वॉयसेज) हैं)

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