कर्नाटक चुनाव नतीजे 2023: कांग्रेस की बड़ी जीत में किसानों और ग्रामीण क्षेत्र को जोड़ने की रणनीति कारगर रही
कांग्रेस ने राज्य की भाजपा सरकार और केंद्र सरकार की किसानों और ग्रामीण भारत के लिए जारी योजनाओं और नीतियों के खिलाफ माहौल बनाने में कामयाबी हासिल की। वहीं कांग्रेस ने अपने चुनाव घोषणा-पत्र में कृषि और ग्रामीण क्षेत्र के लिए जो वादे किए उन पर किसानों और ग्रामीण वोटरों ने भरोसा किया है। वहीं नंदिनी और अमूल विवाद भुनाने में कांग्रेस ने पूरा जोर लगाए रखा और इसे चुनावी मुद्दे के रूप में लगातार बरकरार रखा।
कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 135 सीटों के भारी बहुमत तक पहुंचाने में ग्रामीण वोटरों की भूमिका सबसे अहम रही है। यह इस बात को साबित करती है कि कांग्रेस ने राज्य की भाजपा सरकार और केंद्र सरकार की किसानों और ग्रामीण भारत के लिए जारी योजनाओं और नीतियों के खिलाफ माहौल बनाने में कामयाबी हासिल की। वहीं कांग्रेस ने अपने चुनाव घोषणा-पत्र में कृषि और ग्रामीण क्षेत्र के लिए जो वादे किए उन पर किसानों और ग्रामीण वोटरों ने भरोसा किया है। वहीं नंदिनी और अमूल विवाद भुनाने में कांग्रेस ने पूरा जोर लगाए रखा और इसे चुनावी मुद्दे के रूप में लगातार बरकरार रखा।
मैसूर, मांड्या और कोलार के इलाकों में कर्नाटक कोआपरेटिव मिल्क प्रॉड्यूसर्स फेडरेशन लिमिटेड (केएमएफ) की दूध खरीद काफी ज्यादा है। नंदिनी केएमएफ का ही ब्रांड है जो बहुत मजबूत है। कांग्रेस ने दूध की खऱीद पर सरकार द्वारा दी जा रही सब्सिडी को भी बढ़ाकर सात रुपये प्रति लीटर करने का वादा किया था जिसने दूध किसानों को इसके पक्ष में किया है। वहीं गुजरात के बाद कर्नाटक में सहकारी संघों द्वारा दूध की खरीद देश में सबसे अधिक की जाती है। कांग्रेस ने भाजपा पर आरोप लगाया था कि वह नंदिनी को अमूल को सौंपना चाहती है।
वैसे तो कर्नाटक में पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा द्वारा स्थापित जनता दल (एस) को वोक्कालिंगा किसानों की पार्टी माना जाता है जिसका मांड्या व मैसूर क्षेत्रों में प्रभाव अधिक है। मगर ताजा चुनाव परिणामों ने इन क्षेत्रों में भी कांग्रेस को मतदाताओं की पहली पसंद के रूप में स्थापित किया। चुनाव के आंकड़ों के मुताबिक, कर्नाटक के ग्रामीण क्षेत्रों में कांग्रेस का वोट शेयर साढ़े छह फीसदी बढ़ा है, जबकि भाजपा के वोट शेयर में साढ़े तीन फीसदी से अधिक की गिरावट आई है। जनता दल (एस) का वोट शेयर भी घटा है। ग्रामीण इलाकों में कांग्रेस को 45 सीटें अधिक मिली हैं, जबकि इन क्षेत्रों में भाजपा को 31 सीटों का नुकसान हुआ है। कांग्रेस की 135 सीटों में से 92 सीटें ग्रामीण और अर्द्ध-ग्रामीण क्षेत्रों से ही आई हैं।
कांग्रेस ने अपने घोषणा-पत्र में जहां फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का निर्धारण सीएसीपी की सिफारिशों के आधार पर करने का वादा किया है, वहीं राज्य में चल रही कृषि सिंचाई परियोजनाओं को पांच साल में पूरा करने के लिए डेढ़ लाख करोड़ रुपये निवेश करने का वादा किया है। कृषि क्षेत्र के आधुनिकीकरण पर डेढ़ लाख करोड़ रुपये निवेश करने और गांवों में ढांचागत सुविधाओं के विकास पर 50 हजार करोड़ रुपये खर्च करने की भी घोषणा की है।
इसके साथ ही अमूल और नंदिनी विवाद को लगातार लोगों के बीच बरकरार रखते हुए दूध खरीद पर सरकार की सब्सिडी को सात रुपये प्रति लीटर करने का वादा किया है। दूध की खरीद को मौजूदा करीब 84 लाख किलो प्रति दिन से बढ़ाकर डेढ़ करोड़ किलो प्रतिदिन तक ले जाने की बात पार्टी ने कही है। राज्य में 14 हजार दूग्ध सहकारी समितयां हैं जिससे 24 लाख दूध किसान सदस्य के रूप में जुड़े हुए हैं। साथ की मत्स्य क्रांति योजना के लिए 12 हजार करोड़ रुपये निवेश कर ब्लू रिवोल्यूशन को मजबूत करने का वादा किया है।
असल में यह बात भाजपा को समझनी पड़ेगी कि वह किसानों और ग्रामीण वोटरों के बीच अभी भी अपनी पकड़ मजबूत नहीं कर पाई है। इसमें उत्तर प्रदेश के हाल के विधानसभा चुनाव अपवाद हैं जहां किसान आंदोलन के बावजूद भाजपा को भारी बहुमत मिला। मगर इसके साथ एक तथ्य यह भी है कि उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन का असर पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक ही सीमित रहता है। वहीं कर्नाटक में किसानों के मुद्दे पूरे राज्य में प्रमुखता पाते रहे हैं।
महाराष्ट्र से लगे कर्नाटक के क्षेत्र में चीनी मिलें अधिक हैं और वहां सहकारी चीनी मिलों की भूमिका काफी अहम हैं। उस क्षेत्र में भी भाजपा को सीटों का काफी नुकसान हुआ है। महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के बाद कर्नाटक देश का तीसरा सबसे बड़ा चीनी उत्पादक राज्य है। कर्नाटक को उत्तर भारतीय राज्यों और महाराष्ट्र की तरह किसान संगठनों के सक्रियता वाले राज्य के रूप में भी जाना जाता है लेकिन भाजपा में वहां किसानों के नेता के रूप में पहचान रखने वाला कोई नेता नहीं है। ऐसे में किसानों का भरोसा जीतना उसके लिए आसान नहीं था। वहीं भाजपा के चुनाव प्रचार और मुद्दों में किसानों को बहुत अधिक प्राथमिकता भी नहीं दी गई थी।